"हम संन्यास नहीं लेंगे. हम नई पार्टी का गठन करेंगे, नहीं तो कोई अच्छा दोस्त मिलेगा तो उससे दोस्ती करेंगे."
झारखंड (Jharkhand) के पूर्व मुख्यमंत्री चंपाई सोरेन (Champai Soren) ने झारखंड मुक्ति मोर्चा (JMM) से बगावत करते हुए नई पार्टी बनाने का ऐलान कर दिया है. इसके साथ ही उन्होंने गठबंधन के लिए भी दरवाजे खुले रखे हैं. इस राजनीतिक हलचल से प्रदेश का सियासी पारा बढ़ गया है. राज्य में इस साल विधानसभा चुनाव भी होने हैं.
CM बनने से लेकर नई पार्टी बनाने की घोषणा तक
31 जनवरी 2024 को हेमंत सोरेन के जेल जाने के बाद चंपाई सोरेन ने 2 फरवरी को मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली थी. 'कोल्हान के टाइगर' कहे जाने वाले चंपाई को हेमंत सोरेन को जमानत मिलने के बाद पार्टी के कहने पर पद छोड़ना पड़ा था. तीन जुलाई 2024 को उन्होंने इस्तीफा दे दिया था.
करीब डेढ़ महीने बाद चंपाई सोरेन का गुस्सा फूटा. उन्होंने पार्टी पर "अपमान और तिरस्कार" का आरोप लगाते हुए सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म X पर एक पोस्ट लिखा. उन्होंने कहा, "इतने अपमान एवं तिरस्कार के बाद मैं वैकल्पिक राह तलाशने हेतु मजबूर हो गया."
इसके साथ ही उन्होंने अपने लिए तीन विकल्प भी बताए थे- "पहला, राजनीति से संन्यास लेना, दूसरा-अपना अलग संगठन खड़ा करना और तीसरा, इस राह में अगर कोई साथी मिले, तो उसके साथ आगे का सफर तय करना."
हालांकि, अब उन्होंने संन्यास के विकल्प को दरकिनार करते हुए नई पार्टी बनाने की बात कही है. इसके साथ ही उन्होंने गठबंधन के लिए भी दरवाजे खुले रखे हैं.
चंपाई सोरेन की पार्टी का क्या नाम होगा और उनकी आगे की रणनीति क्या होगी, इसका उन्होंने अभी तक खुलासा नहीं किया है. उनका कहना है कि एक हफ्ते में सभी चीजें साफ हो जाएंगी.
ऐसे में आगामी विधानसभा चुनाव के मद्देनजर बड़ा सवाल है उनकी बगावत से JMM को कितना नुकसान होगा? क्या चंपाई के जाने से मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के लिए सियासी मुश्किलें बढ़ सकती है? क्या इस पूरे घटनाक्रम से भारतीय जनता पार्टी (BJP) को फायदा मिल सकता है?
'कोल्हान के टाइगर' चंपाई सोरेन
झारखंड के कोल्हान क्षेत्र से आने वाले संथाल आदिवासी नेता चंपाई सोरेन की बेदाग छवि रही है और उन्हें राज्य के बड़े आदिवासी नेताओं में शुमार किया जाता है. मजदूरों के हक की आवाज उठाने से लेकर झारखंड राज्य गठन के आंदोलन तक में उनका सक्रिय योगदान रहा है.
क्विंट हिंदी से बातचीत में झारखंड के वरिष्ठ पत्रकार सुरेंद्र सोरेन कहते हैं, "शिबू सोरेन के बाद वे संथाल समुदाय से दूसरी पंक्ति के सबसे बड़े नेता हैं. हालांकि, उनसे सीनियर स्टीफन मरांडी भी हैं, लेकिन स्टीफन मरांडी संथाल परगना के लिए जाने जाते हैं, उसी तरह से चंपाई सोरेन जमशेदपुर और कोल्हान के लिए जाने जाते हैं."
सूबे के कोल्हान इलाके में चंपाई सोरेन की मजबूत पकड़ है. इस इलाके की करीब दर्जनभर सीटों पर उनका खासा प्रभाव है. कोल्हान क्षेत्र- सरायकेला, पूर्वी सिंहभूम और पश्चिमी सिंहभूम जिलों को मिलाकर बनता है. इस इलाके में विधानसभा की 14 सीटें और लोकसभा की 2 सीटें हैं.
झारखंड विधानसभा में वे सरायकेला सीट का प्रतिनिधित्व करते हैं. साल 1991 में हुए उपचुनाव में उन्होंने पहली बार जीत हासिल की थी. इसके बाद वे 1995 में फिर चुनाव जीते लेकिन साल 2000 का चुनाव हार गए. साल 2005 में हुए विधानसभा चुनाव में उन्होंने फिर से जीत हासिल की और उसके बाद कोई चुनाव नहीं हारे. वे छह बार इस सीट से विधायक रहे हैं.
चंपाई सोरेन कोल्हान इलाके से चौथे मुख्यमंत्री रहे हैं. सूबे के पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा और रघुबर दास भी इसी इलाके से आते हैं. 2 पूर्व मुख्यमंत्री होने के बावजूद 2019 विधानसभा चुनाव में बीजेपी का इस इलाके में खाता भी नहीं खुला था. चंपाई सोरेन की सियासी ताकत का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है.
2019 विधानसभा चुनाव में कोल्हान में जेएमएम को बड़ी जीत मिली थी. इस इलाके की 14 सीटों में से 11 सीटों पर JMM को जीत मिली थी. जबकि 2 सीटों पर JMM की सहयोगी कांग्रेस को जीत मिली थी. एक सीट निर्दलीय के खाते में गई थी.
हालांकि, 2014 विधानसभा चुनाव में इस क्षेत्र की 14 में से 5 सीटों पर बीजेपी ने कब्जा जमाया था.
क्या JMM को होगा नुकसान?
शिबू सोरेन परिवार से भी चंपाई सोरेन का काफी पुराना संबंध रहा है. वे शिबू सोरेन और उनके बेटे हेमंत सोरेन दोनों के विश्वसनीय रहे हैं. उन्हें संगठन का वफादार सिपाही माना जाता था. यही वजह रही कि जब हेमंत सोरेन को जेल जाना पड़ा तो राज्य की कमान उनके हाथों में सौंपी गई थी. हालांकि, अब परिस्थितियां बदल गई हैं.
वरिष्ठ पत्रकार सुरेंद्र सोरेन कहते हैं, "नुकसान कितना बड़ा होगा या छोटा होगा इसका अभी आकलन करना तो मुश्किल है, लेकिन इतना जरूर है कि नुकसान होगा. अगर 100 वोट का भी नुकसान होता है तो वो झारखंड मुक्ति मोर्चा के खेमे से ही होगा."
राजनीतिक टिप्पणीकार अमिताभ तिवारी कहते हैं, "पार्टी के विधायक अभी भी हेमंत के साथ ही हैं. चंपाई सोरेन के साथ अभी कोई नहीं गया है."
इसके साथ ही वे कहते हैं,
"क्षेत्रीय दलों में देखें तो पार्टी पर नियंत्रण एक परिवार का होता है और वोट भी उसी परिवार का होता है. चाहें शिवसेना (यूबीटी) देख लीजिए या फिर एनसीपी (शरदचंद्र पवार). ऐसी पार्टियों में जब भी बंटवारा होता है तो वोट परिवार के पास ही रहता है."
हालांकि, चंपाई सोरेन ने खुद भी ऐलान किया है कि वो पार्टी को नहीं तोड़ेंगे. उन्होंने कहा है, "यह मेरा निजी संघर्ष है इसलिए इसमें पार्टी के किसी सदस्य को शामिल करने अथवा संगठन को किसी प्रकार की क्षति पहुंचाने का मेरा कोई इरादा नहीं है. जिस पार्टी को हमने अपने खून-पसीने से सींचा है, उसका नुकसान करने के बारे में तो कभी सोच भी नहीं सकते."
वहीं कोल्हान में जोबा मांझी, दीपक बिरुवा से लेकर रामदास सोरेन, सुखराम उरांव, दशरथ गगराई जैसे जेएमएम के कई कद्दावर नेता हैं, जो मुश्किल परिस्थिति में पार्टी को संभालने में बड़ी भूमिका निभा सकते हैं.
सूबे के दूसरे इलाकों में चंपाई सोरेन के प्रभाव के सवाल पर जानकारों का कहना है कि कोल्हान के बाहर उनका ज्यादा प्रभाव नहीं है, ऐसे में JMM को ज्यादा बड़ा नुकसान होता नहीं दिख रहा है.
सहानुभूति फैक्टर: दूसरी ओर जेल से आने के बाद से हेमंत सोरेन सहानुभूति बटोरने में लगे हैं. वे आदिवासी वोटर्स को भावनात्मक रूप से जोड़ने में जुटे हैं. हेमंत लगातार बीजेपी पर आरोप लगा रहे हैं कि उसने एक आदिवासी नेता को फंसाकर जेल भेजा.
ऐसे में पॉलिटिकल पंडितों का मानना है कि अगर हेमंत विधानसभा चुनावों में पब्लिक का सेंटिमेंट अपनी ओर करने में कामयाब रहते हैं तो चंपाई सोरेन के जाने का पार्टी पर बहुत असर नहीं होगा.
बता दें कि प्रदेश की 81 विधानसभा सीटों में से 28 सीटें आदिवासियों के लिए सुरक्षित हैं. पिछले चुनाव में इन 28 में से 26 सीटों पर जेएमएम और कांग्रेस के गठबंधन ने जीत हासिल की थी.
आदिवासियों के लिए आरक्षित 28 सीटों में से 9 सीटें कोल्हान क्षेत्र की है. 2019 में इनमें से 8 पर जेएमएम और एक पर उसकी सहयोगी कांग्रेस ने जीत दर्ज की थी.
चंपाई की बगावत से क्या बीजेपी को फायदा होगा?
भारतीय जनता पार्टी की नजर झारखंड की सत्ता में वापसी पर है. लेकिन पार्टी के सामने कई चुनौतियां हैं. उनमें से एक आदिवासी वोटर्स को साधना है.
2011 जनगणना के मुताबिक, प्रदेश में अनुसूचित जनजातियों की जनसंख्या 86 लाख थी, जो राज्य की कुल जनसंख्या का 26.2 प्रतिशत है. पिछले कुछ सालों से ये तबका बीजेपी से खफा दिख रहा है.
2019 लोकसभा चुनाव में बीजेपी आदिवासियों के लिए सुरक्षित 28 में से सिर्फ 2 सीटें ही जीतने में कामयाब रही थी. 2024 लोकसभा चुनाव में भी पार्टी को निराशा हाथ लगी, और आदिवासियों के लिए सुरक्षित पांचों सीट हार गई. लेकिन फिर भी बीजेपी लोकसभा में 8 सीटों के साथ झारखंड की सबसे बड़ी पार्टी है. 2019 में बीजेपी ने 12 सीटें जीतीं थीं.
चंपाई सोरेन नई पार्टी बनाने की बात करने के साथ ही राजनीतिक दोस्त भी तलाश रहे हैं. राजनीतिक विश्लेषक इसे सोची समझी रणनीति मानते है, जिससे उन्हें और बीजेपी दोनों को फायदा मिल सकता है. इसके दो पहलू हैं:
पहला- जानकारों का मानना है कि अगर चंपाई सोरेन सीधे बीजेपी में शामिल होते तो उनकी सियासी विश्वसनीयता पर सवाल उठता. उनके समर्थक भी उनसे दूर हो जाते, जिससे बीजेपी को कोई फायदा नहीं होता. वहीं बीजेपी के कैडर में भी नाराजगी बढ़ने की आशंका रहती.
दूसरा- अगर चंपाई सोरेन नई पार्टी बनाकर विधानसभा चुनाव में अपने उम्मीदवार उतारते हैं, तो वोट कटना तय है. जिससे बीजेपी को कुछ सीटों पर फायदा हो सकता है.
बागियों के लिए राह नहीं आसान
चंपाई सोरेन JMM से अलग होने वाले पहले नेता नहीं है. इस साल हुए लोकसभा चुनाव से ठीक पहले शिबू सोरेन की बड़ी बहू सीता सोरेन बीजेपी में शामिल हो गई थीं. लेकिन उन्हें हार का सामना करना पड़ा.
वहीं लोबिन हेंब्रम ने भी JMM से बगावत कर निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर राजमहल सीट से इस साल लोकसभा चुनाव लड़ा था, लेकिन उन्हें भी निराशा हाथ लगी.
ऐसे कई और नेता भी हैं जिन्होंने JMM छोड़कर अलग राह पर चलने का फैसला किया, लेकिन उन्हें मनचाही कामयाबी नहीं मिली. इस सूची में स्टीफन मरांडी से लेकर हेमलाल मुर्मू तक का नाम शामिल है.
जानकारों का ये भी कहना है कि बड़े नेताओं के पार्टी छोड़ने के बावजूद जेएमएम का वोट बैंक डिगता नहीं है. जेएमएम का चुनाव चिन्ह खुद में बहुत शक्तिशाली है और वोटर्स का सेंटिमेंट शिबू सोरेन के साथ ही रहता है.
हालांकि, अर्जुन मुंडा इसमें अपवाद हैं. जेएमएम छोड़कर बीजेपी में शामिल हुए मुंडा झारखंड के मुख्यमंत्री बने. अर्जुन मुंडा मोदी सरकार में कैबिनेट मंत्री भी रहे लेकिन इस बार चुनाव हार गए थे.
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