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भगवंत मान की चूक और राधव चड्ढा का उदय : AAP ने पंजाब को गलत पढ़ा, इसके 3 उदाहरण

Punjab में ऐसा प्रतीत हो रहा है जैसे कि AAP अपनी राष्ट्रीय महत्वाकांक्षाओं को लोकप्रिय भावनाओं से आगे रख रही है.

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पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत मान को पिछले एक सप्ताह में दो मामलों में कड़ी आलोचना का सामना करना पड़ा है. पहला मुद्दा हरियाणा के साथ चंडीगढ़ विवाद पर उनके रुख का रहा तो वहीं दूसरा मामला पंजाब के राज्यसभा सांसद और दिल्ली के पूर्व विधायक राघव चड्ढा को पंजाब सरकार की सलाहकार परिषद का प्रमुख बनाने का था.

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मान के आलोचकों द्वारा दोनों ही मामलों में यह बात कही जा रही है कि वे (भगवंत मान) ऐसे मुख्यमंत्री हैं, जिन्हें दिल्ली से आम आदमी पार्टी के नेतृत्व द्वारा रिमोट कंट्रोल्ड किया जा रहा है.

इस बीच प्रदर्शनकारियों के विरोध के सामने झुकने और लुधियाना के पास मत्तेवाड़ा जंगल में कैप्टन अमरिंदर सिंह के शासन द्वारा स्वीकृत टेक्सटाइल पार्क परियोजना को रद्द करने के लिए कुछ प्रशंसा मिली.

हालांकि अन्य दो घटनाक्रमों पर जो वाक युद्ध हुआ उससे यह प्रशंसा कहीं दब गई. आइए पहले इन दोनों घटनाक्रमों को देखें और इस बात की पड़ताल करें कि पंजाब में AAP के संकट के तीन कारण क्या हैं.

राघव चड्ढा की नियुक्ति

पंजाब सरकार ने 11 जुलाई को राज्यसभा सांसद राघव चड्ढा को "सार्वजनिक महत्व के मामलों" पर सरकार का मार्गदर्शन करने के लिए एक अस्थायी सलाहकार समिति के अध्यक्ष के तौर पर नियुक्त किया है.

विपक्ष द्वारा सरकार के इस कदम की तीखी आलोचना की गई है. विपक्ष के नेता प्रताप सिंह बाजवा ने चड्ढा की तुलना औपनिवेशिक शासकों द्वारा पंजाब पर लगाए गए ब्रिटिश रेजिडेंट से की है. उन्होंने अपने ट्वीट में भगवंत मान को 'शो-पीस सीएम', चड्ढा को 'वर्किंग सीएम' और AAP के संयोजक अरविंद केजरीवाल को पंजाब का 'सुपर सीएम' बताया.

पंजाब कांग्रेस के प्रमुख अमरिंदर सिंह राजा वारिंग ने कहा है कि चड्ढा को अध्यक्ष नियुक्त करना उन्हें पंजाब का मुख्यमंत्री बनाने के समान है. उन्होंने कहा "यह वह बदलाव नहीं है जिसके लिए पंजाब ने वोट किया था." वहीं वारिंग के पार्टी सहयोगी और जालंधर छावनी के विधायक परगट सिंह ने चड्ढा को "पंजाब का नया सूबेदार" कहा है.

कांग्रेस विधायक सुखपाल सिंह खैरा जो पहले आम आदमी पार्टी से जुड़े थे, उन्होंने मान पर "पंजाब के पर कतरने" और अपने ही कैबिनेट मंत्रियों का "अपमान" करने का आरोप लगाया है.

उसी दौरान, हरपाल चीमा और अमन अरोड़ा जैसे पंजाब के मंत्रियों ने चड्ढा की नियुक्ति की सराहना और उनकी प्रशंसा करते हुए ट्वीट किए हैं.

चंडीगढ़ पर भगवंत मान की गलती

चड्ढा की नियुक्ति के विवाद से कुछ दिन पहले भगवंत मान अपने एक ट्वीट को लेकर मुश्किल में पड़ गए थे. उस ट्वीट में मान ने नरेंद्र मोदी सरकार के चंडीगढ़ में एक नई राज्य विधानसभा के निर्माण के लिए जमीन आवंटित करने के फैसले पर प्रतिक्रिया व्यक्त की थी.

मान ने अपने ट्वीट में कहा कि पंजाब को भी इसी उद्देश्य के लिए चंडीगढ़ में जमीन आवंटित की जानी चाहिए.

विपक्षी पार्टियों के साथ-साथ स्वतंत्र पर्यवेक्षकों का कहना है कि मान के ट्वीट से ऐसा लगता है जैसे कि चंडीगढ़ के पूरे क्षेत्र से पंजाब के दावे का त्याग कर दिया गया है.

लगातार पंजाब ने यह दावा किया है कि चंडीगढ़ को शुरू में केवल कुछ वर्षों के लिए हरियाणा की राजधानी रहना चाहिए था और इसे पूरी तरह से पंजाब को सौंप दिया जाना था.

प्रताप बाजवा द्वारा मान पर "चंडीगढ़ के स्थायी नुकसान को सुनिश्चित करने" का आरोप लगाया गया है.

उन्होंने कहा "ऐसा प्रतीत होता है कि भगवंत मान ने अपना ट्विटर अकाउंट दिल्ली को आउटसोर्स कर दिया है, क्योंकि उनके ट्वीट का मसौदा तैयार करने वाले लोग चंडीगढ़ पर पंजाब की स्थिति को समझने के लिए बाहरी (पंजाब से बाहर के) प्रतीत होते हैं."

शिरोमणि अकाली दल (बादल) के अध्यक्ष सुखबीर सिंह बादल ने मान से अपना बयान वापस लेने की मांग की है. इसके साथ ही यह संकेत दिया है कि अगर वह (मान) ऐसा नहीं करते हैं तो उनकी पार्टी आंदोलन शुरू कर सकती है.

हालांकि, चड्ढा की नियुक्ति के उलट चंडीगढ़ पर मान के रुख को लेकर उनके अपने कैबिनेट सदस्यों से समर्थन बहुत कम मिला है.

पंजाब सरकार के सूत्रों के अनुसार, चंडीगढ़ पर मान की स्थिति कैबिनेट के लिए पूरी तरह से अज्ञात थी.

पंजाब में AAP के एक पदाधिकारी ने खुलासा किया "यह AAP की पंजाब इकाई का स्टैंड नहीं हो सकता. हो सकता है यह केंद्रीय नेतृत्व की ओर से आया हो."

बेशक, इसका मतलब यह नहीं है कि आप अकेली ऐसी पार्टी है जिसने चंडीगढ़ के पंजाब के अधिकारों के साथ विश्वासघात किया है. कांग्रेस केंद्र में सत्ता में रही है और कई राष्ट्रीय (केंद्रीय) सरकारों में बादल सहयोगी रहे हैं, लेकिन उनमें से किसी ने भी चंडीगढ़ को पंजाब में स्थानांतरित करने का वादा पूरा नहीं किया.

दूसरी तरफ, मान का स्टैंड (स्थिति) इससे भी आगे जाता है क्योंकि वे जो मांग कर रहे हैं उसका मतलब यह निकल रहा है कि वे चंडीगढ़ पर यथास्थिति को स्वीकार कर रहे हैं.

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बड़ी तस्वीर : AAP की संकट भरी स्थिति के 3 कारण 

चड्ढा की नियुक्ति और चंडीगढ़ को लेकर भगवंत मान का स्टैंड, दोनों पर ही विपक्ष की आलोचना इस नैरेटिव के साथ आगे बढ़ रही है कि पंजाब के सीएम को AAP के केंद्रीय नेतृत्व (मुख्यत: अरविंद केजरीवाल और राघव चड्ढा) द्वारा दिल्ली से रिमोट कंट्रोल किया जा रहा है.

इसमें कोई शक नहीं, इसमें कुछ सच्चाई है लेकिन यहां पर बारीकियों (नाजुक सा अंतर) की जरूरत है.

उदाहरण के लिए, ऐसा नहीं है कि दिल्ली के अधीन रहने वाले मान पहले सीएम हैं.

मुख्यमंत्री के तौर पर कैप्टन अमरिंदर सिंह ने अपने पहले कार्यकाल (2002-2007) के दौरान भले ही SYL मुद्दे पर स्वतंत्र रुख अपनाया हो, लेकिन अपने नये कार्यकाल (2017-2021) में उन्हें गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम के तहत की गई गिरफ्तारी सहित कई मुद्दों पर भारतीय जनता पार्टी (BJP) के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार के करीबी के तौर पर देखा गया.

अकाली दल द्वारा आनंदपुर साहिब संकल्प में जिन मुद्दों की मांग की गई थी उनमें से कईयों को प्रकाश सिंह बादल ने बतौर मुख्यमंत्री छोड़ दिया था. मानवाधिकारों का उल्लंघन करने वाले आरोपियों को सजा नहीं मिली जबकि बादल सरकार के दौरान उन्हें उच्च पदों पर बैठाया गया.

कुछ समय पहले ही में कांग्रेस के चरणजीत चन्नी को नियुक्तियों सहित प्रमुख मामलों पर कांग्रेस नेतृत्व के साथ चर्चा करने के लिए दिल्ली रवाना होते हुए देखा जाता था.

हालांकि कंप्रोमाइज होने के बावजूद कप्तान, बादल और यहां तक ​​कि चन्नी भी कम से कम केंद्र सरकार के खिलाफ तेवर तो दिखा सकते थे. कैप्टन तो अपनी पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व के खिलाफ खड़े हो सकते थे.

लेकिन AAP के मामले में तीन ऐसे पहलू (आप की राष्ट्रीय विस्तार योजनाएं, भगवंत मान की खुद की पर्सनैलिटी और अपने स्वयं के जनादेश की गलत व्याख्या करना) हैं जो इसे इस तरह का स्टैंड लेने से रोकते हैं और "दिल्ली से कंट्रोल" होने वाले नैरेटिव को थोड़ सा और साफ करते हैं.

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1. AAP की राष्ट्रीय विस्तार योजनाएं

आम आदमी पार्टी एक असमंजस भरी स्थिति में है, क्योंकि AAP न तो शिरोमणि अकाली दल जैसी पूरी तरह से पंजाब पर केंद्रित पार्टी है और न ही न ही कांग्रेस जैसी पूर्ण रूप से राष्ट्रीय पार्टी है.

बादल पंजाब केंद्रित और सिख केंद्रित तेवर अपना सकते थे, क्योंकि राष्ट्रीय स्तर पर विस्तार करने की उनकी कोई महत्वाकांक्षा नहीं थी. वहीं दूसरी ओर कैप्टन (2002-2007 के बीच) के नेतृत्व में कांग्रेस भी बिना किसी लेबल के इसी तरह का स्टैंड ले सकती थी, क्योंकि उस समय कई राज्यों में उसकी सरकारे थीं और देश में मजबूत उपस्थिति थी.

वहीं अगर आम आदमी पार्टी की बात करें तो यह पार्टी वर्तमान में केवल दिल्ली और पंजाब की सत्ता में है और यह राष्ट्रीय स्तर पर विस्तार करना चाहती है.

पंजाब की सत्ता पर काबिज होने के नाते इस संबंध में पार्टी को थोड़ी समस्या हो सकती है.

हावी भावना (dominant sentiment) पंजाब में लगातार बहुसंख्यक राष्ट्रवाद और मजबूत केंद्र के खिलाफ रही है. ये ऐसे ट्रेंड हैं जो वर्तमान में राष्ट्रीय स्तर पर बढ़ रहे हैं और AAP का दृष्टिकोण इन ट्रेंड्स पर चुप रहने का रहा है ताकि उन वर्गों को जीतने की कोशिश की जा सके जो इनका समर्थन कर सकते हैं.

चंडीगढ़ विवाद केंद्र-राज्य के बीच का एक अहम मुद्दा है. पंजाब के समर्थन में एक स्पष्ट स्टैंड ने हरियाणा में AAP के विस्तार को गंभीर तौर पर नुकसान पहुंचाया होगा.

इसके अलावा यह AAP को केंद्र के साथ सीधे टकराव के ढर्रे पर ले जाता है, जिससे पार्टी बचने की कोशिश करती है.

अपनी ओर से बीजेपी यह धारणा बनाने की कोशिश कर रही है कि पंजाब की सत्ता में AAP के आने के परिणामस्वरूप खालिस्तान समर्थक ताकतें अधिक शक्तिशाली हो गई हैं. "हिंदू विरोधी" या "राष्ट्र विरोधी मुख्यधारा" के तौर पर AAP को पेश करना और पंजाब तक इसे सीमित रखने का विचार है. इस नैरेटिव को पार्टी (AAP) चुनावी राज्य हिमाचल प्रदेश में सक्रिय तौर पर आगे बढ़ा रही है.
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भले ही इसका मतलब पंजाब में आलोचना का सामना करना पड़े लेकिन AAP उस लेबल से बचना चाहती है. सीधे शब्दों में कहें तो ऐसा प्रतीत हो रहा है कि पंजाब में आम आदमी पार्टी अपने राष्ट्रीय विस्तार को भावनाओं से आगे रख रही है.

चड्ढा को एक प्रमुख सलाहकार भूमिका में रखने को इस प्रक्रिया के हिस्से के रूप में देखा जाना चाहिए. यह कदम AAP की प्रमुख नीतियों के बेहतर कार्यान्वयन को सुनिश्चित करने के साथ-साथ राष्ट्रीय स्तर पर पार्टी के लिए शर्मनाक या अपमानजनक हो सकने वाली किसी भी चीज को रोकने के लिए है.

आम आदमी पार्टी पंजाब को एक मॉडल स्टेट के तौर पर पेश करना चाहती है, लेकिन केवल उन्हीं पैरामीटर्स पर जिन्हें पार्टी महत्वपूर्ण मानती है, जरूरी नहीं कि वे पैरामीटर आम जनता के लिए सबसे ज्यादा मायने रखते हों.

2. भगवंत मान की पर्सनैलिटी

पंजाब में व्यवस्था के बारे में लोग अक्सर एक धारणा बनाते हैं कि भगवंत मान का उस (व्यवस्था) पर कोई प्रभाव नहीं है, वहां व्यवस्था पूरी तरह से आम आदमी पार्टी के राष्ट्रीय नेतृत्व के कमांड की वजह से है.

जो लोग मान के साथ काफी नजदीकी से काम करते है उनका कहना है कि मान पूरी प्रक्रिया में एक इच्छुक या राजी रहने वाले भागीदार हैं.

आप के एक वरिष्ठ पदाधिकारी का कहना है कि "अरविंद केजरीवाल के प्रति वह (मान) खुद को वास्तव में अनुग्रहीत महसूस करते है. मान को ऐसा लगता है कि केजरीवाल के कारण उन्हें जीवन में एक नया उद्देश्य और एक नई पहचान (एक राजनेता के तौर पर) मिली है. यही बात इन दोनों के बीच के समीकरण को आकार देती है."

पंजाब में मान के साथ नजदीकी से काम करने वाले इस बात से सहमत हैं. वे मान की एक तस्वीर का उदाहरण देते हैं, वही तस्वीर जो संगरूर उपचुनाव कैंपेन के दौरान वायरल हुई थी और जिससे पार्टी को नुकसान हुआ था.

संगरूर में भगवंत मान और केजरीवाल के रोड शो के दौरान, पंजाब के सीएम को कार के किनारे लटके हुआ देखा गया था, जबकि केजरीवाल उस वाहन पर खड़े थे और हाथ हिला कर भीड़ का अभिवादन कर रहे थे. इस दृश्य ने मान को एक अधीन के तौर पर दिखाया.

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संगरूर कैंपेन में शामिल पार्टी के एक पदाधिकारी ने कहा "केजरीवाल ने भगवंत मान को इस तरफ जाने के लिए नहीं कहा था, यह जो भी था वह पूरी तरह से भगवंत मान का इनिशिएटिव था. संगरूर उनका (मान का) घर है और वहां वे अनौपचारिक हो जाते हैं. शायद वे लोगों के करीब रहना चाहते थे और सामान्यत: वे इस बात से खुश थे कि केजरीवाल वहां कैंपेनिंग कर रहे थे."

हालांकि पदाधिकारी ने इस बात को स्वीकार किया कि "यह जानबूझकर नहीं था, लेकिन यह एक गलती थी. इसमें कोई संदेह नहीं कि इस तस्वीर ने एक गलत मैसेज दिया."

इस दृश्य से फायदा सिमरनजीत सिंह मान को हुआ, जिसका पूरा फलक एक ऐसे सिख नेता होने का था जो किसी के सामने नहीं झुकता.

सिमरनजीत सिंह मान ने भगवंत मान द्वारा खास तौर पर चुने गए प्रत्याशी को 5,822 मतों से हराया. सिमरनजीत ने सीएम के गृहक्षेत्र में आम आदमी पार्टी को शिकस्त दी. पंजाब में लोकसभा और विधानसभा उपचुनावों में सत्तारूढ़ दलों का स्ट्राइक रेट करीब 90 फीसदी है. संगरूर की हार से AAP को काफी शर्मिंदगी उठानी पड़ी थी.

3. जनादेश को ठीक से नहीं पढ़ना

पंजाब में AAP के संकट के जड़ या केंद्र पर गौर तो वह यह है कि पार्टी वहां खुद को मिले मौलिक जनादेश को ठीक से समझ नहीं पायी. पार्टी ने उस मौलिक जनादेश की गलत व्याख्या की.

ऐसा लगता है कि विधानसभा चुनावों में 117 में से 92 सीटों पर भारी भरकम जीत हासिल करने के बाद आम आदमी पार्टी को यह विश्वास हो गया कि यह फैसला (जनादेश) पंजाब के लोगों का एक कार्टे ब्लैंच/ खुला समर्थन था और वह (AAP पार्टी) बिजली, शिक्षा और स्वास्थ्य के अपने मुख्य प्राथमिकता वाले क्षेत्रों पर ध्यान केंद्रित करके, भ्रष्टाचार पर कुछ कार्रवाई करके एवं अपनी पीआर मशीनरी के जरिए इन सभी मुद्दों को प्रचारित करके राज्य पर शासन कर सकती है.

पार्टी यह समझने में विफल रही कि पंजाब की चुनौतियां इससे कहीं अधिक गहरी, पुरानी और जटिल हैं. आम आदमी पार्टी में जो लोग इन मुद्दों से वाकिफ थे, वे भी यह महसूस किए बिना कि अनसुलझे मुद्दे शायद ही कभी हल होते हैं, यह मानने लगे थे कि पंजाब इन चिंताओं से आगे निकल गया है.

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सच्चाई यह है कि AAP का जनादेश उसकी राजनीति का सबूत नहीं था, बल्कि विशुद्ध रूप से ऐसा इसलिए देखने को मिला क्योंकि AAP को कांग्रेस, अकालियों, कप्तान और बीजेपी की तुलना में कम बुरे के तौर पर देखा गया था. इसके अलावा न तो कृषि संघ और न ही पंथिक पार्टियां एक संगठित विकल्प पेश कर सकते थे.

पार्टी ने यह समझने की गलती कर दी कि वह दिल्ली गर्वनेंस मॉडल के आधार पर पंजाब में शासन कर सकती है. जो (दिल्ली) पंजाब की तरह आर्थिक, सुरक्षा या सामाजिक चुनौतियों का सामना नहीं करती है.

जिस तरह से AAP ने दिखाया कि कैसे उसने कई व्यक्तियों की सुरक्षा को वापस ले लिया या डाउनग्रेड (ऐसा काम जिसकी वजह से सिंगर सिद्धू मूसे वाला की हत्या हो सकती है) कर दिया, इन सबने पंजाब में दिल्ली मॉडल की विसंगति को अच्छी तरह से उजागर किया.

मूसे वाला की हत्या के बाद जो भावना लोगों में उमड़ी होगी उसने भी AAP की हार और संगरूर में सिमरनजीत सिंह मान के पुनरुद्धार में मदद की होगी.

दुर्भाग्य से, चंडीगढ़ पर अपने अडिग स्टैंड के साथ ही साथ अब राघव चड्ढा को एक पावर सेंटर के तौर पर कद बढ़ाते हुए आम आदमी पार्टी लगातार पंजाब में भावनाओं की अनदेखी करती आ रही है.

आम आदमी पार्टी ने संगरूर की हार से कोई सबक नहीं लिया. अभी भी पार्टी नेतृत्व इस बात को खारिज करता है कि यह हार मूसे वाला की हत्या पर "भावनात्मक प्रतिक्रिया" के तौर पर हुई है. अभी भी पार्टी (AAP) पंजाब में अपने राष्ट्रीय विस्तार को भावनाओं से आगे रखकर चल रही है.

दिक्कत यह है कि राष्ट्रीय दृष्टिकोण से भी यह स्मार्ट राजनीति नहीं है. दिल्ली नहीं यह पंजाब है, इकलौता ऐसा राज्य जिसने पिछले दो आम चुनावों में आम आदमी पार्टी को राष्ट्रीय स्तर पर मौका देने की इच्छा दिखाई है.

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