उत्तर प्रदेश चुनाव के रिजल्ट (Uttar Pradesh Election 2022) के बाद बीएसपी प्रमुख मायावती ने तीन पेज की विज्ञप्ति में उन कारणों को रेखांकित किया, जिन्हें वह अपनी पार्टी की हार के लिए जिम्मेदार मानती हैं. उन्होने कहा कि प्रेस ने बीएसपी के बारे में भ्रम फैलाया. मुसलमान और बीजेपी विरोधी हिन्दू इस भ्रम का शिकार हुए और उन्होंने एसपी को वोट कर दिया. मुसलमानों के रुख को देखते हुए बीएसपी के बाकी समर्थकों ने भी अपना रुख बदल लिया. ऐसे में लगता है कि बीएसपी प्रमुख ने हार को स्वीकारने की बजाय उन कारणों पर पर्दा डालने की कोशिश की है, जो असल में उनके पराभाव के लिए जिम्मेदार हैं.
चुनावी ढलान पर बीएसपी की राजनीति
बीएसपी के चुनाव संबंधी आंकड़े इस बात के गवाह हैं कि 2007 में उत्तर प्रदेश में पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने के बाद से ही बीएसपी की राजनीति ढलान पर है. वह लगभग हर चुनाव में अपना जन समर्थन खो रही है.
नीचे दिये गए आंकड़ें बताते हैं कि अपनी स्थापना के शुरुआती दिनों में पार्टी 10% से कम वोट लेकर 12 या 13 सीटें जीतती रही है. 1993 में बीएसपी ने केवल 11.12% मतों के रहते 67 विधानसभा सीटों पर जीत हासिल की थी. जबकि, 2022 में 12.88% मतों के बावजूद पार्टी केवल एक ही विधानसभा में सीट जीत पाई.
चुनाव वर्ष | 1989 | 1991 | 1993 | 1996 | 2002 | 2007 | 2012 | 2017 | 2022 |
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वोट प्रतिशत | 9.41 | 9.44 | 11.12 | 19.67 | 23.06 | 30.46 | 25.91 | 22.23 | 12.88 |
विधायक जीते | 13 | 12 | 67 | 67 | 98 | 206 | 80 | 19 | 1 |
बीएसपी द्वारा यूपी में लड़ी गई 403 सीटों में से 290 सीटों पर उसके उम्मीदवारों की जमानत नहीं बची. जबकि, 2017 में उसके केवल 81 उम्मीदवारों की ही जमानत जब्त हुई थी. वह कौन से कारण हैं जिनकी वजह से 1996 में 19.67 फीसद वोट पर 67 सीटें पाने वाली बीएसपी को वर्ष 2017 के चुनाव में 22.23 फीसद वोट पाकर मात्र 19 सीटों पर संतोष करना पड़ा? क्या वह उन कारणों को छिपाना चाहती हैं, जिनकी वजह से 2022 में उसके वोट घट कर मात्र 12.9 फीसदी रह गए हैं?
अपनों को छोड़ दूसरों को ध्यावे, अपने मिले न दूसरों का पावे
देश में मीडिया तंत्र के आकलन को ध्वस्त करते हुए वर्ष 2007 में बीएसपी ने उत्तर प्रदेश में पूर्ण बहुमत प्राप्त किया था. इससे बीएसपी को उत्तर प्रदेश में एक अप्रतिम मौका मिला था. अपनी झेंप छिपाने के लिए मीडिया ने द्वारा गढ़े गए दलित-ब्राह्मण गठजोड़ की जीत का नेरेटिव मानते हुए बीएसपी ने 2007 से ही अपनी रणनीति में मौलिक बदलाव किए. वह सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक तौर पर दबे कुचले लोगों के इंद्रधनुषी सामाजिक गठजोड़ की कीमत पर “सर्व समाज” को संगठित करने के रास्ते पर चल पड़ी.
बामसेफ, दलित शोषित समाज संघर्ष समिति (डीएस-4) के रास्ते बहुजन समाज के निर्माण के लिए प्रतिबद्द बीएसपी के दूसरे पंक्ति के नेताओं ने पार्टी के इस दृष्टिगत तथा वैचारिक विचलन का विरोध किया. इनमें से अधिकांश वही नेता थे, जिन्हें कांशीरम ने अलग-अलग जातियों के प्रतिनिधि नेताओं के तौर पर तैयार किया था.
नई दृष्टि कि नई रणनीति के तहत बीएसपी प्रमुख ने विरोध करने वाले नेताओं को या तो पार्टी से निकाल दिया या उन्हें पार्टी छोड़ने को मजबूर कर दिया. कुर्मी, कुशवाह आदि गैर-यादव पिछड़ी जातियां, पासी जैसी यूपी में दलितों को दूसरी बड़ी जाति तथा मुस्लिम नेताओं को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाने का जो सिलसिला एक बार शुरू हुआ, तो वह 2022 के चुनाव से पहले भी नहीं रुका.
उत्तर प्रदेश में सत्ता खोने के बाद के चुनावों के परिणाम इस बात के गवाह हैं कि सर्वसमाज कि दृष्टि की बसपा की रणनीति ने उसका बहुजन गठजोड़ छिन्न-भिन्न कर दिया है. 2022 में बीएसपी को मिले वोटों का रुझान इसी बात की पुष्टि करता है. जाटवों सहित विभिन्न सामाजिक वर्गों में उनके जनाधार में एक चौथाई से लेकर 80 फीसद तक की कमी आई है. 2022 में अपने इस जनाधार को मजबूत करने की बजाय उनका फोकस उन जतियों पर ही रहा, जो पारंपरिक तौर पर उनके साथ केवल सत्ता की नजदीकियों के वजह से आईं थीं.
बसपा को मिले वोटों का अनुमानित प्रतिशत | |||||
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जाति समूह | 2007 | 2012 | 2017 | 2022 | 2017 की तुलना में % परिवर्तन |
मुस्लिम | 17 | 20 | 19 | 6 | (कमी) 68.42 |
जाटव | 86 | 62 | 87 | 65 | (कमी) 25.29 |
अन्य अनुसूचित जातियाँ | 58 | 45 | 44 | 27 | (कमी) 38.64 |
यादव | 11 | 9 | 2 | 2 | कोई परिवर्तन नहीं |
कुर्मी | 16 | 19 | 7 | 3 | (कमी) 57.11 |
केवट, मल्लाह, निषाद | 4 | ज्ञात नहीं | 15 | 7 | (कमी) 53.33 |
मौर्य, कुशवाह, सैनी | 4 | ज्ञात नहीं | 22 | 4 | (कमी) 81.82 |
अन्य पिछड़ी जातियाँ | 16 | 19 | 11 | 4 | (कमी) 63.64 |
जाट | 7 | 10 | 3 | 12 | (अधिक) 300.00 |
ब्राह्मण | 16 | 19 | 2 | 1 | (कमी) 50.00 |
क्षत्रिय | 12 | 14 | 9 | 2 | (कमी) 77.78 |
वैश्य | 14 | 15 | 3 | 1 | (कमी) 66.67 |
अन्य सवर्ण जातियाँ | 10 | 16 | 5 | 1 | (कमी) 80.00 |
हार का ठीकरा मुस्लिम पर ही क्यों?
हिन्दुत्व के अप्रतिम उभार के दौर में, जब देश का अल्पसंख्यक अपने भविष्य और सुरक्षा के प्रति सशंकित लग रहे हैं और वह बीएसपी से उनके पक्ष में खड़े होने की उम्मीद में हैं. बीएसपी प्रमुख ने अपनी विज्ञप्ति में भारतीय संविधान के निर्माता का कई बार जिक्र किया. लेकिन उन्होने अल्पसंख्यकों के लिए संविधान में दी गई गारंटियों को सुनिश्चित करने की प्रतिबद्धता दोहराने की बजाय अल्पसंख्यकों को ही अपनी हार का जिम्मेदार ठहरा दिया.
काश! वह अपना आत्मवलोकन कर पातीं? यूपी में चुनाव प्रचार के दौरान मायावती ने मुख्य तौर पर समाजवादी पार्टी पर ही निशाना साधा. ऐसा लगा कि उनका चुनावी मुकाबला बीजेपी से न होकर समाजवादी पार्टी से हैं. इसकी वजह से मुसलमानों को लगा कि वह बीजेपी से टक्कर लेने की बजाय बीजेपी की सहायता कर रहीं हैं और बीजेपी का असली मुकाबला समाजवादी पार्टी कर रही है. वास्तव में बसपा प्रमुख का यह रुख चुनाव में हार के वास्तविक कारणो पर पर्देदारी ही अधिक नजर आता है.
यह भी काफी आश्चर्यजनक है कि जिन कांशीराम साहब ने इंद्र्धानुषी बहुजन समाज के लिए राजनीतक दल खड़ा किया, वह बीएसपी प्रमुख की रणनीति के चलते तितर-बितर हो गया है. उसकी राजनीतिक स्वायत्ता कमजोर पड़ रही है. संघर्ष का रास्ता त्याग दिया गया है. संघर्ष से सत्ता छीनने वाला समाज आखिर वोट देने के लिए कब तक बहुजन समाज बीएसपी के पीछे लामबंद रहता? अगर बीएसपी प्रमुख के अनुसार उनकी हार के लिए मनुवादी और मीडिया जिम्मेदार हैं, तो उन्हें याद करना चाहिए कि इन्हीं ताकतों से लड़ने के लिए तो लोगों ने उन्हें सिर-माथे पर बिठाया था. तो, आज वह क्यों डर गयी हैं?
(लेखक नेशनल कंफेडरेशन ऑफ दलित एंड आदिवासी ऑर्गेनाइजेशंस (नैकडोर) के अध्यक्ष हैं.)
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