बिहार में एनडीए (NDA) की सहयोगी विकासशील इंसान पार्टी (VIP) को तगड़ा झटका लगा है. उसके तीन विधायक भारतीय जनता पार्टी में शामिल हो गए. अब बिहार में 77 विधायकों के साथ बीजेपी सबसे बड़ी पार्टी बन गई है, वहीं वीआईपी (Vikassheel Insaan Party) के पास एक भी विधायक नहीं बचा. बिहार चुनाव के बाद वीआईपी चीफ मुकेश सहनी (Mukesh Sahni) को मंत्री पद दिया गया, लेकिन अब अपने ही सहयोगी की वजह से उनकी पार्टी का अस्तित्व संकट में दिख रहा है. वीआईपी के साथ ऐसा क्यों हुआ? इस सवाल के जवाब में बीजेपी का एक पैटर्न दिखता है. वह हर राज्य में अपने सहयोगियों के बीच हमेशा 'बिग ब्रदर' बने रहना चाहती है.
बिहार में बीजेपी को क्यों खटकने लगे मुकेश सहनी?
इसकी तीन वजहें हैं. पहला, यूपी विधानसभा चुनाव में मुकेश सहनी ने बीजेपी के खिलाफ 53 सीटों पर उम्मीदवार उतार दिए. अखबारों में बीजेपी के खिलाफ विज्ञापन भी दिया. हालांकि कोई सीट जीत नहीं पाए.
दूसरी गलती की, बिहार में एमएलसी चुनाव में भी सहनी ने 24 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतार दिए, जिससे बीजेपी काफी नाराज हुई. तीसरी और सबसे बड़ी गलती, कि 12 अप्रैल को बोचहा में उपचुनाव है. वीआईपी उम्मीदवार मुसाफिर पासवान के निधन के बाद सीट खाली हुई. अब इस सीट पर वीआईपी और बीजेपी दोनों के उम्मीदवार हैं. जबकि बिहार में दोनों सहयोगी पार्टियां हैं.
यानी गठबंधन में रहते हुए मुकेश सहनी ने 'बिग ब्रदर' बनने की कोशिश की. लगातार बीजेपी को नाराज करते रहे. अब नतीजा सबके सामने है. ऐसी स्थिति पैदा हुई कि मुकेश सहनी की पार्टी ही खत्म होने की कगार पर पहुंच गई.
बिहार में 'बड़ा भाई' बनने को लेकर नीतीश से भी विवाद?
बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान बड़े भाई की भूमिका को लेकर नीतीश कुमार के साथ भी बीजेपी का विवाद हुआ. सीटों के बंटवारे को लेकर तकरार सामने आई. रिजल्ट आए तो बीजेपी को 74 और आरजेडी को 75 सीटें मिली. नीतीश सीएम बने लेकिन 'बड़े भाई' बनने की लड़ाई खत्म नहीं हुई. ताजा विवाद नीतीश कुमार और बीजेपी नेता और विधानसभा अध्यक्ष विजय सिन्हा के बीच सदन के अंदर दिखा.
सदन के अंदर जिस तरह से नीतीश कुमार विजय सिन्हा पर भड़के, उसे देखकर कयास लगने लगे कि गठबंधन में सबकुछ ठीक नहीं चल रहा. नोकझोंक ऐसी हुई थी कि स्पीकर विजय कुमार अगले दिन सदन ही नहीं आए. हालांकि बाद के दिनों में विवाद खत्म होता दिखा. लेकिन ये पहली बार नहीं था. इससे पहले भी नीतीश कुमार बीजेपी और उसके नेताओं को लेकर ऐसा व्यवहार करते दिख चुके हैं.
बीजेपी का 'बिग ब्रदर' बनने के पैटर्न और अपने ही सहयोगियों को झटका देने की रणनीति को समझने को लिए कुछ पीछे चलते हैं.
बीजेपी ने बाबूलाल मरांडी की हालत भी मुकेश सहनी जैसी कर दी थी
बाबूलाल मरांडी 2000 में झारखंड के पहले मुख्यमंत्री थे. तब एनडीए की सरकार थी, जेडीयू का समर्थन था, लेकिन 2003 में दल के आंतरिक विरोध के कारण उन्हें मुख्यमंत्री पद छोड़ना पड़ा. 2004 में बीजेपी के टिकट पर कोडरमा से लोकसभा का चुनाव लड़े और झारखंड से इकलौते सांसद बने. लेकिन स्थानीय मतभेद के चलते 2005 में पार्टी छोड़नी पड़ी. फिर 2006 में झारखंड विकास मोर्चा की स्थापना की. तब बीजेपी के 5 विधायक भी झारखंड विकास मोर्चा में शामिल हुए. लेकिन बीजेपी इस घाव को कहां भूलने वाली थी.
14 साल बाद झारखंड विकास मोर्चा की ऐसी स्थिति हुई कि बाबू लाल मरांडी ने अपनी पार्टी का बीजेपी में विलय करने का फैसला करना पड़ा. 9 फरवरी 2020 को दिल्ली में जेपी नड्डा, ओम प्रकाश माथुर की बैठक हुई और पार्टी विलय को लेकर सहमति बनी, लेकिन बाबू लाल मरांडी की ऐसी हालत कैसे हुई?
दरअसल, साल 2014 में झारखंड विकास मोर्चा को 8 सीटें मिली थीं, लेकिन चुनाव जीतने के कुछ दिन बाद ही 8 में से 6 विधायक बीजेपी में शामिल हो गए. 2019 में सीटों का आंकड़ा 8 से खिसककर 3 पर आ गया. इसमें से दो विधायक पार्टी से निकाल दिए गए. तीसरे बाबू लाल मरांडी खुद थे. ऐसे में पार्टी के सामने वैसा ही संकट आ गया, जैसा आज वीआईपी के साथ है.
महाराष्ट्र में शिवसेना और बीजेपी की दोस्ती क्यों टूटी?
महाराष्ट्र में बीजेपी और शिवसेना का लंबा साथ रहा है. 1989 में जब शिवसेना के सर्वेसर्वा बाल ठाकरे थे, तब प्रमोद महाजन ने इस दोस्ती की नींव रखी थी. 2009 तक शिवसेना महाराष्ट्र में बीजेपी के बिग ब्रदर की भूमिका में रही, लेकिन इसके बाद स्थिति बदलने लगी. 2012 में बाल ठाकरे के निधन और 2014 में नरेंद्र मोदी की लहर की वजह से महाराष्ट्र में भी बिग ब्रदर की लड़ाई तेज हो गई. बीजेपी खुद को बड़ा भाई साबित करने में लगी रही, जिसकी वजह से संबंधों में कड़वाहट बढ़ती गई और आखिरकार दोस्ती टूट गई.
गठबंधन टूटने के बाद कई बार खबरें आईं कि शिवसेना के नेताओं पर आईटी की रेड पड़ी. शिवसेना और बीजेपी लगातार आमने-सामने रहे. एक बयान में तो उद्धव ठाकरे ने कहा था कि बीजेपी गठबंधन की वजह से शिवसेना के 25 साल बर्बाद हो गए. वहीं बीजेपी नेता और महाराष्ट्र के पूर्व सीएम देवेंद्र फडणवीस ने कहा, जब शिवसेना का जन्म भी नहीं हुआ था, तब वे मुंबई से बीजेपी के पार्षद थे.
NDA से अलग हुई टीडीपी, एक साल बाद टूट गए 4 सांसद
16 मार्च 2018 में तेलुगु देशम पार्टी (TDP) ने एनडीए से नाता तोड़ लिया. एक साल बाद जून 2019 में टीडीपी के 4 राज्यसभा सांसद सीएम रमेश, टीजी वेंटकेश, जी मोहन राव और वाईएस चौधरी ने बीजेपी जॉइन कर ली थी. वाईएस चौधरी साल 2014 से 2018 के बीच मोदी सरकार में राज्यमंत्री थे, लेकिन टीडीपी का केंद्र सरकार से समर्थन वापस लेने के बाद राज्य मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया था. बीजेपी में शामिल होने से पहले की कुछ घटनाएं भी गौर करने वाली हैं.
बीजेपी में शामिल होने से पहले ईडी ने वाईएस चौधरी से जुड़ी कंपनी के हैदराबाद-दिल्ली सहित कई जगहों पर छापेमारी की थी. इस दौरान 315 करोड़ रुपए की संपत्ति जब्त की गई. ऐसा ही सांसद सीएम रमेश के साथ हुआ. उनके घर दफ्तर सहित 17 जगहों पर इनकम टैक्स ने छापेमारी की थी.
कल्याण सिंह को भी अपनी पार्टी का विलय करना पड़ा था
जनवरी 2013 में यूपी के पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने अपनी जनक्रांति पार्टी का विलय बीजेपी में कर दिया था. विलय के लिए लखनऊ में एक बड़ी रैली की गई, जिसे अटल शंखनाद रैली का नाम दिया गया. कहा जाता है कि साल 1999 में कल्याण सिंह ने अटल बिहारी वाजपेयी की सार्वजनिक आलोचना कर दी थी, जिसके बाद उन्हें पार्टी से निकाल दिया गया. इसके बाद कल्याण सिंह ने अपनी अलग राष्ट्रीय क्रांति पार्टी बनाई और साल 2002 में विधानसभा का चुनाव भी लड़े. 4 सीटों पर जीत भी मिली.
2009 के लोकसभा चुनाव में कल्याण सिंह एसपी के साथ चले गए. बीबीसी की एक रिपोर्ट के मुताबिक, एक बयान में उन्होंने कहा था कि बीजेपी मरा हुआ सांप है और मैं इसे कभी गले नहीं लगाऊंगा. लेकिन 21 जनवरी 2013 को कल्याण सिंह ने अपनी पार्टी के विलय की घोषणा कर दी. भाजपा में विलय की घोषणा कल्याण के बेटे राजवीर सिंह ने की थी.
मुकेश सहनी एनडीए के इकलौते साथी नहीं है, जिसके नेताओं को बीजेपी ने तोड़ा या फिर पार्टी को नुकसान पहुंचाने की कोशिश की. बाबूलाल मरांडी से लेकर उद्धव ठाकरे तक कई नाम शामिल हैं. बीजेपी एनडीए के 'बिग ब्रदर' की भूमिका में है, लेकिन जब राज्यों की बात आती है तो वहां स्थानीय पार्टियां अपना दम दिखाने में पीछे नहीं हटतीं. ऐसे में टकराव की स्थिति पैदा होने लगती है. लेकिन इसका अंजाम 'पार्टी को खत्म कर देना' शायद नहीं हो सकता है. इससे एनडीए के छोटे दलों में एक नकारात्मक संदेश जा सकता है, जो आगे चलकर बीजेपी के लिए बड़ी चुनौती बन सकती है.
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)