लोकसभा चुनाव (Lok Sabha Election) करीब हैं और हर बार की तरह ज्यादा से ज्यादा सीटें जीतने के उद्देश्य से देश में तमाम तरीके के राजनीतिक जोड़-तोड़ का क्रम तेज हो गया है. बिहार (Bihar) में नीतीश कुमार (Nitish Kumar) की पार्टी जनता दल (यूनाइटेड) और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में पैठ रखने वाली जयंत चौधरी की राष्ट्रीय लोक दल ने राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) का हाथ थाम लिया है. कर्नाटक से एच.डी. कुमारास्वामी की जनता दल (सेक्यूलर) और तेलंगाना से चंद्रबाबू नायडू की तेलगू देशम पार्टी भी NDA का हिस्सा बन गए हैं. नवीन पटनायक की बीजू जनता दल के NDA में शामिल होने की मात्र औपचारिक घोषणा होना भर बाकी है.
NDA की शुरुआत और सत्ता तक आने का सफर
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आगामी चुनावों में NDA के लिए 400 सीटों का विशाल लक्ष्य तय किया है. NDA गठबंधन अपने इस 400 के लक्ष्य को कितना हासिल कर पाता है ये बाद की बात है लेकिन अभी के लिए हम NDA की वर्तमान की राजनीतिक रणनीतियों को खुद NDA के अपने इतिहास के संदर्भ में देख सकते हैं.
यूं तो NDA गठबंधन का निर्माण 1998 में हुआ था लेकिन NDA की मुख्य घटक दल भारतीय जनता पार्टी 1996 के आम चुनावों में 161 सीटों के साथ लोकसभा में सबसे बड़े दल के रूप में उभरी थी. 1996 में भारतीय जनता पार्टी ने 13 दिनों के लिए अटल बिहारी वाजपेई के नेतृत्व में सरकार भी बनाई थी लेकिन राजनीतिक सहयोगियों को ना जुटा पाने के कारण मात्र 13 दिनों में अटल बिहारी की ये सरकार गिर गई थी.
बाद में 1998 तक आते-आते भारतीय जनता पार्टी ने बहुत सारे क्षेत्रीय दलों को जुटाकर राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (National Democratic Alliance - NDA) नाम का एक संयुक्त मोर्चा बना लिया था जिसका नतीजा ये हुआ था की 1998 में अटल बिहारी वाजपेई NDA के वरिष्ठ अभिभावक होने के नाते फिर से एक बार प्रधानमंत्री बने थे.
लेकिन NDA की ये सरकार भी मात्र 13 महीने ही चली थी क्योंकि NDA की इस सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पास हो गया था और अपने घटक दल, AIADMK, के छोड़कर जाने की वजह से मात्र एक वोट की कमी के चलते अटल बिहारी को महज 13 महीनों में प्रधानमंत्री की गद्दी से उतरना पड़ा था.
लेकिन 1999 में फिर से चुनाव हुए थे और इस बार NDA गठबंधन ने 270 के जादुई आंकड़े को छूकर फिर से एक बार सरकार बनाई थी और अटल बिहारी वाजपेयी तीसरी बार प्रधानमंत्री बने थे. कभी कांग्रेस के एकछत्र राज के लिए जाने जानी वाली भारत की एकांगी राजनीति में ये NDA की सरकार पहली ऐसी सरकार थी जिसमें कांग्रेस के द्वारा कोई भी प्रतिभाग ना किये जाने के बावजूद इस सरकार ने अपना पांच साल का कार्यकाल पूरा किया था.
2014 से बदली NDA की किस्मत
1999 से 2004 तक सरकार चलाने के बाद NDA गठबंधन ने शाइनिंग इंडिया के नारे के साथ 2004 का चुनाव लड़ा था लेकिन इस बार UPA (यूनाइटेड प्रोग्रेसिव अलायन्स) गठबंधन से NDA को हार का सामना करना पड़ा था. ठीक इसी तरीके से 2009 के चुनावों में NDA ने जनता से गुड गवर्नेंस, डेवलपमेंट और सिक्योरिटी का वादा किया लेकिन इसके बावजूद NDA को चुनावों में सफलता नहीं मिली थी.
लेकिन 2014 आते-आते चुनावी बिसात बदल गई जिसमें NDA की मुख्यघटक BJP एक ऐसे दल के रूप में उभरी जिसने सिर्फ अपने दम पर 282 सीटें जीत लीं. भारतीय संविधान के अनुसार केंद्र में सरकार बनाने के लिए कुल जमा 272 सीटों की जरूरत होती हैं लेकिन इस जादुई आंकड़े से ज्यादा सीटें होने के बावजूद BJP ने अपने गठबंधन NDA को दरकिनार नहीं किया.
NDA ने कुल मिलाकर 336 सीटें जीती थीं और NDA के घटक दलों का सम्मान करते हुए BJP ने 2014 में बनी अपनी सरकार की पहली कैबिनेट में रामविलास पासवान, हरसिमरत कौर बादल आदि को BJP का नेता ना होने के बावजूद मंत्री पद से नवाजा था.
बीजेपी और NDA के साथी
NDA के घटक दलों की तरफ BJP के दोस्ती पूर्ण रवैये को सिर्फ BJP की राजनीतिक नैतिकता के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए क्योंकि अगर राजनीतिक विशेषज्ञों की मानें तो 2014 में BJP को मिली 282 सीटों में से करीब 52 सीटें BJP के पाले में इसलिए आयी थीं क्योंकि NDA के घटक दल के रूप में BJP का शिवसेना, तेलगू देशम पार्टी या फिर शिरोमणि अकाली दल जैसे क्षेत्रीय दलों से कोई सीधा टकराव नहीं था.
हालांकि सिक्के को पलट कर देखें तो 2014 के चुनावों में शिव सेना 18, तेलगू देशम पार्टी 16, लोक जनशक्ति पार्टी 6 और शिरोमणि अकाली दल 4 सीटें इसलिए जीत पाई क्योंकि समय रहते इन तीन पार्टियों ने NDA का हाथ पकड़ना स्वीकार कर लिया था अन्यथा BJP की मोदी लहर में इन क्षेत्रीय पार्टियों का शायद वही हश्र होता जो अन्य क्षेत्रीय पार्टियों का हुआ था.
तृणमूल कांग्रेस, बीजू जनता दल और AIADMK 2014 के चुनाव में मात्र ऐसी तीन क्षेत्रीय पार्टियां थीं जो NDA का घटक दल ना होने के बावजूद अपने-अपने क्षेत्र में अपनी साख बचा पाने में सफल रही थीं.
2019 की पूर्व संध्या पर देश का चुनावी माहौल BJP और उसके गठबंधन NDA के खिलाफ जाता हुआ नजर आ रहा था क्योंकि दिसंबर 2018 में राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में हुए विधानसभा चुनावों में BJP चुनाव हार गई थी. कयास ये लगाये जा रहे थे कि चूंकि सारा चुनावी गुणा भाग NDA के खिलाफ जा रहा है और तेलगू देशम पार्टी सरीखे NDA के पुराने घटक गठबंधन को छोड़कर 2019 का चुनाव लड़ रहे हैं इसलिये हो सकता है कि NDA उतना अच्छा प्रदर्शन ना करें जितना उसने 2014 के चुनावों में किया था.
लेकिन 2019 के चुनावों में NDA के खराब प्रदर्शन के जो भी कयास लगाये जा रहे थे वो सब गलत साबित हुए. राजनीतिक विशेषज्ञों को चौंकाते हुए 2019 में NDA ने 353 सीटों पर जीत दर्ज की थी जिसमें से 303 सीट BJP ने खुद अपने दम पर जीती थी. 2019 में:
जनता दल (यूनाइटेड) 16
शिवसेना 18
लोक जनशक्ति पार्टी 6
शिरोमणि अकाली दल 2 सीटों पर जीती थी.
तमाम विपरीत परिस्थितियों में भी 2019 के चुनाव में NDA की वापसी का श्रेय सिर्फ सीटों के गणित को नहीं दिया जा सकता था. 2019 में सीटों के गणित के साथ-साथ BJP ने अपने चुनावी नैरेटिव पर भी खूब मेहनत की थी.
एक ओर 2019 के चुनाव के ठीक पहले कश्मीर में हुए पुलवामा अटैक से उपजी राष्ट्रवाद की लहर को BJP ने बखूबी इस्तेमाल किया वहीं दूसरी ओर जनधन योजना, उज्जवला योजना आदि से छोटी जाति के लोगों तक BJP ये संदेश पहुंचाने में सफल रही थी कि वर्तमान में वो ही सामाजिक न्याय की सबसे बड़ी पुरोधा है.
NDA 400 पार!
2019 के चुनावों के बाद एक बार फिर से NDA के लिए चुनावी हालात बदल गए हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आने वाले लोकसभा चुनावों में NDA के लिए 400 सीटों का विशाल लक्ष्य निर्धारित किया है. जब NDA गठबंधन एक बार फिर से विभिन्न घटक दलों से संपर्क करने का प्रयास कर रहा है उत्तर भारत में किसान आंदोलन एक बार फिर से शुरू हो गया है.
NDA का विपक्षी गठबंधन, INDIA, देश के अलग-अलग हिस्सों में भारत जोड़ो यात्रा निकाल रहा है और सामाजिक न्याय की बात करने वाली पार्टियां जाति जनगणना की मांग कर रही हैं. इस बदले हुए माहौल में आने वाले दिनों में ये देखना दिलचस्प होगा कि NDA गठबंधन अपने 400 के लक्ष्य को किस हद तक छू पाता है.
(लेखक JNU के छात्र रहे हैं और स्वतंत्र पत्रकार के रूप में सक्रिय हैं)
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