Nitish Kumar and Bihar Politics: बिहार में सत्तारूढ़ जेडीयू, RJD और कांग्रेस का गठबंधन टूटने की कगार दिख रहा है. राजनीतिक हलकों में अटकलें तेज हैं कि नीतीश कुमार फिर से यूटर्न लेंगे और NDA में शामिल होंगे. मीडिया रिपोर्ट्स की माने तो नीतीश कुमार बीजेपी से हाथ मिला लेंगे और रविवार, 28 जनवरी को रिकॉर्ड 9वीं बार सीएम पद की शपथ लेंगे.
पिछले दशक में कुछ ही राजनेताओं ने बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जितने यू-टर्न लिए हैं.
नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में पेश करने के बीजेपी के फैसले के विरोध में उन्होंने 2013 में एनडीए के साथ एक दशक से अधिक पुराना संबंध समाप्त कर दिया.
2014 की हार के बाद, उन्होंने जीतन राम मांझी को सीएम बनाया, लेकिन उन्हें हटाकर फिर से सीएम बन गए. 2015 में, उन्होंने RJD और कांग्रेस के साथ मिलकर महागठबंधन के सीएम उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ा, लेकिन दो साल बाद ही उन्होंने उनसे किनारा कर लिया. वह फिर से एनडीए में शामिल हो गये और नरेंद्र मोदी का नेतृत्व स्वीकार कर लिया. फिर 2022 में उन्होंने फिर से एनडीए को छोड़ दिया और महागठबंधन में शामिल हो गए. अब, जनवरी 2024 में, ऐसी अफवाहें हैं कि वह एनडीए में वापस जा सकते हैं.
जनता दल (यूनाइटेड) और समता पार्टी के भीतर भी, नीतीश कुमार का जॉर्ज फर्नांडिस, शरद यादव और हाल ही में आरसीपी सिंह जैसे पार्टी अध्यक्षों से मतभेद रहा है.
यह दिलचस्प है कि इतने सारे यू-टर्न के बावजूद नीतीश कुमार, बड़े पैमाने पर, अपनी छवि और कुछ हद तक अपना आधार भी बनाए रखने में कामयाब रहे हैं. उन्होंने इसे कैसे मैनेज किया, यह अपने आप में एक कहानी है. इसके पीछे तीन फैक्टर हैं.
सामाजिक आधार: कुर्मी, ईबीसी और महादलित
जनता दल (यूनाइटेड) का 2005 से बिहार में सीएम की कुर्सी पर कब्जा है. इन 18 वर्षों में से 17 वर्षों तक नीतीश सीएम रहे हैं. लेकिन यह तथ्य अक्सर राज्य में पार्टी के कमजोर आधार को छुपा जाता है.
पिछले दो विधानसभा चुनावों में, जेडीयू वोट शेयर के मामले में बीजेपी और RJD दोनों के बाद तीसरे नंबर की पार्टी रही है. सीटों के मामले में भी वह फिलहाल तीसरे नंबर पर है.
हालांकि, जेडीयू को कुर्मियों, कोइरी, अत्यंत पिछड़ी जातियों और महादलितों के बीच मजबूत समर्थन बरकरार है. नीतीश कुमार ने कोटा के भीतर कोटा पर जोर देकर इन वर्गों का प्रतिनिधित्व बहुत बढ़ा दिया.
इन वर्गों में से कई लोग उन्हें यादव-प्रभुत्व वाली RJD और उच्च जाति-प्रभुत्व वाली बीजेपी की तुलना में अधिक स्वीकार्य विकल्प के रूप में भी देखते हैं. कई गैर-यादव ओबीसी और गैर-पासवान दलितों के लिए, नीतीश कुमार को एक ऐसे नेता के रूप में देखा जाता है जो अधिक मुखर समुदायों के खिलाफ उनके हितों की रक्षा कर सकते हैं.
2022 में महागठबंधन में आने से पहले के कुछ वर्षों में, नीतीश कुमार ने बीजेपी के मजबूत होने के कारण ऊंची जातियों के बीच और बीजेपी के साथ गठबंधन के कारण मुसलमानों के बीच कुछ समर्थन खो दिया था. हालांकि, ये वर्ग भी उन्हें अत्यधिक शत्रुतापूर्ण नहीं मानते हैं.
वैचारिक अस्पष्टता: नीतीश कुमार विभिन्न वर्गों के लिए कम बुरे विकल्प हैं
राजनीतिक रूप से ध्रुवीकृत समय में नीतीश कुमार ने एक निश्चित वैचारिक अस्पष्टता, या जैसा कि उनके समर्थक कहते हैं, एक वैचारिक मध्य मार्ग बनाए रखा है.
2022 में महागठबंधन से पहले तक नीतीश कुमार ने खुद को एक सामाजिक न्याय राजनेता के रूप में प्रस्तुत किया जो ऊंची जातियों या हिंदुत्व का विरोधी नहीं है. मुसलमानों के सामने उन्होंने खुद को बीजेपी के ऐसे सहयोगी के रूप में पेश किया था जो उनके प्रति शत्रुतापूर्ण नहीं था.
जब वो पहले बीजेपी के साथ सरकार में थे तो उन्होंने हिंदुत्व समर्थक तत्वों को बढ़ने की अनुमति दी, और यहां तक कि प्रमुख पदों पर भी कब्जा होने दिया. लेकिन उन्हें उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, गुजरात या कर्नाटक की तरह खुली छूट नहीं दी.
उस समय भी अल्पसंख्यकों को निशाना बनाने के लिए राज्य मशीनरी का उपयोग बीजेपी शासित अन्य राज्यों की तुलना में बिहार में बहुत कम हुआ. बिहार में नागरिकता संशोधन अधिनियम के खिलाफ कुछ सबसे बड़े विरोध प्रदर्शन देखे गए और तब यूपी-कर्नाटक में जिस तरह की कार्रवाई देखी गई थी, उसकी बिहार अपेक्षाकृत अनुपस्थिति देखी गई.
नीतीश कुमार खुद को विभिन्न वर्गों के सामने कम बुरे विकल्प के रूप में पेश करते हैं. एक अधिक शत्रुतापूर्ण सरकार की जगह यह स्थिति नीतीश कुमार को कई वर्गों के लिए आकर्षक बनाती है, भले ही वह उनकी पहली पसंद न हों.
व्यक्तिगत समीकरण
एक और महत्वपूर्ण तरीका जिसके द्वारा नीतीश कुमार कई यू-टर्न के बावजूद अपनी प्रासंगिकता बनाए रखने में कामयाब रहे हैं, वह है राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों के साथ भी दोस्ताना संबंध बनाए रखना.
लालू प्रसाद और नीतीश कुमार के बीच कड़वी राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता के बावजूद, दोनों ने व्यक्तिगत स्तर पर हमेशा सौहार्दपूर्ण संबंध बनाए रखा. जब कुमार इससे पहले (2015- 2017) महागठबंधन खेमे में थे, तो उन्होंने सुशील कुमार मोदी और अरुण जेटली जैसे अपने दोस्तों को बीजेपी में बचाए रखा.
ऐसा कई अलग हो चुके सहकर्मियों के साथ भी दिखा. सीएम बनाने के बाद, 2015 में जीतन राम मांझी को पद से हटाने के पीछे कुमार का हाथ था. मांझी ने जेडीयू छोड़ दी और हिंदुस्तान अवाम मोर्चा का गठन किया. हालांकि जब नीतीश कुमार ने यू-टर्न लिया तो मांझी बिना शर्त समर्थन की घोषणा करने वाले पहले व्यक्ति थे.
ऐसा ही उपेन्द्र कुशवाह के साथ है, जिन्हें 2013 में एनडीए से अलग होने के बाद एनडीए नीतीश के खिलाफ एक और ओबीसी प्रतिद्वंद्वी के रूप में प्रचारित कर रहा था. कुशवाह और नीतीश 2015 और 2020 में भी एक-दूसरे के विरोधी थे. लेकिन फिर कुशवाहा ने अपनी पार्टी- समता पार्टी का जेडीयू में विलय कर लिया. फिर फरवरी 2023 में उपेंद्र कुशवाहा ने नीतीश कुमार की पार्टी से अलग हो गए. कुशवाहा ने अपनी अलग पार्टी बना ली, जिसका नाम 'राष्ट्रीय लोक जनता दल' रखा.
बीजेपी खेमे में या उसके बाहर रहने के वक्त, नीतीश कुमार ने लगातार सोनिया गांधी और राहुल गांधी दोनों के साथ अच्छे समीकरण बनाए रखे.
तो, ये कुछ तरीके हैं जिनसे नीतीश कुमार कई यू-टर्न के बावजूद अपनी पकड़ बनाए रखने में कामयाब रहे हैं.
लेकिन एक और सवाल है जो हमें पूछने की जरूरत है.
नीतीश कुमार एक बार में इतने यू-टर्न क्यों लेते हैं?
नीतीश के अबतक के यू-टर्न मास्टरस्ट्रोक हैं या विश्वासघात, यह किसी के दृष्टिकोण पर निर्भर करता है. शायद इन्हें देखने का सबसे सही तरीका होगा- इन्हें एक कठिन राजनीतिक माहौल में जीवित रहने की रणनीति के रूप में देखना.
नीतीश कुमार, कई मायनों में, भारत में गठबंधन की राजनीति के 1989-2014 के दौर में सबसे सहज राजनेता हैं. यह एक ऐसा दौर था जिसमें क्षेत्रीय खिलाड़ी बहुत अधिक समझौता किए बिना कांग्रेस, बीजेपी या तीसरे मोर्चे की सरकार के बीच के विकल्प चुन सकते थे.
लेकिन 2014 के बाद इसमें बदलाव आया.
यह महत्वपूर्ण है कि नीतीश कुमार के अधिकांश यू-टर्न पिछले 10 वर्षों में आए हैं. यह एक ऐसा दौर है जिसमें राष्ट्रीय राजनीति में प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह का प्रभुत्व भी देखा गया है.
यह वह दौर है जिसमें बीजेपी के उदय ने न केवल कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और राष्ट्रीय लोक दल जैसे उसके प्रतिद्वंद्वियों को बल्कि उद्धव ठाकरे की शिवसेना (2019 में एनडीए छोड़ने वाली), असम गण परिषद और शिरोमणि अकाली दल (2020 में एनडीए छोड़ा) जैसे सहयोगियों को भी कमजोर कर दिया है.
उत्तर और पश्चिम भारत तथा पूर्व और दक्षिण भारत के कुछ हिस्सों में विभिन्न जातियों के हिंदू मतदाताओं के अभूतपूर्व एकीकरण से भी बीजेपी का उदय संभव हुआ है.
नीतीश के आलोचक कहेंगे कि उनमें बीजेपी से लगातार मुकाबला करने का साहस नहीं है. हालांकि, उनके समर्थक कहेंगे कि वह व्यावहारिक हैं और यह समझते हैं कि हवा किस ओर बह रही है.
केरल, तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश जैसे राज्य मोदी प्रभाव से अपेक्षाकृत अछूते रहे हैं. लेकिन दूसरी ओर बिहार इसके मूल में रहा है.
यूपी में बीजेपी गैर-यादव ओबीसी और गैर-जाटव दलित वोट बैंक पर कब्जा करने में सफल रही है, लेकिन उसके विपरीत बिहार में उसे नीतीश कुमार और छोटी पार्टियों पर निर्भर रहना पड़ा है.
और यहीं नीतीश कुमार को यूटर्न के लिए बार-बार मौका मिला है.
इसलिए, अपनी स्वतंत्रता को जीवित रखने और बनाए रखने के लिए, नीतीश कुमार ने बार-बार बीजेपी के साथ खिलाफत और सहयोग के बीच विकल्प चुना है. बीजेपी के सहयोगी और शत्रु, दोनों होने से अधिकांश पार्टियों को बड़ी कीमत चुकानी पड़ी है.
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