लोकतंत्र में अर्थपूर्ण भागीदारी की तलाश और जन हित की नीतियों को आकार देने का मकसद सामने रखते हुए प्रशांत किशोर (Prashant Kishor) 10 साल की योजना के साथ निकल पड़े हैं. शुरुआत बिहार से करने की ठानी है जहां के बक्सर जिले से वे आते हैं. 45 साल के पीके 55 साल पूरे होने तक अपने लक्ष्य को हासिल करना चाहते हैं. प्रशांत किशोर को ऐसा क्यों लगता है कि उनके लिए रीयल मास्टर यानी वास्तविक मालिक यानी जनता के पास पहुंचने का वक्त आ गया है, जो मुद्दों को बेहतर समझती है?
जन सुराज यानी जनता के लिए सुशासन की राह पर चलने का भी यही वक्त उन्हें मुफीद क्यों लग रहा है?
सैद्धांतिक तौर पर पीके ने ‘जन सुराज’ का चयन इसलिए किया है ताकि खुद को गांधीजी से जोड़ सकें जिन्होंने बिहार के चंपारण से ही राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन में शुरुआत की थी. वहीं, ‘स्वराज’ की जगह ‘सुराज’ शब्द का इस्तेमाल कर पीके ने गांधी से खुद को अलग भी किया है. इस शब्द का इस्तेमाल जनसंघ और बीजेपी से जुड़े लोग करते आए हैं.
2024 में मोदी की राह में रोड़ा नहीं बनेंगे पीके!
10 साल बाद वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की उम्र होगी 82 साल. तब तक वे राजनीति में मार्गदर्शकमंडल में जा चुके होंगे. इस बीच उनकी जगह लेने को बीजेपी के भीतर और बीजेपी के बाहर वही सामने आ पाएगा जो सबसे ज्यादा सक्रिय होगा और जनता के बीच होगा. पीके ने एक तरह से 2024 की लड़ाई में मोदी के नेतृत्व वाली बीजेपी में रोड़ा नहीं बनने का संकेत भी दे दिया है. लेकिन, क्या 2024 में पीके भूमिका निभाने नहीं जा रहे हैं? बिल्कुल वे ऐसा करने जा रहे हैं. मगर, कीमत बीजेपी को नहीं, कांग्रेस को चुकानी होगी- इसका वे पूरा इंतज़ाम करने में जुटे हैं.
वर्तमान सियासत में बीजेपी के मुकाबले वैकल्पिक चुंबकीय शक्ति कौन है, कहां है- इस पर सबकी नजर है. यह शक्ति बनने के लिए हर नेता और दल लालायित हैं.
स्वयं पीके ने कांग्रेस के बहुत करीब जाकर इस संभावना को टटोला. मगर, कांग्रेस यह चुंबकत्व कहीं और हस्तांतरित करने को तैयार नहीं दिखी. राजनीतिक रणनीतिकार के तौर पर खुद को स्थापित कर चुके पीके अब राजनीतिज्ञ के रूप में भी खुद को स्थापित करते हुए आगे बढ़ने की रणनीति बना रहे हैं.
‘सेकंड फ्रंट’ के लिए जमीन तैयार करने में जुटे हैं पीके
2019 के लोकसभा चुनाव नतीजों पर नजर डालें तो देश में सबसे ज्यादा वोट बीजेपी को 22.9 करोड़ मिले थे. दूसरे नंबर पर कांग्रेस रही जिसे 11.95 करोड़ वोट मिले. बाकी पांच राष्ट्रीय दलों को कुल मिलाकर 7 करोड़ वोट मिले थे- टीएमसी (2.49 करोड़), बीएसपी (2.22 करोड़), सीपीएम (1.07 करोड़), सीपीआई (35 लाख), एनसीपी (85 लाख). देश की क्षेत्रीय पार्टियों को कुल मिलाकर 14.15 करोड़ वोट मिले थे.
प्रशांत किशोर ने सेकंड फ्रंट की सोच रखी है. फिलहाल सेकंड फ्रंट कांग्रेस है जो यूपीए के तहत संगठित होकर भी संगठित नहीं है. सेकंड फ्रंट का मतलब है बीजेपी के मुकाबले सीधे एक ताकत बनना.
एक- बीजेपी के मुकाबले सेकंड फ्रंट बनना और
दूसरा- सेकंड फ्रंट बनी दिख रही कांग्रेस की जगह लेना.
भारतीय राजनीति में यह सवाल सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है कि प्रशांत किशोर का कदम बीजेपी के मुकाबले खड़ा होना है लेकिन क्या कांग्रेस की जगह पर खड़ा होना है?
पीके ने सबसे ज्यादा कांग्रेस का किया है नुकसान
प्रशांत किशोर ने अब तक चाहे जिस राष्ट्रीय या क्षेत्रीय पार्टी के लिए रणनीति बनायी है, खामियाजा कांग्रेस को ही भुगतना पड़ा है. रणनीतिकार के रूप में सारे तकनीकी, डिजिटल प्रचार-प्रसार का प्रयोग पीके ने नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री का उम्मीदवार बनाने से लेकर मोदी के नेतृत्व में बीजेपी की जीत सुनिश्चित करने तक किया. कांग्रेस सत्ता से बाहर हो गयी.
महागठबंधन की सोच लेकर बिहार में नीतीश-तेजस्वी की सरकार भी प्रशांत किशोर ने बनवायी. मगर, आखिरकार नीतीश कहां हैं?- बीजेपी के साथ. खुद पीके नीतीश की पार्टी में उपाध्यक्ष रह चुके हैं. मतभेद हुए तो नीतीश ने कहा कि अमित शाह के कहने पर उन्हें यह पद सौंपा था. 2017 में कैप्टन अमरिंदर सिंह को मुख्यमंत्री बना चुकी है पीके की रणनीति. मगर, आज कैप्टन अमरिंदर कहां हैं? वे भी बीजेपी के खेमे में जा चुके हैं.
पीके ने अरविंद केजरीवाल के लिए भी रणनीति बनायी. केजरीवाल की सियासत का आधार ही कांग्रेस को नुकसान पहुंचा कर आगे बढ़ने का रहा है. गोवा और उत्तराखण्ड में AAP ने कांग्रेस को सत्ता से दूर कर दिया और सबसे ज्यादा कांग्रेस को नुकसान पहुंचाया. इस काम में ममता बनर्जी ने भी समान रुख अपनाया. ममता को भी चुनावी रणनीति का मंत्र दे चुके हैं पीके. ममता भी मोदी विरोधी सियासत में कांग्रेस की जगह लेने को वैसे ही बेताब हैं जैसे खुद पीके नज़र आते हैं.
जगन रेड्डी, केसीआर जिस किसी ने भी पीके का सहयोग लिया, उनकी राह कांग्रेस से दूर हुई. उद्धव ठाकरे अपवाद इसलिए हैं क्योंकि उन्हें कांग्रेस का सहयोग चाहिए न कि कांग्रेस को. यही बात तमिलनाडु में स्टालिन पर भी लागू होती है.
प्रशांत किशोर कांग्रेस से लड़ते हुए दिखना नहीं चाहते. मगर, बगैर लड़े ही उनकी नजर कांग्रेस की ताकत पर है. वे कांग्रेस की ताकत से खुद को सियासी रूप में मजबूत करने की राह तलाश रहे हैं. ऐसा करते हुए राजनीतिक चुम्बकत्व पीके हासिल करेंगे और फिर राष्ट्रीय स्तर पर विकल्प बनने की उनकी महत्वाकांक्षा को पंख लगेंगे.
बिहार में कांग्रेस को दी गयी सलाह पर खुद अमल करेंगे पीके?
बिहार में प्रशांत किशोर ने कांग्रेस को सलाह दी थी कि उसे अपने दम पर अगला विधानसभा चुनाव लड़ना चाहिए. उनकी नजर दो तरह के वोटबैंक पर रही है –
एक वोट बैंक जो बीजेपी-जेडीयू से नाराज है लेकिन आरजेडी के साथ नहीं जाना चाहता. जैसे, भूमिहार. (हाल के दिनों में विधानपरिषद चुनाव में आरजेडी ने इस जाति को लुभाने की पूरी कोशिश की है.)
दूसरा वोट बैंक है जो आरजेडी से नाराज है लेकिन जिन्हें बीजेपी-जेडीयू के पास जाने से परहेज है. इनमें लोकजन शक्ति पार्टी का जनाधार भी है, दलित भी हैं और मल्लाह जैसी जातियां भी हैं जो ढुलमुल हैं. लोकजनशक्ति पार्टी के विभाजित होने के बाद चिराग पासवान का बीजेपी से मोहभंग हो चुका है. इस स्थिति का फायदा भी पीके ले सकते हैं.
पीके बिहार में कांग्रेस को सुझायी गयी अपनी रणनीति पर खुद अमल करने में जुटे हैं. इस कोशिश से सबसे ज्यादा नुकसान कांग्रेस को ही होगा क्योंकि एनडीए और महागठबंधन दोनों तरह के वोटबैंक में सेंधमारी कांग्रेस जनाधार पर चोट करके ही हो सकेगी. बिहार में वोट के ख्याल से कांग्रेस आरजेडी, बीजेपी और जेडीयू के बाद चौथे नंबर पर है.
2020 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को 39 लाख 53 हजार 319 वोट मिले थे. बीजेपी को मिले 82 लाख 2 हज़ार 67 वोटों के मुकाबले यह आधे से थोड़ा कम है. वहीं, आरजेडी को मिले 97 लाख 38 हजार 855 वोटों के मुकाबले लगभग 40 फीसदी है. जेडीयू को 64 लाख 85 हजार 179 वोट मिले थे.
बिहार: प्रमुख राजनीतिक दलों को 2020 विधानसभा चुनाव में मिले वोट
आरजेडी- 97 लाख
बीजेपी- 82 लाख
जेडीयू- 65 लाख
कांग्रेस- 39 लाख
एलजेपी- 24 लाख
पीके का राजनीति में आना बीजेपी के लिए 2024 को देखते हुए कतई चिंताजनक नहीं है. 2024 तक पीके जो कुछ सियासी कसरत करते हैं उसका असर कांग्रेस की सेहत पर पड़ेगा. चूकि प्रशांत का राजनीतिक दल शुरू करने की पहल वर्तमान में सत्तारूढ़ बीजेपी के विरोध में दिखता है इसलिए बीजेपी औपचारिक रूप से प्रशांत किशोर के राजनीतिक अस्तित्व को नकारने मे लगी है. मगर, कांग्रेस अगर प्रशांत किशोर के लिए सॉफ्ट होती है तो वह नासमझी ही कही जाएगी.
प्रशांत किशोर देश की हर राजनीतिक पार्टी के करीब रहे हैं. वे अच्छे समन्वयक हो सकते हैं, सूत्रधार हो सकते हैं और सबको एकजुट सियासत का मंत्र भी दे सकते हैं. मगर, राजनीतिक रूप से खुद प्रशांत किशोर सफल तभी होंगे जब अपनी सियासत में चुंबकत्व पैदा कर पाएंगे. बिहार से ऐसा करना आसान तो कतई नहीं है. एक बार जेडीयू में रहकर कोशिश कर चुके हैं प्रशांत. फिर भी प्रशांत की पहल पर देश की नजर है.
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