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Mulayam Singh Yadav पर जब चली थीं 9 गोलियां, चलाने वाला कौन था? SIYASAT EP-11

मुलायम सिंह यादव पर गोली चलाने का आरोप किस पर लगा?

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मुलायम सिंह यादव नहीं रहे. लेकिन, उनसे जुड़े किस्से राजनीति के पटल पर हमेशा जिंदा रहेंगे. एक ऐसी ही घटना साल 1984 में हुई, जब उनके ऊपर एक के बाद एक 9 गोलियां चलीं.

4 मार्च 1984, सूरज की रोशनी धीरे-धीरे कम हो रही थी. मुलायम सिंह यादव इटावा में एक रैली को संबोधित करने के बाद करीब शाम 5 बजे अपने एक दोस्त से मिलने महिखेड़ा गांव पहुंचे. दोस्त से मुलाकात के बाद मुलायम करीब 9.30 बजे मैनपुरी के लिए रवाना हुए. वे अभी महिखेड़ा से करीब एक किलोमीटर की दूरी ही तय कर पाए थे कि गोलियों की आवाज सुनाई पड़ी. कुछ सेकेंड तक तो किसी को कुछ समझ ही नहीं आया. लेकिन, मुलायम सिंह की गाड़ी चला रहा ड्राइवर ने देखा कि उसकी गाड़ी के आगे चल रहे बाइक सवार दो लोग गिर गए हैं और उसकी गाड़ी में भी आग लग गई है. तब तक सुरक्षाकर्मी भी समझ गए कि हमलावरों का निशाना मुलयाम सिंह यादव ही हैं.

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मुलायम सिंह पर क्यों चली थीं गोलियां? किसको उनसे बैर था. उस गोलीबारी में क्या हुआ. इस हमले की वजह क्या थी और इसका देश की सियासत पर क्या असर पड़ा?

आजादी के करीब 3 दशकों तक केंद्र और राज्यों की सत्ता में कांग्रेस का ही दबदबा रहा. लेकिन, इसके बाद कांग्रेस को चुनौतियां मिलनी शुरू हो गई थीं. कई अलग-अलग पार्टियां और लोग कांग्रेस के लिए चुनौती बन गए थे. इसी में एक नाम था मुलायम सिंह यादव, जो दिल्ली से दूर यूपी के इटावा से कांग्रेस को चुनौती दे रहा था. 1967 में लोहिया की संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी से पहली बार विधायक चुनकर विधानसभा पहुंचे मुलायम तेजी से राजनीति की सीढ़ियां चढ़ रहे थे. राजनीति में मुलायम का यही बढ़ता कद विरोधियों को रास नहीं आ रहा था.

नतीजा उन्हें मारने की पूरी साजिश रची गई. साजिश के तहत कार में बैठे मुलायम पर एक के बाद एक, 9 गोलियां दागी गईं. इन गोलियों की गड़गड़ाहट से पूरे इलाके में हल्ला मच गया कि मुलायम मारे गए. दरअसल करीब आधे घंटे तक दोनों तरफ से गोलियां चलती रहीं. जब हमलावर शांत हुए तो मुलायम के सुरक्षाकर्मी घेरा बनाकर एक जीप में उन्हें नजदीकी कुर्रा पुलिस थाने तक ले गए.

मुलायम सिंह यादव पर हुए इस हमले को रिपोर्ट करते हुए ‘जनसत्ता’ ने अपने 8 मार्च 1984 के अंक में लिखा था कि 4 मार्च को लोकतांत्रिक मोर्चा के उत्तर-प्रदेश ईकाई के अध्यक्ष और विधान-परिषद् में विपक्ष के नेता मुलायम सिंह यादव पर जानलेवा हमला किया गया. इसमें उनकी कार के आगे मोटर साइकिल से चल रहे छोटेलाल नामक व्यक्ति की घटना स्थल पर ही मौत हो गई और नेत्रपाल सिंह नामक एक अन्य युवक गंभीर रूप से घायल हो गया. मुलायम सिंह यादव पर हमले के बाद सियासी घमासान मच गया था. उन्होंने इस हमले के लिए कांग्रेस को जिम्मेदार ठहराया था. मुलायम सिंह ने बिना किसी का नाम कहा था कि 'ये उनकी हत्या करने की सोची-समझी साजिश थी और उन्हें भगवान ने ही बचाया है.  

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उस दिन मुलायम की गाड़ी पर हमलावरों की कुल 9 गोलियां लगी थीं. ये गोलियां गाड़ी में उसी तरफ मारी गई थीं, जिधर मुलायम बैठे थे. यानी हमलावरों को मुलायम की लोकेशन से लेकर सीटिंग पोजिशन सबकुछ पता था. अखिलेश यादव की जीवनी विंडस ऑफ चेंज लिखने वाली वरिष्ठ पत्रकार सुनिता एरॉन लिखती हैं कि मुलायम सिंह यादव को अपने ऊपर हमले का अंदेशा पहले से ही था. मुलायम ने अपने सुरक्षाकर्मियों को कह रखा था कि हमले की स्थिति में वे चिल्लाने लगें- नेताजी मारे गए. नेताजी मारे गए. उस दिन जब उन पर हमला हुआ तो सुरक्षाकर्मियों ने ऐसा ही किया. जिससे हमलावरों को लगा कि मुलायम सिंह यादव सही में मारे गए हैं और वे घटनास्थल छोड़ भाग गए. इसके बाद मुलायम के सुरक्षाकर्मी घेरा बनाकर एक जीप में उन्हें नजदीकी कुर्रा पुलिस थाने ले गए. इस तरह से मुलायम सिंह की जान बच पाई थी.

इसके बाद भी मुलायम सिंह के तेवर विरोधियों के प्रति नरम नहीं हुए...उन्होंने अपने तेवर को और धार देना शुरू कर दिया. 1989 से 1992 तक चले राजनीतिक झंझावातों से मुलायम उलझन में थे. मंडल और मंदिर मामलों में उन्होंने सख्त रुख अपनाया था. साथ ही नित नई साजिशें रची जा रही थीं. मुलायम ने अपना अलग रास्ता ढूंढ़ने का फैसला किया. मुलायम के पास तीन सूरमाओं के साथ काम करने की ट्रेनिंग थी. उन्होंने लोहिया की सोशलिस्ट पॉलिटिक्स, चरण सिंह की किसान पॉलिटिक्स और वी पी सिंह की मंडल पॉलिटिक्स को करीब से देखा था. उनके पास मौका था कि तीनों विचारों को साथ लेकर राजनीति शुरू करें.

उस समय वो देवीलाल, चंद्रशेखर और वीपी सिंह जैसे बड़े नेताओं से नाराज चल रहे थे. वे दारुलशफा स्थित अपने मित्र भगवती सिंह के विधायक आवास पर जाकर साथियों के साथ लंबी बैठकें करते और भविष्य की रूपरेखा तैयार करते. साथियों ने डराया कि अकेले पार्टी बनाना आसान नहीं है. बन भी गई तो चलाना आसान नहीं होगा. लेकिन, मुलायम अडिग थे.

उनका कहना था कि भीड़ और पैसा जुटाकर उन्हें हम देते हैं. फिर वे हमें बताते हैं कि क्या करना है, क्या बोलना है. हम अपना रास्ता खुद बनाएंगे. आखिरकार सितंबर 1992 में मुलायम ने सजपा से नाता तोड़ ही दिया और चार अक्टूबर को लखनऊ में उन्होंने समाजवादी पार्टी बनाने की घोषणा कर दी. चार और पांच नवंबर को बेगम हजरत महल पार्क में उन्होंने पार्टी का पहला राष्ट्रीय अधिवेशन आयोजित किया. मुलायम समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष, जनेश्वर मिश्र उपाध्यक्ष, कपिल देव सिंह और मोहम्मद आजम खान पार्टी के महामंत्री बने और मोहन सिंह को प्रवक्ता नियुक्त किया गया.

इन 30 सालों में उत्तर प्रदेश में उनकी पार्टी ने तीन बार सरकार बनाई और दिल्ली तक धाक दिखाई. अब नेताजी नहीं रहे. ऐसे में समाजवादी पार्टी को आगे बढ़ाने का दारोमदार उनके बेटे अखिलेश यादव पर है, जिन्हें हाल ही में हुए राष्ट्रीय अधीवेशन में समाजवादी पार्टी का अध्यक्ष चुना गया है.  

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