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AAP का उभार,कांग्रेस की एंटी इनकंबेंसी व अकाली का काडर बेस,पंजाब का दांव किस पर?

Punjab Assembly Election 2022: पंजाब के मतदाता के दिल में दबी खामोशी सियासी तस्वीर को उलट पलटने की क्षमता रखती है.

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Punjab Assembly Election 2022: पंजाब विधानसभा चुनाव के मतदान का दिन आ पहुंचा है. सियासी जानकारों द्वारा पंजाब के चुनावी विश्लेषण का दौर भी शुरू हो गया है. पंजाब के वोटर्स का मन भांपना कभी आसान नहीं रहा है. यहां का मतदाता अपने मन की बात खामोशी से दबाए रहता है, पर उसके दिल में दबी यह खामोशी राज्य की सियासी तस्वीर को उलट पलटने की पर्याप्त क्षमता रखती है.

पंजाब के चुनावों की तासीर हिन्दी पट्टी के बाकी राज्यों से सदा जुदा ही रही है. इस जुदा पंजाबियत वाले असेंबली चुनावाें का एक राजनैतिक अध्ययन हमने आपके समक्ष रखने की कोशिश की है, जिससे आप इस राज्य के वोटिंग पैटर्न और यहां पार्टियों की जीत हार की स्थिति का अंदाजा लगाते हुए यह समझ जाएंगे कि पंजाब का दांव इस बार किस पर है.

अंचल अनुसार विश्लेषण

पंजाब को प्रमुख तौर पर तीन अंचलों में बांटा जाता है. मालवा, माझा और दोआबा. इन तीनों ही अंचल के विश्लेषण में अगर किसी पार्टी को झटका लगने की बात सामने आती है तो वह कांग्रेस ही है.

चुनाव के तीन-चार महीने पहले से चले आ रहे विवादों और टिकट बंटवारे की कलह ने इस पार्टी के चुनाव कैंपेन को नुकसान पहुंचाया है. यहां हम जानते हैं कि किस अंचल में किस पार्टी की कैसी है स्थिति-

मालवा अंचल

राज्य की कुल 117 सीटों में से 69 सीटें मालवा में हैं और इस मालवा को ही पंजाब की सत्ता की कुर्सी कहा जाता है. इस रीजन के जो प्रमुख जिले हैं, उनमें पटियाला, फिरोजपुर, बरनाला, लुधियाना, फतेहगढ़ साहिब, बठिंडा, फरीदकोट, मोगा, संगरूर, मोहाली, रोपड़, मुक्तसर, फाजिल्का, मानसा आदि शामिल हैं. पिछले चुनाव में सरकार बनाने वाली कांग्रेस ने इस रीजन से 40 सीटें जीती थी.

मगर इस बार वह इस रीजन से पहले की तरह फाइट में नहीं दिख रही है. यहां आम आदमी पार्टी को मजबूत कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी. जब इस रिपाेर्ट के लिए पंजाब चुनाव को करीब से कवर कर रहे जर्नलिस्ट और चुनाव जानकारों से बात की गई तो मालवा में इस बार केजरीवाल की पार्टी AAP के तुलनात्मक तौर पर मजबूत होने की बात सामने आई.
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मालवा की 69 सीटों में से AAP 20 से 26 सीटों पर मजबूत दिख रही है. इसके अलावा कांग्रेस 12 से 18 अकाली दल 13 से 17 और बीजेपी व सहयोगी 6 सीटों पर मजबूत दिख रहे हैं. मालवा रीजन में अकाली नेटवर्क हमेशा से मजबूत रहा है, पर वह वोटों में कितना कन्वर्ट हो पाएगा इसमें संशय है .

किसानों का वोट बैंक मालवा रीजन में प्रभावी माना जाता है और इस बार किसान आंदोलन के चलते इस वोट बैंक का ध्रुवीकरण भी हुआ है. किसान संगठन मिलकर संयुक्त समाज मोर्चा के बैनर तले चुनाव लड़ रहे हैं तो वे इस रीजन की कुछ एक महत्वपूर्ण सीटों पर वोट काटने का काम कर सकते हैं. इनके वोट काटने से AAP, कांग्रेस, भाजपा या अकाली में से किसे फायदा, किसे नुकसान होगा यह तो चुनाव के परिणाम ही उजागर कर सकते हैं.

दोआबा क्षेत्र

पंजाब के दोआबा क्षेत्र में राज्य की 23 सीटें आती हैं. जालंधर, कपूरथला, होशियारपुर और नवांशहर (शहीद भगत सिंह नगर) जैसे जिले इस रीजन के प्रमुख हिस्से है. राज्य के चुनावी जानकारों से बात करने पर और यहां चुनावी समीकरण पर नजर डालने पर शिअद और कांग्रेस की स्थिति आस पास ही दिखती है.

अकाली 9 से 11 और कांग्रेस 08 से 10 तक सीटों पर इस अंचल से मजबूत दिखती हैं. 2017 के पिछले चुनाव में तो कांग्रेस इस अंचल की 23 में से 15 सीटें जीत गई थी, पर इस बार यहां कांग्रेस के प्रति वोटरों में नाराजगी नजर आती है.

इसके अलावा अभी की स्थिति अनुसार AAP के तीन और बीजेपी+सहयोगियों को भी यहां 2 से 3 सीटें पर जीतने के समीकरण बनते दिख रहे हैं. पिछले चुनाव में बीजेपी को यहां सिर्फ एक और अकालियों को 5 सीटें मिली थी. दोआबा का इलाका दलित वोटरों का गढ़ माना जाता है.

माझा अंचल

अब बात करें माझा अंचल की, तो यहां 25 सीटें आती हैं. तीन बड़े जिलों पठानकोट, गुरदासपुर व अमृतसर में इस अंचल की 21 सीटें आती हैं. इनमें से भी अमृतसर में कुल 11 विधानसभा सीटें आती हैं.

इसी जिले में वह अमृतसर ईस्ट सीट है जहां नवजोत सिंह सिद्धू और अकाली दल के बिक्रम सिंह मजीठिया के बीच बड़ा हाईप्रोफाइल चुनाव हो रहा है, जिसकी राज्य के साथ-साथ पूरे देश में चर्चा है. माझा अंचल में 2017 में कांग्रेस ने एक तरह से सूपड़ा साफ करते हुए 22 सीटें जीत ली थीं. पर इस बार ऐसा नहीं है, उसे यहां से AAP से तगड़ा मुकाबला मिल सकता है.

2017 के पिछले चुनावों में अकाली दल इस अंचल में बेहद कमजोर रहकर सिर्फ दो सीटें जीत सकी थी, पर इस बार कांग्रेस के कमजोर होने का लाभ अकाली दल को तरनतारन, गुरदासपुर और अमृतसर से मिल सकता है और उसकी सीटों में बढोतरी हो सकती है.

पिछले चुनाव की स्थिति

AAP चढ़ी, पर चुनौतियां बड़ी

पंजाब के चुनाव में सबसे ज्यादा चर्चा कांग्रेस और अकाली दल के बजाए तीसरे विकल्प की जरूरत पर होती रही है. इस मामले में आम आदमी पार्टी को यह राज्य मुफीद लग सकता है पर हाल ही में खड़ा हुआ अरविंद केजरीवाल के खालिस्तान समर्थक होने का आरोप इस पार्टी के लिए मुसीबत बन सकता है. एक तो केजरीवाल के पुराने साथी कुमार विश्वास ने इस मुद्दे को जोर-शोर से उठाया, दूसरा राज्य के एक प्रतिबंधित अलगाववादी संगठन एसएफजे ने AAP को वोट देने की अपील कर डाली.

इससे केजरीवाल की पार्टी के कैंपेन को झटका लग सकता है. हालांकि 5 साल पहले यहां हुए विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी ने 24% के लगभग वोट बैंक हासिल करके उम्मीद जगा दी थी.

पंजाब के आम वोटर के मन में बसी दोनों बड़ी पार्टियों के अलावा किसी अन्य को मौका देने की इच्छा AAP के लिए उम्मीद की किरण बन सकती है. एक और चीज AAP के खिलाफ जा सकती है. वोटर की भावना तो इस पार्टी के पक्ष में बन सकती है पर इस पार्टी के पास इलेक्शन मैनेज करने वाली किसी संगठित टीएम की कमी पूरे चुनाव कैंपेन के दौरान साफ नजर आती रही, कहीं वह AAP का कमजोर पक्ष न बन जाए.

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दलितों का वोट डिसाइडिंग फैक्टर

पंजाब के चुनाव में दलित आबादी के वोट का काफी महत्व होता है. इस राज्य में दलितों की आबादी 32 फ़ीसदी के आसपास है. इनमें से 40% हिंदू और 60% सिख हैं. शहीद भगत सिंह नगर, फरीदकोट, मुक्तसर साहिब और फिरोजपुर जैसे 4 जिलों में तो दलित आबादी का प्रतिशत 42 से भी ज्यादा है.

राज्य की कुल असेंबली सीटों में से 57 सीटें ऐसी हैं जिन पर दलित वोट बैंक जिताने-हराने की ताकत रखते हैं. इसी दलित वोट बैंक की ताकत देखते हुए कांग्रेस ने चन्नी को मुख्यमंत्री की कुर्सी दी है. पहले दलित कांग्रेस के वोट बैंक माने जाते थे पर अब इसमें आम आदमी पार्टी ने भी अपनी पैठ बना ली है.

दलित वोट बैंक की बात करें तो इसमें सबसे बड़ा समाज रविदासिया समाज है. मौजूदा मुख्यमंत्री चन्नी भी रविदासिया समाज के ही हैं. इसके बाद दलितों में बाल्मीकि, मजहबी सिख और भगत बिरादरी का हिस्सा आता है. दलित वोट बैंक पर पार्टियों की पकड़ बदलती रहती है. पिछले कुछ चुनावों के आंकड़ों पर गौर करें तो पता चलता है कि दलित वोट बैंक का रुझान अलग-अलग पार्टियों के लिए समय-समय पर बदलता रहा है.

राज्य की 117 विधानसभा सीटों में से 34 सीटें दलितों व पिछड़ों के लिए आरक्षित हैं. 2002 असेंबली चुनाव में कांग्रेस से 14 दलित प्रत्याशी जीतकर विधायक बने, जबकि इसी साल अकाली दल से 12 प्रत्याशी जीते. इसके बाद राज्य में 2007 के अगले चुनावों में दलितों का वोट अकाली दल के पक्ष में झुक गया और कुल आरक्षित सीटों में से 17 सीटों पर अकाली दल के दलित प्रत्याशी ने जीत दर्ज की, जबकि 3 सीटों पर भाजपा और कांग्रेस को केवल 7 सीटों पर विजय हासिल हुई.

2012 के विधानसभा चुनाव में फिर इस वोट बैंक पर अकाली ने प्रभाव जमा लिया और दलित प्रभाव वाली 21 सीटों पर पार्टी को जीत मिली जबकि कांग्रेस को केवल 10 सीटों पर ही जीत हासिल हुई. 2017 के चुनाव में दलित वोट पर अकाली पकड़ कमजोर हुई और इस बार 34 सुरक्षित सीटों में से कांग्रेस ने 21 सीटों पर जीत दर्ज की जबकि अकाली दल को दलित प्रभाव वाली केवल 3 सीटें मिली.

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