वीडियो एडिटर: कनिष्क दांगी
सीपीआई (CPI) के टिकट पर लोकसभा का चुनाव लड़ चुके जेएनयू छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष कन्हैया कुमार (Kanhaiya Kumar) ने कांग्रेस का हाथ थाम लिया है. 28 सितंबर को भगत सिंह की जयंती के दिन राहुल गांधी ने पूरे जोश के साथ कन्हैया कुमार का पार्टी में स्वागत किया. इस मौके पर कन्हैया ने पीएम मोदी और बीजेपी-आरएसएस पर जमकर हमला भी बोला.
सूत्रों के मुताबिक राहुल गांधी की टीम लंबे समय से कन्हैया कुमार के संपर्क में थी लेकिन कांग्रेस जॉइन करने की तारीख खुद कन्हैया ने चुनी. दिल्ली में हुए इस कार्यक्रम में बिहार कांग्रेस के अध्यक्ष मदन मोहन झा और बिहार प्रभारी भक्त चरण दास भी मौजूद थे. लेकिन करीब आधे घंटे के अपने संबोधन और सवाल-जवाब के सिलसिले के दौरान कन्हैया ने बिहार की राजनीति पर एक शब्द भी नहीं बोला.
अब सवाल ये है कि कांग्रेस और कन्हैया की आगे की रणनीति क्या होगी और कन्हैया के कांग्रेस में शामिल होने से किसे कितना फायदा पहुंचेगा?
कांग्रेस पार्टी को कितना फायदा?
खुद कांग्रेस नेताओं का मानना है कि कन्हैया के रूप में पार्टी को हिंदी पट्टी में एक बेहतरीन वक्ता मिला है, जिसकी कमी पार्टी लंबे समय से महसूस कर रही थी.
कन्हैया युवाओं के बीच एक चर्चित चेहरा हैं और मोदी के खिलाफ एंटी बीजेपी पॉलिटिकल स्पेस में कांग्रेस उनकी पॉपुलैरिटी का लाभ उठाना चाहेगी.
देश में सरकार के खिलाफ आंदोलन खड़ा करने के लिए राहुल गांधी की नई टीम में आंदोलनों से निकले नेताओं को शामिल करने की रणनीति पर काम हो रहा है और कन्हैया इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं.
कांग्रेस फिलहाल कन्हैया कुमार की मेरिट का राष्ट्रीय स्तर पर लाभ उठाना चाहती है, ताकि आगामी लोकसभा चुनाव में पार्टी को फायदा पहुंचे.
हालांकि कन्हैया कुमार को लेकर कांग्रेस ने एक रिस्क भी लिया है. कन्हैया पर जेएनयू नारेबाजी विवाद के बाद से ही एन्टी नेशनल का टैग लगा हुआ है और बीजेपी राहुल गांधी को घेरने के लिए इसका इस्तेमाल शुरू भी कर चुकी है.
कन्हैया के इस टैग को लेकर कांग्रेस पार्टी के भीतर भी कुछ नेता असहज हैं. साथ ही उनका कम्युनिस्ट लीडर होना भी कई कांग्रेस नेताओं को रास नहीं आ रहा. मनीष तिवारी का ट्वीट इसकी गवाही दे रहा है.
कांग्रेस कन्हैया कुमार को बिहार के लिए एक बोनस के तौर पर देख रही है, और संभव है कि पार्टी उन्हें प्रदेश में कोई पद भी दे दे. हालांकि बिहार कांग्रेस के नेताओं का मानना है कि तात्कालिक तौर पर कोई चमत्कार नहीं होगा.
कन्हैया को पार्टी बदलने से क्या फायदा?
कन्हैया कुमार की राजनीतिक महत्वाकांक्षा शुरू से ही काफी बड़ी रही है. लेकिन सीपीआई के साथ रहकर उन्हें अपना राजनीतिक भविष्य नजर नहीं आ रहा था.
सीपीआई के केंद्रीय नेतृत्व द्वारा कन्हैया को अधिक तवज्जो देना बिहार में कई नेताओं को रास नहीं आ रहा था जिसकी वजह से स्थानीय स्तर पर खटास की स्थिति पैदा हो गई थी.
जानकारों की मानें तो कन्हैया सीपीआई के बुजुर्ग नेताओं की विचारधारा और रणनीति को लेकर भी बहुत हद तक अलग राय रखते थे जिससे सामंजस्य बिठाने में दिक्कतें आ रही थीं.
कन्हैया कुमार ने 2019 में बेगूसराय से लोकसभा चुनाव लड़ा और बीजेपी के गिरिराज सिंह से 4 लाख से अधिक वोटों से हार गए. कन्हैया इस हार के लिए कहीं न कहीं सीपीआई के गिरते जनाधार को बड़ी वजह मानते हैं.
पार्टी में चल रही अनबन के बीच कन्हैया के ऊपर पटना में पार्टी के कार्यालय सचिव इंदुभूषण के साथ बदसलूकी का आरोप भी लगा और इसी साल फरवरी में सीपीआई ने हैदराबाद में हुई नेशनल कॉउंसिल की बैठक में कन्हैया के खिलाफ निंदा प्रस्ताव भी पास किया.
इस निंदा प्रस्ताव के कुछ ही दिन बाद कन्हैया कुमार ने सीएम नीतीश कुमार के करीबी मंत्री अशोक चौधरी से बंद कमरे में मुलाकात की और ये अटकलें लगाई जाने लगीं कि कन्हैया जेडीयू के साथ जा सकते हैं.
जानकार बताते हैं कि कन्हैया बीते कई महीनों से अपने लिए अलग रास्ता तलाश रहे थे और आखिरकार ये तलाश कांग्रेस पार्टी के दफ्तर पर जाकर खत्म हुई.
कांग्रेस-आरजेडी के रिश्ते पर क्या असर पड़ेगा?
कांग्रेस नेताओं का दावा है कि कन्हैया के आने से आरजेडी से उनके संबंधों पर कोई असर नहीं पड़ेगा लेकिन बिहार की राजनीति की समझ रखने वालों को पता है कि अब कांग्रेस की बारगेनिंग पॉवर बढ़ गई है.
जगन्नाथ मिश्रा के बाद 30 सालों में आज तक कांग्रेस बिहार में कोई चेहरा खड़ा नहीं कर पाई और पिछले कुछ सालों से तो वो लालू यादव की पिछलग्गू बनकर रह गई है. कन्हैया कुमार के रूप में उन्हें एक युवा चेहरा मिल चुका है जिसके जरिए आने वाले सालों में वो पार्टी को बिहार में फिर से खड़ा करने की कोशिश करेगी. लेकिन ऐसा करने से कांग्रेस और आरजेडी के बीच संबंधों पर भी असर पड़ सकता है.
राजनीतिक पंडितों का मानना है कि तेजस्वी यादव के राजनीतिक भविष्य की सुरक्षा के लिए लालू यादव महागठबंधन में किसी भी दूसरे युवा नेता को नहीं बढ़ने देना चाहते. यही वजह थी कि 2019 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने सीपीआई के साथ गठबंधन नहीं किया और बेगूसराय की सीट पर कन्हैया कुमार और गिरिराज सिंह के खिलाफ अपना उम्मीदवार उतारा.
हालांकि विधानसभा चुनाव में लालू यादव ने सभी लेफ्ट दलों को साथ लाया और कन्हैया ने भी महागठबंधन के प्रत्याशियों के लिए प्रचार किया. लेकिन कन्हैया और तेजस्वी कभी भी एक साथ एक मंच पर नजर नहीं आए. आज तक कभी भी कन्हैया कुमार ने तेजस्वी यादव को सार्वजनिक तौर पर नेता नहीं माना है, और न ही तेजस्वी ने कभी खुलकर कन्हैया का समर्थन किया है.
लेकिन अब कन्हैया को महागठबंधन का चेहरा होने के नाते तेजस्वी को ही नेता मानना पड़ेगा. तो सवाल ये कि क्या कन्हैया के लिए ये इतना आसान हो पाएगा? सूत्रों का कहना है कि कन्हैया को पार्टी में शामिल करने के फैसले को लेकर कांग्रेस ने आरजेडी से कोई भी राय मशविरा नहीं किया और आरजेडी कांग्रेस के फैसले से खुश नहीं है.
यही वजह है कि जब आरजेडी के मुख्य प्रवक्ता और विधायक भाई वीरेंद्र से कन्हैया को लेकर सवाल पूछा गया तो उन्होंने कहा-
"कौन कन्हैया कुमार? मैं किसी कन्हैया कुमार को नहीं जानता. वह कौन हैं और कहां जा रहे हैं, मुझे इसके बारे में कोई जानकारी नहीं है. किस कन्हैया कुमार की चर्चा हो रही है मुझे नहीं पता."विधायक भाई वीरेंद्र
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