पुरानी हिंदी फिल्मों के लिए यह एक सामान्य प्लॉटलाइन हुआ करती थी कि एक कैरेक्टर कई सालों तक जेल में रहने के बाद वापस आता है, तो पाता चलता है कि दुनिया पूरी तरह बदल गई है. लेकिन 10 महीने बाद जेल से बाहर आए कांग्रेस नेता नवजोत सिंह सिद्धू (Navjot Singh Sidhu) और पंजाब (Punjab) की राजनीति के लिए दस महीने भी काफी लंबे साबित हुए.
पंजाब में पिछले दस महीनों में सिद्धू मूसेवाला की हत्या, संगरूर उपचुनाव में AAP की हार और सिमरनजीत सिंह मान की जीत, कैप्टन अमरिंदर सिंह का बीजेपी में शामिल होना, AAP के मंत्रियों का इस्तीफा, पंजाब कांग्रेस से मिनी पलायन, भारत जोड़ो यात्रा, जीरा मोर्चा, अमृतपाल सिंह का उदय और उसके बाद उसके खिलाफ कार्रवाई जैसी कई घटनाएं हुई हैं.
नवजोत सिद्धू इन सभी घटनाक्रमों से दूर थे. आइए सिद्धू से जुड़े तीन पहलुओं पर गौर करते हैं.
सिद्धू का जेल में होना उनके लिए क्यों भाग्यशाली रहा होगा?
कांग्रेस में उनके लिए फिलहाल क्या जगह है?
उन्हें लोकसभा चुनाव क्यों और किस सीट से लड़ना चाहिए?
नवजोत सिंह सिद्धू के लिए जेल में होना क्यों भाग्यशाली रहा होगा?
अगर देखा जाए तो जेल की सजा से गुजरना किसी के लिए भी मुश्किल वक्त होता है. लेकिन राजनीतिक रूप से नवजोत सिद्धू भाग्यशाली रहे होंगे, जो पिछले दस महीनों से जेल में हैं. इसके कई कारण हैं.
2022 के विधानसभा चुनावों में, सिद्धू तत्कालीन सत्तारूढ़ कांग्रेस शासन के खिलाफ जनता के गुस्से के टारगेट में से एक बन गए थे. उन्हें अहंकारी और सरकार के लिए अस्थिरता पैदा करने के तौर पर देखा गया.
चुनावों में उनकी हार और उसके बाद कैद की सजा ने उस वक्त उनके लिए फैली कुछ नकारात्मकता को सोख लिया होगा.
वो ऐसे वक्त में जेल में रहकर भी भाग्यशाली रहें हैं. पंजाब में राजनेताओं के खिलाफ जनता का गुस्सा बढ़ गया है, खासकर सिद्धू मूसेवाला की हत्या के बाद.
इसके बाद AAP सरकार की लोकप्रियता कम हुई लेकिन इससे कांग्रेस या शिरोमणि अकाली दल-बादल में कोई सुधार नहीं देखा गया.
इससे सबसे ज्यादा फायदा अकाली-अमृतसर और सिमरनजीत सिंह को मिला, जो मुख्यधारा की पार्टियों और राजनेताओं के प्रति बढ़ते मोहभंग को दर्शाता है.
मेनस्ट्रीम की राजनीति के इलाके से बाहर अमृतपाल सिंह के उदय में इस वैक्यूम का भी योगदान हो सकता है.
जेल में होने की वजह से सिद्धू इस फेज से बच निकले.
कांग्रेस में सिद्धू के लिए जगह
पंजाब में हाल के दिनों और अपनी साख खो रही कांग्रेस नेतृत्व की प्राथमिकता किसी तरह जीवित रहने और विपक्ष की जगह बनाए रखने की रही है.
पंजाब कांग्रेस प्रमुख के रूप में सिद्धू के इस्तीफे के बाद, पार्टी ने गिद्दड़बाहा के युवा विधायक अमरिंदर सिंह राजा वारिंग को बागडोर सौंपी. सीनियर लीडर प्रताप सिंह बाजवा को विपक्ष का नेता बनाया गया है, सुखजिंदर रंधावा को राजस्थान के लिए पार्टी प्रभारी की जिम्मेदारी दी गई जबकि सुखपाल सिंह खैरा को पार्टी के किसान विंग का प्रमुख बनाया गया है.
पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री चरणजीत चन्नी ज्यादातर समय विदेश में रहे हैं.
जबकि वारिंग और बाजवा की मुहिम से कांग्रेस को अभी जिंदा रहने में मदद मिल सकती है. लेकिन यह पंजाब के लिए किसी नए योजना का रास्ता नहीं दिखाती नजर आ रही.
वास्तव में वारिंग और लुधियाना के सांसद रवनीत बिट्टू मुख्य रूप से सुरक्षा पर ध्यान देने और राज्य के हिंदू अल्पसंख्यक के वोटों को मजबूत करने की कोशिश करने की कांग्रेस की पुरानी रणनीति को फिर से दोहरा रहे हैं.
बाजवा AAP की कथित विफलताओं को उजागर करने में फिट हैं लेकिन एक हद से ज्यादा कांग्रेस को आगे बढ़ने में मदद नहीं कर सकते.
इसका सिर्फ अपवाद सुखपाल सिंह खैरा हैं, जो पार्टी लाइन से परे जाने की हद तक पंजाब समर्थक और सिख समर्थक रुख अपनाते हैं.
उदाहरण के लिए उन्होंने हाल ही में अमृतपाल सिंह पर कार्रवाई के दौरान संयम बरतने का आह्वान किया, जबकि यहां तक कि उनकी पार्टी के राज्य नेतृत्व ने ऑपरेशन का समर्थन किया.
लेकिन खैरा की भी एक सीमा है. उन्हें एक ऐसी पार्टी में पंथवादी के रूप में देखा जाता है, जो कुछ भी हो लेकिन वह नहीं है. पार्टी के अंदरूनी सूत्रों का यह भी कहना है कि खैरा की स्थिति उनकी सीट भोलाथ के लिए उपयुक्त हो सकती है, जिसे पंथवाद से प्रभावित सीट के रूप में जाना जाता है, न कि कांग्रेस के सामाजिक गठबंधन के जैसा, जो हिंदू, रविदासी और अद-धर्मी वोटों पर बहुत निर्भर है.
कुछ लोगों को लगता है कि नवजोत सिंह सिद्धू कांग्रेस को कुछ अलग दे सकते हैं. खैरा के विपरीत, जो एक अकाली परिवार से आते हैं, सिद्धू पारंपरिक रूप से एक पंथवादी राजनेता नहीं हैं. वो केवल कांग्रेस और बीजेपी में रहे हैं.
हालांकि, उन्होंने करतारपुर कॉरिडोर के उद्घाटन में महत्वपूर्ण भूमिका के साथ धार्मिक सिखों के बीच सद्भाव हासिल किया.
इसके बाद, वो 2015 के बेअदबी मामलों में दोषियों के खिलाफ कार्रवाई की मांग करने वाले सबसे मुखर नेताओं में से एक थे.
दूसरी ओर, सिद्धू को कई हिंदू रीति-रिवाजों का पालन करने के लिए भी जाना जाता है और वह माता वैष्णो देवी के भक्त भी हैं.
जेल की सजा के बावजूद सिद्धू की छवि साफ-सुथरी है. उन पर मुंह से गोली मारने और अहंकारी होने का आरोप लगाया गया है, लेकिन भ्रष्टाचार का आरोप कभी नहीं लगा.
वह पंजाब के लिए एक योजना और कर्ज के बोझ जैसी चुनौतियों के बारे में भी बात करते हैं.
अगर सही तरीके से संभाला गया तो सिद्धू पंजाब कांग्रेस में एक ऐसे नेता हो सकते हैं, जो वोटरों को अपनी तरफ आकर्षित कर सकते हैं.
2024 लोकसभा चुनाव लड़ना सिद्धू के लिए सबसे अच्छा विकल्प क्यों है?
कैप्टन अमरिंदर सिंह को कांग्रेस में दरकिनार कर दिया गया था, लेकिन 2014 की मोदी लहर के बीच अमृतसर में वो बीजेपी के अरुण जेटली को हराने के बाद एक बार फिर से केंद्र में आ गए.
अगर सिद्धू 2027 में सीएम की कुर्सी पर कब्जा करना चाहते हैं, तो उन्हें वही दोहराना होगा, जो कैप्टन ने किया था.
ऐसा कोई रास्ता नहीं है कि पार्टी उन्हें आने वाले हाल के दिनों में फिर से पंजाब कांग्रेस प्रमुख बनाए. किसी भी केंद्रीय पद से सिद्धू को एक हद से ज्यादा दिलचस्पी नहीं होगी. इससे केवल लोकसभा चुनाव लड़ने की एक संभावना बचती है.
सिद्धू के लिए सही सीट तलाशना एक दिलचस्प प्रयोग होगा. एक सीट सबसे उपयुक्त हो सकती है लेकिन चलिए एलिमिनेशन की प्रक्रिया को देखते हैं.
सिद्धू की सीट अमृतसर पर पहले से ही गुरजीत औजला कब्जा किए हुए हैं, जो सिद्धू के लिए रास्ता बनाने के इच्छुक नहीं हो सकते हैं.
खडूर साहिब की पड़ोसी सीट के लिए भी यही सच हो सकता है, जिसके सांसद जसबीर सिंह डिम्पा ने थोड़े वक्त के बाद पार्टी के साथ समझौता किया है.
लुधियाना में रवनीत बिट्टू की निर्वाचन क्षेत्र में अच्छी पकड़ है, इसलिए उनकी जगह लेने का सवाल ही नहीं उठता. तीन सीटें - फतेहगढ़ साहिब, जालंधर और फरीदकोट एससी आरक्षित सीटें होने की वहज से विकल्प में ही नही हैं.
कांग्रेस के कब्जे वाली सीटों में आनंदपुर साहिब (मनीष तिवारी के पास) और पटियाला (परनीत कौर के पास) शामिल हैं.
पटियाला एक अच्छा विकल्प हो सकता है, क्योंकि सिद्धू मूल रूप से यहीं के हैं लेकिन सांगठनिक तौर पर कांग्रेस यहां संघर्ष कर रही है. सिर्फ सांगठनिक बाधाओं की वजह से उन्हें राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा के दौरान जिले को बायपास करना पड़ा.
हालांकि जनसांख्यिकी के लिहाज से आनंदपुर साहिब एक अच्छा विकल्प है, लेकिन यह काफी हद तक इस बात पर निर्भर करेगा कि पार्टी नेतृत्व का मनीष तिवारी के साथ कैसा समीकरण है.
पांच सीटें हैं, जो कांग्रेस हार गईं, जिनमें से चार अनारक्षित हैं- संगरूर, बठिंडा, फिरोजपुर और गुरदासपुर.
संगरूर में आम आदमी पार्टी और SAD-अमृतसर के सिमरनजीत मान के बीच मुकाबला होने की उम्मीद है.
बठिंडा का मुकाबला AAP और SAD-बादल की हरसिमरत कौर के बीच हो सकता है.
फिरोजपुर में भी यही समस्या हो सकती है लेकिन सिद्धू के लिए अपने प्रमुख टारगेट में से एक- सुखबीर बादल को चुनौती देना आकर्षक हो सकता है. हालांकि, फिरोजपुर में कांग्रेस के जीरो विधायक हैं, इसलिए यह एक कठिन सीट होगी.
नवजोत सिंह सिद्धू के लिए सबसे अच्छा विकल्प गुरदासपुर हो सकता है, क्योंकि
गुरदासपुर के 9 में से 6 विधानसभा क्षेत्रों में कांग्रेस के विधायक हैं.
मौजूदा सासंद बीजेपी के सनी देओल, जो बेहद अलोकप्रिय हैं और उन्हें बदल दिया जाएगा. इस सीट पर AAP के पास कोई मजबूत चेहरा नहीं है.
यह भी सिंबोलिक है कि करतारपुर साहिब कॉरिडोर एक राजनेता के रूप में सिद्धू की सबसे बड़ी उपलब्धि, गुरदासपुर में डेरा बाबा नानक से शुरू होती है.
सिर्फ एक सवाल यह है कि क्या कांग्रेस सीट से एक सिख उम्मीदवार के लिए तैयार होगी? इस सीट पर पिछले सात में से 6 चुनाव हिंदू उम्मीदवारों ने जीते हैं.
हालांकि, यह एक बाद का कदम है. सबसे पहले, सिद्धू के लिए और भी मौजूदा चुनौतियां हैं.
आने वाले हाल के दिनों में सिद्धू के लिए पंजाब में बदले हुए राजनीतिक पिच को नेविगेट करने की चुनौती होगी. उनकी पहली यात्रा सिद्धू मूसेवाला के माता-पिता से मिलने के लिए उनके गांव में है. मूसेवाला के लिए इंसाफ पंजाब में व्यापक सहमति वाला मुद्दा है.
सिद्धू के लिए सबसे पेचीदा सवाल यह होगा कि पंजाब में चल रही कार्रवाई और अमृतपाल सिंह पर उनका क्या रुख है? क्या वो बिट्टू-वारिंग की राष्ट्र-समर्थक सुरक्षा लाइन या खैरा की पंथवादी-समर्थक लाइन की ओर अधिक झुकेंगे?
सिद्धू न केवल जनता और मीडिया के लिए बल्कि पार्टी कार्यकर्ताओं के लिए भी नजरों से ओझल हो गए हैं. उन्हें खुद को वापस लाने में कुछ वक्त लगेगा.
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