15 जनवरी को BSP सुप्रीमो मायावती का बर्थडे था. इस दिन उन्होंने कैमरे के सामने आकर जो बोला उससे सियासी हलकों में चर्चा गर्म हो गई है. भाषणों की स्क्रिप्ट पढ़ने वाली मायावती बिना स्क्रिप्ट देखे पत्रकारों से संवाद कर रहीं थीं. उनकी बॉडी लैंग्वेज से साफ झलक रहा था कि वो वापसी करने के लिए कमर कस ली हैं. इसके पीछे की कई वजहें हो सकती हैं. उन्होंने साफ तौर पर कह दिया है कि अब वो किसी भी पार्टी से आने वाले विधानसभा और लोकसभा चुनाव में गठबंधन नहीं करेंगी, क्योंकि गठबंधन से उन्हें घाटा ही हुआ है. मायावती के ये तेवर उनकी पुरानी राजनीति की ओर संकेत कर रहे हैं. लेकिन, सवाल ये है कि मायावती ने जिस पुरानी राजनीति का संकेत दिया है, तो क्या उनका अपना पुराना कोर वोट बैंक भी उनके साथ लौटेगा? सवाल ये भी है कि मायावती की "एकला चलो नीति" से किसे फायदा होने वाला है?
मायावती का दोबारा एक्टिव होना, जरूरी या मजबूरी?
इसके पीछे की दो वजहें हो सकती हैं, पहला ये कि हाल के दिनों में हुए अलग-अलग राज्यों के विधानसभा चुनावों में बीएसपी का वोट शेयर घटा है. इससे डर है कि कहीं बीएसपी के राष्ट्रीय पार्टी का तमगा न छिन जाए. और दूसरा ये कि अपना कोर वोटर दलित, मुस्लिम और गैर यादव ओबीसी को दोबारा साथ में लेकर फाइट में आना चाहती हैं.
राजनीति में सक्रिय होना उनकी मजबूरी भी है. क्योंकि, चंद्रशेखर रावण उनके समक्ष एक बड़ी चुनौती बनकर उभरते दिख रहे हैं. अगर मायावती को अपनी पार्टी का अस्तित्व बचाए रखना है तो उन्हें आगे आना होगा, क्योंकि उन्होंने अपने राजनीतिक जीवन में अपने समाज से कोई बड़ा नेता नहीं बनाया जो उनकी विरासत को संभाल सके और चंद्रशेखर को चुनौती दे सके.
लेकिन, सवाल ये है कि अगर वो ये नहीं कर पाईं तो उनकी "एकला चलो नीति" का फायदा किसे होगा? कहीं मायावती का ये हिडेन एजेंडा तो नहीं जो साल 2022 के विधानसभा चुनाव में देखने को मिला, जहां वो चुनाव के वक्त पूरी तरीके से निष्क्रिय हो गईं और इसका फायदा बीजेपी को मिला. इसकी वजह से यूपी में उनका वोट बैंक खिसकर 12.7 फीसदी पर आ गया था.
वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश का मानना है कि...
मायावती की "एकला चलो नीति" से फायदा कम और विपक्ष को घाटा ज्यादा होगा. उनका मानना है कि साल 2024 में एकजुटता की बात कर रहे विपक्ष को मायावती ने बड़ा झटका दिया है. अगर मायावती अकेले चुनाव मैदान में उतरती हैं तो दलित, मुस्लिम और गैर यादव ओबीसी के वोटों में बंटवारा होगा और इसका सीधे तौर पर फायदा बीजेपी को मिलेगा.उर्मिलेश, वरिष्ठ पत्रकार
क्या अपने कोर वोटर को साधने में सफल हो पाएंगी मायावती?
इसमें कोई दो राय नहीं है कि मौजूदा वक्त में मयावती दलित राजनीति के केंद्र में नहीं हैं. यूपी की राजनीति में दलित समाज से ऐसा कोई बड़ा नेता नहीं है, जो उनकी जगह ले सके. आज भी वो दलित समाज की सर्वमान्य नेता हैं. हां, ये जरूर है कि कुछ हद तक चंद्रशेखर रावण उनको चुनौती देते दिख रहे हैं. उनका दलित युवा वर्ग में प्रभाव ज्यादा है, लेकिन वो इसे वोट में कन्वर्ट कराने में उतने उस्ताद नजर नहीं आते हैं. क्योंकि, गोरखपुर में उनकी बड़ी हार इसकी गवाही देती है. ऐसे में ये कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि वो दोबारा रिवाइव नहीं कर पाएंगीं.
वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश का कहना है कि...
"कांशीराम के समय आप देखेंगे कि बहुजन का हिस्सा उनके साथ जुड़ा रहा. लेकिन, उनकी मृत्यु के बाद मायावती को कोई मार्गदर्शन देने वाला नहीं था, उन्होंने कोई थिंक टैंक नहीं बनाया. जब वो यूपी की सत्ता में थीं तो उनके सबसे बड़े सिपहसलार सतीश चंद्र मिश्रा थे. जिनकी सहभागिता कभी भी बहुजन आंदोलन के सिपाही के रूप में नहीं देखी गई. लिहाजा, उन्होंने बहुजन इंट्रेस्ट की राजनीति को छोड़ दिया और इसका सबसे बड़ा फायदा हाल के दिनों में बीजेपी ने उठाया. अगर मायावती सोच रहीं हैं कि ऐसा करने से पहले वाला कोर वोट बैंक उनके साथ जुड़ेगा तो बड़ा मुश्किल है. क्योंकि, हाल के दिनों में उनकी अपने कोर वोटर के बड़े तबके में विश्वसनीयता घटी है. अब सामाजिक आधार पर उस बड़े तबके का जुड़ना मुश्किल है."उर्मिलेश, वरिष्ठ पत्रकार
अखिलेश ने मायावती 'काट' के लिए चली 'रावण चाल', कितना करेगा काम?
अखिलेश यादव ने दलित वोट की भरपाई के लिए पहले से ही तैयारी शुरू कर दी है. उन्होंने चंद्रशेखर रावण के साथ मेल मिलाप बढ़ाना शुरू कर दिया है, जिससे दलित वोट को अपने साथ जोड़ा जा सके.
अखिलेश पहले से ही खुद को लोहिया और अंबेडकरवादी होने का दावा करते आए हैं, जिससे दलित वोट उनके साथ जुड़ सके.
वहीं, अखिलेश यादव ने गैर यादव OBC को जोड़ने के लिए स्वामी प्रसाद मौर्य और दारा सिंह चौहान जैसे बड़े नेताओं को अपने साथ जोड़ा. जिनकी लैंडिंग सीधे बीजेपी से हुई. लेकिन, वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश का मानना है कि...
अखिलेश यादव की राजनीति में कंसिसटेंसी नहीं दिखती है. वो कब कौन सा फैसला ले लेंगे पता नहीं चलता. विधानसभा चुनाव में उन्होंने कई क्षेत्रीय पार्टियों के साथ गठबंधन किया, लेकिन चुनाव बाद सब एक दूसरे से अलग हो गए और एक दूसरे के खिलाफ बयानबाजी करने लगे. हां, ये जरूर है कि अगर चंद्रशेखर रावण उनके साथ जुड़ते हैं तो अपने साथ वो कुछ लोगों को लेकर आएंगे. क्योंकि, चंद्रशेखर रावण को लेकर दलित युवा वर्ग में क्रेज है. पश्चिमी यूपी में अच्छा जनाधार है. लेकिन, ये लोग कितना वोट में कन्वर्ट होंगे ये कहना मुश्किल है.उर्मिलेश, वरिष्ठ पत्रकार
हालांकि, मायावती ने अपनी बॉडी लैंग्वेज और अपने बयानों से ये संकेत दे दिया है कि उनका जनाधार अभी खत्म नहीं हुआ. उन्होने इसके लिए EVM को भी दोषी ठहराया. उन्होंने कहा कि EVM को छोड़ वैलेट पेपर से चुनाव कराओ, तब बीएसपी की ताकत का अंदाजा लग जाएगा. जो भी हो ये तो आने वाला वक्त ही बताएगा कि मायावती की "एकला चलो नीति" कितना काम करती है और अखिलेश यादव की 'रावण चाल' क्या कमाल दिखाती है?
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