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'गांधी मुक्त' पार्टी और समावेशी नीति, कांग्रेस महाधिवेशन से 4 बड़े संदेश

Congress 85th Plenary Session: महाधिवेशन में CWC को लेकर बड़ा फैसला, लेकिन सोनिया- राहुल क्यों मौजूद नहीं थे?

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छत्तीसगढ़ के नया रायपुर में कांग्रेस का 85 वां महाधिवेशन (Congress' 85th plenary) चल रहा है. 9 राज्यों में विधानसभा और लोकसभा चुनाव से पहले ये कांग्रेस की सबसे बड़ी बैठक मानी जा रही है. यहीं से पार्टी का ब्लू प्रिंट तैयार होगा. ऐसे में सवाल उठता है कि कांग्रेस इस महाधिवेशन से क्या संदेश देना चाहती है और उसे किन चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है?

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महाधिवेशन के जरिए कांग्रेस चार स्पष्ट संदेश देते हुए दिख रही है. इससे शायद पार्टी को आगामी चुनावों में फायदा भी मिले. संदेशों को कार्यक्रम की जगह, टैग लाइन और CWC पर हुए निर्णय से समझ सकते हैं.

पहला संदेश: हिंदी भाषी क्षेत्रों में मध्य भारत में कांग्रेस का फोकस

कांग्रेस ने महाधिवेशन के लिए छत्तीसगढ़ को चुना. जाहिर है कि यहां का चुनाव करने की एक बड़ी वजह राज्य में कांग्रेस की सरकार का होना है, लेकिन सिर्फ इतनी सी बात नहीं है. पिछले चुनावों के रिकॉर्ड देखें तो हिंदी क्षेत्रों में राजस्थान के अलावा मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ ही ऐसी जगहें हैं जहां कांग्रेस ने बीजेपी को कड़ी टक्कर दी है. इस सूची में हरियाणा को भी जोड़ सकते हैं.

छत्तीसगढ़ को चुनने की दो और वजहें हैं. पहला, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं. ऐसे में महाधिवेशन के जरिए राष्ट्रीय स्तर के अलावा प्रदेश के कांग्रेस कार्यकर्ताओं में भी एक जोश भरने की कोशिश की जा रही है.

पिछले साल राजस्थान के उदयपुर में चिंतन शिविर का आयोजन किया जा चुका है. मध्य प्रदेश में कांग्रेस की सरकार गिरने के बाद से बीजेपी सत्ता पर काबिज है. ऐसे में पार्टी के लिए छत्तीसगढ़ बेहतर विकल्प बना.

दूसरा संदेश: 'गांधी इमेज इफेक्ट' फ्री पार्टी

सोनिया गांधी के फैसले हो या फिर राहुल गांधी के बयान. पिछले कुछ महीनों में गांधी परिवार ने पुरजोर तरीके से यह संदेश देने की कोशिश की कि कांग्रेस पर गांधी परिवार का प्रभाव नहीं है. पार्टी के बड़े फैसले गांधी परिवार इफेक्ट से फ्री होकर किए जाते हैं.

इसकी सबसे बड़ी झलक कांग्रेस के अध्यक्ष पद के चुनाव में दिखी. 137 साल की कांग्रेस में अध्यक्ष पद के लिए छठवीं बार चुनाव हुए. 24 साल बाद गैर गांधी कांग्रेस अध्यक्ष मिला. लेकिन 'इमेज इफेक्ट' को साफ करने में गांधी परिवार को ज्यादा सफलता नहीं मिली. इसलिए आगे भी ये कोशिश जारी दिखी. ताजा उदाहरण कांग्रेस महाधिवेशन में सीडब्ल्यूसी (CWC) को लेकर हुई बैठक में दिखी.

कांग्रेस महाधिवेशन की शुरुआत स्टीयरिंग कमेटी की बैठक से हुई. फैसला लिया गया कि कांग्रेस वर्किंग कमेटी का चुनाव नहीं किया जाएगा. सदस्यों को कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे नामित करेंगे. बैठक में खड़गे के अलावा केसी वेणुगोपाल, पवन बंसल समेत देशभर के सीनियर कांग्रेस नेता मौजूद थे, लेकिन गांधी परिवार का कोई सदस्य नहीं. ऐसा पहली बार हुआ कि राष्ट्रीय अधिवेशन शुरू हो गया और पार्टी के सर्वोच्च नेता सोनिया और राहुल गांधी शामिल नहीं हुए.

हालांकि सोनिया और राहुल रायपुर पहुंचे, लेकिन स्टीयरिंग कमेटी की बैठक होने के बाद. जयराम रमेश ने कहा, स्टीयरिंग कमेटी में लगभग 45 सदस्य मौजूद थे. कोई वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग नहीं थी. जूम पर कोई नहीं था. उपस्थित सदस्यों ने अपने विचार रखे.

जयराम रमेश भले ही कोई वजह दें, लेकिन ऐसी महत्वपूर्ण बैठक में दोनों बड़े नेताओं के शामिल न होने से एक मैसेज तो जरूर गया कि बैठक में सोनिया और राहुल की गैरमौजूदगी में इतना बड़ा फैसला लिया गया. यानी, पार्टी के बड़े फैसले गांधी परिवार के सदस्यों की मौजूदगी के बिना भी लिए जाते हैं. यानी इमेज इफेक्ट फ्री पार्टी. पार्टी महाधिवेशन में सोनिया गांधी ने भी राजनीति से रिटायरमेंट का इशारा कर दिया. उन्होंने कहा, भारत जोड़ो यात्रा के साथ ही मेरी राजनीतिक पारी अब अंतिम पड़ाव पर है.

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तीसरा संदेश: 'जोड़ने' की राजनीति का नैरेटिव सेट करना

कांग्रेस के पिछले कुछ कैंपेन की टैग लाइन या नेताओं के भाषणों पर गौर करें तो समझ में आता है कि कांग्रेस, बीजेपी को 'तोड़ने वाली पार्टी' और खुद को 'जोड़ने वाली पार्टी' का नैरेटिव सेट करने की कोशिश में है. इसकी झलक कांग्रेस के 85वें महाधिवेशन की टैग लाइन में भी मिलती है.

महाधिवेशन की लाइन है, हाथ से जोड़ो हाथ. इससे पहले कांग्रेस की चर्चित भारत जोड़ो यात्रा में भी इसी 'जोड़ने' पर ही फोकस था. यात्रा के दौरान राहुल गांधी ने अपने बयानों में बीजेपी को तोड़ने वाली, नफरत और लोगों को लड़ाने वाली पार्टी का जिक्र किया. वहीं कांग्रेस को मोहब्बत की दुकान जैसे फैक्टर के इस्तेमाल के साथ 'जोड़ने वाली पार्टी' बताते रहे.

चौथा संदेश: पार्टी पर समावेशी नीति का प्रभाव

महाधिवेशन में कांग्रेस ने अपने संविधान में संशोधन का भी फैसला लिया. करीब 35 साल बाद कांग्रेस कार्य समिति यानी सीडब्ल्यूसी के स्थायी सदस्यों की संख्या 23 से बढ़ाकर 35 की गई, जिसमें से आधे आरक्षित होंगे. एससी, एसटी, ओबीसी, अल्पसंख्यक, युवा, महिला कोटा से आएंगे. बाकी 17 को पहले की तरह अब भी नॉमिनेट किया जाएगा. अनुसूचित जाति-जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग और अल्पसंख्यक वर्ग के लिए संगठन में 50% पद आरक्षित होंगे. कांग्रेस के सदस्यता आवेदन पत्र में ट्रांसजेंडर के लिए अलग से कॉलम होगा. इन फैसलों से जाहिर होता है कि कांग्रेस की कोशिश है कि पार्टी में समावेशी नीति की छाप दिखे.

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अब सवाल उठता है कि इस 'महाधिवेशन मंथन' के जरिए कांग्रेस जिस 'अमृतपान' की उम्मीद लगाए बैठी है उसमें कितना विष है?

भारत जोड़ो यात्रा के बाद महाधिवेशन के जरिए कांग्रेस अपने बुरे दौर से बाहर आने के उपाय तो ढूंढ रही है, लेकिन पार्टी के लिए बड़ी चुनौतियों में से एक गुटबाजी है. कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव हो या फिर कांग्रेस का महाधिवेशन, हर जगह पार्टी के अंदर की फूट बाहर दिखाई देने लगती है. इसे भी समझते हैं.

छत्तीसगढ़ में सीएम भूपेश बघेल और टीएस सिंह देव की अदावत किसी से छुपी नहीं है. अब महाधिवेशन के पहले ही दिन टीएस सिंह देव (छत्तीसगढ़ के स्वास्थ्य मंत्री) सीएम पद का राग फिर से अलापते हुए दिखे. उन्होंने कहा, मेरा चेहरा भी कभी मुख्यमंत्री पद के लिए था. मुझे मौका मिलता है तो मैं भी जनता के लिए मुख्यमंत्री बनूंगा. इससे पहले भी भूपेश बघेल और टीएस सिंह देव के बीच विवाद की खबरें आती रही हैं. इस साल इस राज्य (छत्तीसगढ़) में चुनाव हैं. कांग्रेस इससे कैसे निपटेगी? उदाहरण और भी हैं.

इस साल कर्नाटक में भी विधानसभा का चुनाव है, लेकिन पूर्व सीएम सिद्धारमैया और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष डीके शिवकुमार के बीच मनमुटाव का कोई हल कांग्रेस नहीं ढूंढ पाई है.

राजस्थान भी चुनावी मोड में है, लेकिन अशोक गहलोत और सचिन पायलट के बीच सुलह की कोई कोशिश सफल होती नहीं दिख रही. कांग्रेस अध्यक्ष पद के चुनाव और उसके बाद कई मौके आए जब दोनों नेताओं ने खुलकर एक दूसरे के खिलाफ बयानबाजी की. कांग्रेस के पास महाराष्ट्र में नाना पटोले और बाला साहेब थोराट के बीच टकराव का क्या विकल्प है?

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पिछले साल उदयपुर में कांग्रेस का चिंतन शिविर भी था, जहां कई बड़े फैसले लिए गए. लेकिन जितना हल्ला हुआ, पार्टी के अंदर बदलाव की वैसी तस्वीर नहीं दिखी. अब महाधिवेशन हो रहा है, जहां पार्टी को मौजूदा चुनौतियों का हल ढूंढना ही होगा.

राहुल गांधी की भूमिका पर भी बात करनी होगी, क्योंकि भले ही खड़गे पार्टी अध्यक्ष हैं, लेकिन पार्टी का चेहरा राहुल गांधी ही हैं. गांधी परिवार के फोटो लगे पोस्टर और बैनर से पटी रायपुर की सड़कें इस बात की गवाही दे रही हैं. महाधिवेशन में कांग्रेस को अमृत पान से पहले पार्टी के अंदर की कमियों के 'विष' को दूर करना होगा.

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