द्रौपदी मुर्मू (Droupadi Murmu) भारत की पहली आदिवासी राष्ट्रपति बन गई हैं. वो आजाद भारत की 15वीं राष्ट्रपति बनीं हैं. देश के सर्वोच्च संवैधानिक पद पर बैठने वाले राष्ट्रपति देश के मुखिया होते हैं, जो सरकार के साथ मिलकर काम करते हैं, लेकिन अगर इतिहास के पन्ने पलटें तो कई ऐसे मौके भी आए जब केंद्र सरकार के फैसलों के खिलाफ जाकर राष्ट्रपति ने अपनी राय रखी है.
1.जवाहर लाल नेहरू-राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद
देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू और राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद के बीच असहमति की चर्चा इतिहास के पन्नों में दर्ज है. 50 के दशक में सोमनाथ मंदिर के एक कार्यक्रम के लिए राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद को बुलाया गया था, लेकिन नेहरू को देश के राष्ट्रपति का ऐसे धार्मिक कार्यक्रम में हिस्सा लेना पसंद नहीं था.
उनका कहना था कि भारत धर्मनिरपेक्ष देश है, ऐसे में राष्ट्रपति अगर ऐसे कार्यक्रम में हिस्सा लेंगे तो गलत संदेश जाएगा. लेकिन नेहरू की बात को अनदेखा करके राजेंद्र प्रसाद ने उस कार्यक्रम में हिस्सा लिया था. राजेंद्र प्रसाद ने नेहरू को जवाब देते हुए कहा था मैं अपने धर्म में विश्वास करता हूं, और खुद को इससे अलग नहीं कर सकता.
कहा जाता है कि राजेंद्र प्रसाद से नेहरू इतने खफा हुए थे कि उन्होंने सूचना मंत्रालय को निर्देश दिए थे कि इस मौके पर राजेंद्र प्रसाद के दिए भाषण को सरकारी माध्यमों में ना कवर किया जाए.
आजाद भारत के इतिहास में प्रधानमंंत्री और राष्ट्रपति के बीच मतभेद का ये पहला मामला कहा जाता है.
2.जवाहर लाल नेहरू- सर्वपल्ली राधाकृष्णन
1962 से 1967 तक देश के राष्ट्रपति रहे सर्वपल्ली राधाकृष्णन नेहरू सरकार की आलोचना करने से भी नहीं कतराते थे. चीन से भारत की हार पर उन्होंने सरकार की नीतियों के फेल होने पर चिंता जताई थी. उन्होंने सरकार को हार के लिए जिम्मेदार ठहराया था. वहीं महंगाई को लेकर भी वो सरकार को सलाह देने से नहीं हिचकते थे.
3. इंदिरा गांधी-ज्ञानी जैल सिंह के रिश्ते में खटास
भारत के सांतवें राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह के वैसे तो इंदिरा गांधी से काफी अच्छे संबंध थे, लेकिन ऑपरेशन ब्लू स्टार के बाद सबकुछ बदल गया. इंदिरा गांधी 31 मई, 1984 को ज्ञानी जैल सिंह से मिलने पहुंचीं और अगले ही दिन ऑपरेशन ब्लू स्टार हुआ. राष्ट्रपति तीनों सेनाओं का कमांडर होता है, लेकिन ज्ञानी जैल सिंह को इसकी भनक भी नहीं लग पाई कि सेना बिना उनको बताए इतना बड़ा ऑपरेशन लॉन्च कर रही है.
राष्ट्रपति को जबतक खबर लगी काफी कुछ बदल चुका था, इसके बाद ज्ञानी जैल सिंह इस बात पर अड़ गए कि वो या तो अपने पद से इस्तीफा देंगे या स्वर्ण मंदिर जाएंगे. आखिरकार 4 दिन के बाद ज्ञानी जैल सिंह गोलियों की बौछार के बीच स्वर्ण मंदिर गए, उस दौरान फायरिंग में उनके एक सुरक्षा कर्मी की भी गोली लगने से मौत हो गई.
कहा जाता है कि इस घटना के बाद ज्ञानी जैल और इंंदिरा गांधी के बीच तल्खियां आ गईं. 31 अक्टूबर 1984 को वो दिन था, जब देश की प्रधानमंत्री की उनके ही अंगरक्षकों ने गोली मारकर हत्या कर दी और सबकुछ बदल गया.
4.राजीव गांधी-ज्ञानी जैल सिंह के रिश्ते बिगड़े
इंदिरा गांधी की हत्या के बाद ज्ञानी जैल सिंह ने राजीव गांधी को देश के नए प्रधानमंत्री पद की शपथ दिलाई. शपथ ग्रहण के कुछ घंटों के बाद ही सिक्ख विरोधी दंगे भड़क गए. राष्ट्रपति के पास लगातार फोन आ रहे थे, वो बेचैन थे और बार-बार प्रधानमंत्री को फोन कर रहे थे, लेकिन उनको कोई जवाब नहीं मिल रहा था.
ज्ञानी जैल सिंह पर इस्तीफे का दबाव भी बढ़ रहा था, लेकिन दोस्तों की सलाह पर वो पद पर बने रहे, लेकिन राजीव गांधी सरकार से उनकी दूरियां बढ़ती गईं. ज्ञानी जैल सिंह ने राजीव गांधी पर उनके फोन टैपिंग का भी आरोप लगाया था.
6.जब के आर नारायणन ने दिखाई अपनी पावर
उत्तर प्रदेश में 1997 में मुलायम सिंह यादव के दबाव में उस वक्त के प्रधानमंत्री इंद्र कुमार गुजराल ने राष्ट्रपति को यूपी में राष्ट्रपति शासन लगाने की चिट्ठी लिखी, जबकि भारतीय जनता पार्टी के पास बहुमत था, नारायणन राष्ट्रपति की शक्तियों का इस्तेमाल करते हुए उस प्रस्ताव को वापस भेज दिया.
दूसरा मामला 1999 का है, जब एनडीए की सहयोगी नीतीश की पार्टी की मांग पर अटल सरकार ने बिहार की राबड़ी देवी सरकार को बर्खास्त करने और राष्ट्रपति शासन लगाने की मांग की उस वक्त भी नारायणन ने प्रस्ताव को पुनर्विचार के लिए वापस भेज दिया और बिहार में राष्ट्रपति शासन नहीं लगाया गया.
7.प्रणब मुखर्जी ने खुलकर रखी अपनी राय
देश के 13वें राष्ट्रपति रहे प्रणब मुखर्जी बेबाकी से अपनी राय रखने के लिए जाने जाते हैं. कानून बनाने के लिए ताबड़तोड़ अध्यादेश लाने की वजह से एनडीए सरकार की खिंचाई करना हो या, 2015 में दादरी लिंचिंग की वजह से भारत में पैदा हुए असहिष्णुता के माहौल पर उन्होंने अपनी राय रखी.
संसदीय कार्यवाही को बाधित करने के लिए विपक्ष की आलोचना करने और कई मौकों पर मुखर्जी ने अपने मन की बात कही. इसके साथ ही असहिष्णुता और भीड़ के उन्माद के खिलाफ देश के संवैधानिक मूल्यों की समावेशिता और विविधता की रक्षा करने की जरूरत पर बार-बार जोर दिया.
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