गोरखपुर में बीजेपी की हार से पार्टी का प्लान-बी खतरे में पड़ गया है. इस चुनाव से एक मूर्ति दरक गई है, जिसका बीजेपी संकटकाल में इस्तेमाल कर सकती थी.
उपचुनाव आते-जाते रहते हैं. उपचुनावों से अगर सरकार न बदल रही हो, तो इन्हें कायदे से स्थानीय समाचार ही होना चाहिए. गोरखपुर और फूलपुर का उपचुनाव भी लोकसभा की शक्ल बदलने वाला चुनाव नहीं था. इन चुनावों से सांसद चुने गए, लेकिन उनका केंद्र की सत्ता संरचना पर कोई असर नहीं पड़ा. सरकार जैसी थी और जिसकी थी, वैसी ही रही.
लेकिन गोरखपुर का उपचुनाव कोई साधारण उपचुनाव नहीं था. यह देश की राजनीति की शक्ल बदलने वाला चुनाव है. गोरखपुर सीट के लिए उपचुनाव इसलिए हुए, क्योंकि इस सीट के 2014 के विजेता योगी आदित्यनाथ उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बन गए और मुख्यमंत्री बने रहने के लिए उन्हें विधानसभा या विधानपरिषद का सदस्य बनना होगा. इसलिए उन्होंने लोकसभा से इस्तीफा दे दिया.
गोरखपुर के नतीजों ने बीजेपी को भी चौंकाया है. बीजेपी गोरखपुर का अपना किला 21 हजार से ज्यादा वोटों से हार गई. यही सीट बीजेपी ने 2014 में तीन लाख से ज्यादा वोटों से जीती थी.
गोरखपुर में बीजेपी की हार का महत्व इसलिए नहीं है कि उसने एक लोकसभा सीट गंवा दी. बड़ी बात यह है कि उसने इस सीट के साथ अपना एक बड़ा दांव कमजोर कर लिया है. यह राष्ट्रीय दांव है. यह महत्वपूर्ण है कि उसने एक सीट नहीं, योगी आदित्यनाथ की सीट गंवाई है.
बीजेपी के लिए योगी आदित्यनाथ कोई साधारण नेता नहीं है. बीजेपी ने बहुत सोच-समझकर उन्हें उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाया है, जहां से लोकसभा की 543 में से 80 सीटें आती हैं और जहां 2014 में एनडीए को 73 सीटें मिली थीं.
बीजेपी का हाथ अभी तक दक्षिण भारत और पूर्वी भारत में तंग है. उसे जीत के लिए उत्तर भारत और काफी हद तक यूपी पर निर्भर रहना है. समझा जा सकता है कि उत्तर प्रदेश का बीजेपी की राजनीति के लिए कितना महत्व है.
बीजेपी ने योगी को क्यों बनाया मुख्यमंत्री?
बीजेपी ने योगी आदित्यनाथ को उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री इसलिए बनाया है क्योंकि वे इस समय हिंदुत्व के सबसे प्रखर और उग्र प्रतीक हैं. वे बीजेपी के ऐसे नेता हैं, जिनके बारे में माना जाता है कि समस्त हिंदू जातियों में उनकी लोकप्रियता है. वे बीजेपी के लिए सभी जातियों के वोट ला सकते हैं.
हिंदुत्व की राजनीति को जिस बात से सबसे ज्यादा खतरा रहा है, वह है हिंदुओं का जाति विभाजन. भारत में राजनीतिक गोलबंदी की बुनियादी इकाई अभी भी जाति और धर्म है. इसमें कोई भी एक पहचान दूसरी पहचान पर हावी हो सकती है.
जब कभी धार्मिक मुद्दों का तापमान कम रहता है, जातीय गोलबंदियां हावी हो जाती हैं. जाति का सवाल भारतीय राजनीति में लगातार ज्यादा महत्वपूर्ण होता जा रहा है, क्योंकि जहां धर्म मुख्य रूप से भावनात्मक मुद्दा है, वहीं जाति का सवाल भावनात्मक होने के साथ ही आर्थिक भी है. खासकर आरक्षण की वजह से जाति की गोलबंदियां अब ज्यादा मजबूत हो रही हैं. यह किसी भी धर्म आधारित राजनीति के लिए चिंता की बात है.
इसलिए बीजेपी हमेशा चाहती है कि चुनाव धार्मिक मुद्दों पर लड़े जाएं. बेशक सतह पर वह विकास जैसे मुद्दों को रखती है, लेकिन अंतर्धारा में धार्मिक मुद्दे काम करते रहते हैं. मिसाल के तौर पर वह किसी राज्य में एक भी मुसलमान कैंडिडेट नहीं देकर या धार्मिक ध्रुवीकरण की छवि वाले नेता को आगे रखकर यही काम करती है. चुनाव से पहले बीजेपी ने धार्मिक मुद्दों को आगे करने की कई बार कोशिश की है. बिहार चुनाव में उसने गाय का मुद्दा उठाया, तो असम में मुसलमान प्रवासियों का.
बीजेपी का चुनाव लड़ने का पैटर्न यह है कि वह अपने कोर वोटर को हिंदुत्व समझाती है और विकास के नाम पर बाकी को जोड़ने की कोशिश करती है. इस क्रम में उसे एक के बाद एक, उग्र हिंदुत्व की बात करने या उस दिशा में काम करने वाले नेताओं की जरूरत होती है.
इसलिए आप पाएंगे कि अटल बिहारी वाजपेयी को हिंदुत्व के उग्र चेहरे लालकृष्ण आडवाणी ने रिप्लेस किया. लेकिन जब लालकृष्ण आडवाणी की चमक हिंदुत्व के नाम पर विराट एकता स्थापित करने में विफल रही, तो उनसे भी उग्र हिंदुत्ववादी चेहरे नरेंद्र मोदी को पेश किया गया. इस कड़ी में जो अगला नाम स्वाभाविक रूप से सामने आता है, वह योगी आदित्यनाथ का है.
लेकिन आदित्यनाथ के आगे जाकर यह कड़ी टूटती नजर आती है. बीजेपी के पास योगी आदित्यनाथ की तुलना का कोई उग्र हिंदू नेता नहीं है. इसलिए बीजेपी की रणनीति अपने इस तुरुप के पत्ते को बचाकर रखने की होगी. लेकिन गोरखपुर के उपचुनाव ने इस रणनीति में सुराख कर दिया है.
इन उपचुनावों में बीएसपी हमेशा की तरह मैदान से बाहर थी. गोरखपुर और फूलपुर, दोनों सीटों पर समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के उम्मीदवार बीजेपी से उसकी सीट छीनने की कोशिश कर रहे थे. अप्रत्याशित रूप से बीएसपी ने इन उपचुनावों में सपा को समर्थन देने की घोषणा कर दी. इस एक घोषणा ने बीजेपी के पक्ष में एकतरफा माने जा रहे उपचुनाव की तस्वीर बदल दी और बीजेपी गोरखपुर और फूलपुर, दोनों हार गई.
बीजेपी को रोकने का एक फॉर्मूला!
इस तरह बीजेपी को रोकने का एक फॉर्मूला विपक्ष के हाथ लग गया है. पहले भी 1993 में सपा और बसपा ने मिलकर बीजेपी की विजय यात्रा उत्तर प्रदेश में रोक दी थी, जबकि इस चुनाव से ठीक पहले बाबरी मस्जिद गिरा दी गई थी और उसके बाद देश भर में सांप्रदायिक हिंसा भड़क उठी थी. आम तौर पर माना जा रहा था कि इस माहौल में बीजेपी उत्तर प्रदेश में आसानी से दोबार सरकार बना लेगी. लेकिन सपा और बसपा के मिलने से जो सामाजिक समीकरण बना, उसने बीजेपी के किए-धरे पर पानी फेर दिया.
इस बार के यूपी उपचुनाव में फिर से वही समीकरण दोहराया गया और उसने न सिर्फ गोरखपुर और फूलपुर में बीजेपी को रोक दिया, बल्कि बीजेपी के सबसे चमकते सितारे और हिंदुत्व की सबसे उग्र प्रतिमा यानी योगी आदित्यनाथ को भी खंडित कर दिया है.
योगी आदित्यनाथ की अपराजेयता अब संदिग्ध है. अब यह नहीं कहा जा सकता कि योगी आदित्यनाथ सामने हों, तो सारे हिंदू सिर्फ हिंदू वोटर बन जाते हैं और जाति के सवाल विश्राम करने लगते हैं.
योगी आदित्यनाथ की सीट पर सपा और बसपा का तालमेल बीजेपी के लिए अभेद किला बन गया. इस तालमेल की बीजेपी के पास क्या काट है? सवाल यह भी उठता है कि क्या बीजेपी अपनी रणनीति बदलेगी और किसी और नेता को उग्र हिंदुत्व का पोस्टर ब्वॉय बनाकर पेश करेगी? क्या योगी आदित्यनाथ अपने उग्र हिंदुत्व वाली छवि को फिर से चमकाने के लिए नया कुछ करेंगे? या फिर बीजेपी नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में ही लंबी पारी खेलना चाहती है.
2019 के चुनावों के नतीजे इन बातों से और इन जैसे सवालों से भी तय होंगे.
(दिलीप मंडल सीनियर जर्नलिस्ट हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है. आर्टिकल की कुछ सूचनाएं लेखक के अपने ब्लॉग पर छपी हैं.)
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