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मायावती का सियासी दांव, एक तीर से लगाए कई निशाने

2019 चुनाव की तैयारियों का हवाला देकर बहनजी धीमे-धीमे 2007 के फॉर्मूले पर लौटने की कोशिश कर रही हैं.

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बीएसपी सुप्रीमो मायावती ने कहा है कि संसदीय क्षेत्र कैराना और नूरपुर विधानसभा के उपचुनाव में बीएसपी पिछले उपचुनाव जैसी सक्रिय भूमिका नहीं निभाएगी. एक दिन पहले उन्होंने कहा था कि राज्यसभा चुनाव में उनके उम्मीदवार भीमराव अंबेडकर की हार भले ही हो गई हो, लेकिन बीजेपी किसी भ्रम में नहीं रहे, बीएसपी के कार्यकर्ता 2019 में एसपी के साथ मिलकर बीजेपी को हराएंगे.

लेकिन चंद घंटों में रुख में आए बदलाव को लेकर अटकलों का बाजार गर्म हो गया है. एसपी को इसमें भी समर्थन दिख रहा है और बीजेपी को विरोधी खेमे में दरार. सवाल है कि आखिर बहनजी के ताजा बयान को किस तरह देखा जाए?

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गेस्ट हाउस कांड को भूलकर बहनजी ने लोकसभा उपचुनाव में सपा को सपोर्ट किया, तो यह बड़ी बात थी. इसके पीछे सिर्फ एक ही मंशा थी कि BSP-SP गठबंधन की ताकत का आकलन हो जाए, भविष्य की दिशा उसी हिसाब से तय होगी.

गोरखपुर और फूलपुर के नतीजों ने यह जता दिया कि अगर बीएसपी और एसपी साथ हुए, तो प्रदेश में बीजेपी के विस्तार को रोका जा सकता है और अपने अस्तित्व को बचाया जा सकता है. साफ है कि गोरखपुर और फूलपुर के नतीजों से बीएसपी और एसपी में नया उत्साह पैदा हुआ, तो बीजेपी में भय.

इस उपचुनाव की अगली कड़ी में राज्यसभा चुनाव हुए. बीएसपी के उम्मीदवार को कांग्रेस, एसपी और आरएलडी, सभी ने जीताने का भरोसा दिया था. लेकिन वो मिलकर भी ऐसा नहीं कर सके. आरएलडी का वोट व्यर्थ चला गया. मायावती को झटका तो लगा, लेकिन उन्होंने यह जरूर कहा कि बीजेपी किसी भ्रम में नहीं रहे, 2019 में बीजेपी को हराने का फॉर्मूला हाथ लग गया है और उस फॉर्मूले पर अमल होगा.

फिर अचानक ऐसा क्या हुआ कि मायावती के रुख में बदलाव आ गया?

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दरअसल, यह बहनजी की सोची-समझी रणनीति का हिस्सा है. कैराना और नूरपुर- ये दोनों सीटें बीजेपी के पास थीं. कैराना से हुकुम सिंह सांसद थे, लेकिन सांस की बीमारी की वजह से उनका निधन हो गया. नूरपुर से बीजेपी के विधायक थे लोकेंद्र सिंह. हाल ही में एक सड़क हादसे में लोकेंद्र सिंह की मृत्यु हो गई. चूंकि दोनों जगह जन प्रतिनिधियों की असमय मृत्यु की वजह से उप चुनाव हो रहे हैं, इसलिए स्वभाविक तौर पर एक सहानुभूति बीजेपी के साथ रहेगी.

इसके अलावा 2014 के लोकसभा चुनाव में कैराना सीट पर ध्रुवीकरण इतना जबरदस्त था कि हुकुम सिंह को 50 फीसदी से अधिक मत मिले थे. इसलिए इस उप चुनाव से दूर रहने का फैसला करके मायावती ने एक साथ कई हित साधे हैं.

2019 चुनाव की तैयारियों का हवाला देकर बहनजी धीमे-धीमे 2007 के फॉर्मूले पर लौटने की कोशिश कर रही हैं.
मायावती ने बीजेपी के खिलाफ नई रणनीतियों की आजमाइश शुरू कर दी है
(फोटोः IANS)

एक तीर कई निशाने

  • पहला हित तो यही कि पिछले उपचुनाव में जो फॉर्मूला ढूंढा गया है और जिस फॉर्मूले से विरोधी खेमे में भय उत्पन्न हुआ है, मायावती उस भय को बरकरार रखना चाहती हैं. वह नहीं चाहती कि कैराना और नूरपुर की भुरभुरी जमीन पर उस फॉर्मूले की ताकत नष्ट हो जाए और बीजेपी भयमुक्त हो. उन्होंने इस चुनाव से खुद को दूर रख कर यह एहतियाती कदम उठाया है.
  • दूसरा यह कि वह अखिलेश यादव और अजित सिंह, दोनों को यह संदेश देना चाहती हैं कि उनके समर्थन को हल्के में नहीं लें. अगर भविष्य में कोई दमदार गठबंधन बनाना है, तो जो त्याग वह कर रही हैं, वैसा ही त्याग करने के लिए दोनों को तैयार रहना होगा. ऐसा नहीं हो सकता है कि बीएसपी के कार्यकर्ता सहयोगियों के उम्मीदवारों को जीताने में जी-जान लगा दें, लेकिन जब उस सहयोग का मोल चुकाना हो, तो दूसरे अपना-अपना हित देखने लगें.
  • वह बीजेपी विरोधी मतदाताओं को यह संदेश देना चाहती हैं कि वह एक ताकतवर और संगठित विपक्ष के लिए कोई भी कीमत चुकाने को तैयार हैं, बशर्ते विपक्ष के सभी नेता अपना-अपना अहंकार त्याग कर मजबूत धड़ा बनाने को तैयार हों.

इसके साथ ही 2019 चुनाव की तैयारियों का हवाला देकर मायावती धीमे-धीमे 2007 के फॉर्मूले पर लौटने की कोशिश कर रही हैं.

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आखिर क्या है 2007 का फॉर्मूला?

हाल के दिनों में मायावती एक ही लाइन दोहरा रही हैं कि बीजेपी सरकार में दलितों, पिछड़ों और सवर्ण जाति के गरीबों का बुरा हाल है. इस बयान के बड़े मायने हैं. मायावती ने 2014 के लोकसभा और 2017 के विधानसभा चुनाव के बाद यह समझ लिया है कि मुसलमान उसी के साथ जाएगा, जो बीजेपी को हराने की स्थिति में होगा. बीजेपी को हराने के लिए उन्हें उस सोशल इंजीनियरिंग पर लौटना होगा, जिसके बल पर 2007 में उन्होंने 206 सीटें हासिल की थीं.

बता दें कि 2007 के विधानसभा चुनाव में ब्राह्मणों, दलितों और गैर यादव पिछड़ों को साधकर बीएसपी ने 206 सीटों पर कब्जा किया था. एक बार फिर वो गैर-यादव पिछड़ों और ब्राह्मणों को अपने साथ जोड़ने की कोशिश कर रही हैं. उन्हें पता है कि वो खुद मजबूत रहेंगी, तभी सहयोगी दलों के साथ करार उनकी अपनी शर्तों पर होगा.

आंकड़ों में BJP पर विपक्ष भारी

आंकड़ों के लिहाज से एसपी और बीएसपी, दोनों दलों के मत प्रतिशत जोड़ने पर वह 50 फीसदी से अधिक हो जाता है, लेकिन मत विभाजन की वजह से 2014 और 2017 दोनों में बीजेपी को बंपर जीत मिली. 2014 लोकसभा में बीजेपी को 42.3 प्रतिशत, एसपी को 22.2 प्रतिशत, बीएसपी को 19.6 प्रतिशत और कांग्रेस को 7.5 प्रतिशत मत मिले थे.

एसपी, बीएसपी और कांग्रेस के मतों का कुल योग 49.30 प्रतिशत है. 2017 विधानसभा चुनाव में बीजेपी को 39.67 प्रतिशत, एसपी को 21.82 प्रतिशत, बीएसपी को 22.23 प्रतिशत, कांग्रेस को 6.25 प्रतिशत मिले थे. इन तीनों दलों के मतों को जोड़ दिया जाए, तो वह 50 प्रतिशत से ज्यादा हो जाता है.

जातियों के लिहाज पिछड़ों, दलितों और मुस्लिमों का धड़ा काफी मजबूत है. बीजेपी के नेता भी यह बखूबी जानते हैं कि अगर मायवाती और अखिलेश एकजुट हुए और कांग्रेस ने साथ दिया, तो उन्हें हराना होगा. इसलिए बीजेपी वाले बार-बार गेस्ट हाउस कांड की याद दिलाकर दरार डालने की कोशिश कर रहे हैं.

ये भी पढ़ें- योगी के गढ़ में हार के बाद अब BJP के पास क्या काट बची है?

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