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विपक्षी एकता को डेंट-यूनिटी से विक्ट्री, त्रिपुरा-मेघालय और नागालैंड से 3 संदेश

Tripura, Nagaland, Meghalaya Election: बीजेपी ने 'गैर हिदुत्व' की पिच पर कैसे सत्ता में वापसी की?

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पूर्वोत्तर के तीन राज्यों त्रिपुरा (Tripura), मेघालय (Meghalaya) और नागालैंड (Nagaland) में विधानसभा चुनाव के नतीजे आ चुके हैं. त्रिपुरा में बीजेपी ने 32 सीटों के साथ सत्ता में वापसी की. नागालैंड में बीजेपी ने एडीपीपी के साथ चुनाव लड़ा था. बीजेपी को 12 और NDPP को 25 सीटें मिलीं. यानी यहां भी सरकार. वहीं मेघालय में BJP की पुरानी सहयोगी NPP को 26 सीटों पर जीत मिली है. पिछली बार की तरह बीजेपी को सिर्फ 2 सीटें मिलीं. यानी मेघालय में भी बीजेपी NPP और अन्य के साथ सरकार बना सकती है.

सत्ता में वापसी होने के बावजूद तीनों राज्यों में बीजेपी का वोट प्रतिशत घटा है. सवाल है क्यों? लोकसभा चुनाव में विपक्षी एकता की बात करने वाली कांग्रेस और टीएमसी मेघालय में एक दूसरे के लिए वोटकटवा क्यों साबित हुईं? नतीजों से ऐसे ही 3 संदेश आगामी चुनावों के लिए मिल रहे हैं.  

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1- मेघालय के नतीजों से 'विपक्षी एकता' पर डेंट?

लोकसभा चुनाव 2024 में बीजेपी का मुकाबला करने के लिए विपक्षी एकता के फॉर्मूले पर मंथन जारी है. कभी कांग्रेस, तमिलनाडु के सीएम स्टालिन के जन्मदिन पर एक साथ चुनाव लड़ने की बात करती है तो कभी नीतीश कुमार खुले मंच से कांग्रेस को साथ आने का ऑफर देते हैं. लेकिन मेघालय के नतीजे विपक्षी एकता के फॉर्मूले को डेंट पहुंचा सकते हैं. समझते हैं कैसे

टीएमसी से कांग्रेस को छोड़ बाकियों का फायदा

मेघालय में टीएमसी ने पहली बार चुनाव लड़ा और 5 सीटों पर जीत हासिल की उधर कांग्रेस 21 सीटों से घटकर 5 पर आ गई. यानी राज्य में पहली बार लड़ी टीएमसी और सालों पुरानी पार्टी कांग्रेस की सीट बराबर. कांग्रेस को 13.14% और टीएमसी 13.78% वोट मिले हैं. यहां कुछ प्वॉइंट से ही सही टीएमसी आगे है.

बीजेपी पहले की तरह 2 सीट पर है. एनपीपी 19 से 21 और UDP 6 से 11 सीट की बढ़त पर है. यानी कुल मिलाकर देखें तो टीएमसी के चुनाव लड़ने के बाद सबसे ज्यादा कांग्रेस की सीटों में बदलाव या कहें कि घाटा हुआ है.

इससे पहले गोवा में भी टीएमसी ने चुनाव लड़ा था. हालांकि वहां ज्यादा फायदा नहीं हुआ, लेकिन एक नैरेटिव सेट हो गया था कि टीएमसी कांग्रेस का ही वोट काट सकती है. ऐसे में गोवा के बाद मेघालय में भी वही हाल दिखा. विपक्षी एकता की राह में टीएमसी-कांग्रेस के बीच अदावत पहले ही एक रोड़ा थी, मेघालय के नतीजों के बाद ये रोड़ा और भारी होने का डर है.

2- लोकल यूनिटी से बीजेपी की विक्ट्री को टक्कर

त्रिपुरा के नतीजे बताते हैं कि अगर स्थानीय पार्टियों की एकजुटता रही तो बीजेपी को कड़ी टक्कर मिल सकती है. समझते हैं कैसे? त्रिपुरा में बीजेपी 32 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी है. दूसरे नंबर पर 13 सीटों के साथ पहली बार चुनाव लड़ी टिपरा मोथा पार्टी है. सीपीआई (एम) 11 सीटों के साथ तीसरे नंबर पर है. कांग्रेस को 3 सीटें मिलीं.  

पुराने कांग्रेसी प्रद्योत देबबर्मा की पार्टी टिपरा मोथा ने पूरा चुनावी समीकरण बदलकर रख दिया. पहले समझते हैं कि टिपरा मोथा ने किसे फायदा और किसे नुकसान पहुंचाया?

बीजेपी को नुकसान: टिपरा मोथा के चुनाव लड़ने से पहला सीधा नुकसान बीजेपी को होता दिख रहा है. पिछले और इस चुनाव में बीजेपी ने आदिवासी वोटर्स पर पकड़ रखने वाली पार्टी IPFT के साथ चुनाव लड़ा था. पिछली बार IPFT को 8 सीटों पर जीत मिली थी, लेकिन अबकी बार सिर्फ 1 सीट. वजह साफ थी. ट्राइबल वोट टिपरा मोथा पार्टी के पास चला गया. यानी बीजेपी को IPFT से अलायंस होने का कोई फायदा नहीं हुआ. पिछली बार जो गठबंधन 43 सीटों पर था वह घटकर 33 पर आ गया. बीजेपी का वोट प्रतिशत करीब 43% से घटकर 39% पर आ गया.

त्रिपुरा में टिपरा 13 सीटें जीती. इन सभी 13 सीटों में से कांग्रेस किसी पर भी नंबर दो पर नहीं रही. यानी जहां टिपरा जीती वहां सीधा मुकाबला कांग्रेस से नहीं था. 13 में से 7 सीटों पर बीजेपी दूसरे नंबर पर रही, वहीं CPI (M) 4 और IPFT दो सीटों पर दूसरे नंबर पर रही.

कांग्रेस फायदे में दिखी: टिपरा मोथा पार्टी पहली बार चुनाव लड़ी थी. इसके बाद सीटों में जो बदलाव दिखा उसमें कांग्रेस 0 से 3 सीटों पर पहुंचती दिखी. वोट प्रतिशत में भी 2% से 9% तक का इजाफा हुआ. सीपीआई (एम) को जरूर घाटा हुआ है. सीटों की संख्या 16 से घटकर 11 पर आ गई. वोट प्रतिशत 43% से घटकर 25% पर आ गया.

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कुल मिलाकर देखें तो त्रिपुरा में खुद बीजेपी और उसके साथी का प्रदर्शन पहले के मुकाबले कमजोर रहा है. यानी राज्य की जनता बदलाव चाहती थी. विपक्ष इसका फायदा नहीं उठा पाया. अगर कांग्रेस, सीपीआई (एम) और टिपरा मोथा ने मिलकर चुनाव लड़ा होता तो बीजेपी को कड़ी टक्कर मिल सकती थी, लेकिन आपसी फूट की वजह से ऐसा नहीं हो सका.

3- बीजेपी 'गैर हिंदुत्व' की पिच पर भी खेलने में माहिर

नागालैंड में ज्यादातर आबादी ईसाई धर्म को मानती है. लेकिन यहां पर भी हिंदुत्व की पिच पर खेलने वाली बीजेपी कांग्रेस पर हावी है. साल 2018 में बीजेपी ने 12 सीटों पर और इस बार भी 12 सीटों पर जीत हासिल की. कांग्रेस पिछली बार भी शून्य थी और इस बार भी. बीजेपी के सहयोगी NDPP  पिछली बार 17 सीटों पर थी. इस बार 25 सीटों पर. ये सब कैसे हुआ. यहां दूसरी बार बीजेपी संगठन वापसी कैसे कर रही है? इसे बीजेपी ने दो फॉर्मूलों से क्रैक किया.

  • बीजेपी ने स्थानीय मुद्दों पर फोकस किया. बीजेपी शासित कई राज्यों में ईसाई समुदाय की शिकायत है कि उनपर हमले बढ़ रहे हैं. कई बीजेपी शासित राज्यों में गौतस्करी को लेकर कानून बन रहे हैं और लिंचिंग हो रही है लेकिन नागालैंड में बीजेपी के लिए न धर्मांतरण मुद्दा था और न ही गोतस्करी. बीजेपी ने तो नागालैंड के बुजुर्गों को जेरूसलम की मुफ्त तीर्थ यात्रा तक कराने का वादा किया है. चर्च के पदाधिकारियों के साथ बैठक करना हो या फिर राज्य के स्थानीय नायकों का सम्मान. बीजेपी ने सब कुछ किया. पीएम मोदी रानी गाइदिनल्यू की जयंती कार्यक्रम में शामिल भी हुए. नतीजा आपके सामने है. लेकिन इसके अलावा बीजेपी ने 20:80 का फॉर्मूला अपनाया.

  • दरअसल, नागालैंड में विपक्ष नहीं के बराबर है. पिछले चुनाव में एनडीपीपी और बीजेपी ने साथ मिलकर चुनाव लड़ा था. लेकिन एनपीएफ 27 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी. एनडीपीपी और बीजेपी ने मिलकर सरकार बना ली. कुछ समय बाद ही एनपीएफ के ज्यादातर विधायक NDPP के साथ चले गए. कुल मिलाकर 55 से ज्यादा विधायक सत्ता पक्ष के हो गए. अबकी बार भी बीजेपी ने इसी फॉर्मूले को अपनाया और सत्ता में वापसी की.

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तीन राज्यों के नतीजों में बीजेपी का प्रदर्शन भले ही पहले की तुलना में डाउन हुआ है, लेकिन लोकल पॉलिटिक्स में सफल साबित हुई है. सत्ता में वापसी कर स्थानीय पार्टियों को खुद के साथ मिलाने का एक पॉजिटिव संदेश दिया है. वहीं विपक्षी एकता की बात करने वाले दलों को नए सिरे से सोचने की जरूरत है कि  आगामी लोकसभा चुनाव में एक साथ आने का फार्मूला क्या हो? कभी आम आदमी पार्टी तो कभी टीएमसी, कांग्रेस के लिए वोट कटवा पार्टी बनने से बच जाए इसके लिए क्या रणनीति हो सकती है. इसपर विचार करने की जरूरत है.

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