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राहुल गांधी की यात्रा, इलाहाबाद और ये इमोशनल कनेक्शन...

इलाहाबाद के कांग्रेसियों को उम्मीद, राहुल की मेहनत से फिर चमकेगी कांग्रेस.

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ये चुनाव कैंपेन इलाहाबाद से क्यों शुरू नहीं हो सकता था? इलेक्शन का कंट्रोल रूम आनंद भवन क्यों नहीं हो सकता?

इलाहाबाद के मशहूर कॉफी हाउस में फिल्टर कॉफी की चुस्कियों के साथ अभय भाई जज्बाती हुए जा रहे थे और मैं दिलचस्पी से उनकी दलीलें सुन रहा था. हमारी बातचीत का मुद्दा था राहुल गांधी का इलाहाबाद दौरा और 64 साल के खांटी कांग्रेसी अभय अवस्थी मुझे उस दौरे के अलग आयामों से रूबरू करवा रहे थे.

इलाहाबाद के कांग्रेसियों को उम्मीद, राहुल की मेहनत से फिर चमकेगी कांग्रेस.
वरिष्ठ कांग्रेस नेता अभय अवस्थी (फोटोः नीरज गुप्‍ता/TheQuint)

इन तमाम बातों के बाद मैं भला कैसे हजम करता कि इलाहाबाद राहुल गांधी की किसान यात्रा के टूर-प्लान का सिर्फ एक हिस्सा भर है.

यात्रा के दौरान हर रात किसी शहर के सर्किट हाउस में बिताने वाले राहुल 14 सितंबर की रात 10 बजकर 35 मिनट पर स्वराज भवन पहुंचे. ये वो इमारत है, जिसकी दीवारें राहुल गांधी के पारिवारिक रिश्तों की सफेदी से रंगी हैं. स्वराज भवन (पहले इसे आनंद भवन के नाम से जाना जाता था) में देश के पहले प्रधानमंत्री और राहुल के परनाना पंडित जवाहरलाल नेहरू का बचपन बीता. राहुल की दादी इंदिरा गांधी का जन्म भी यहीं हुआ था. आजादी की जंग के दौरान अंग्रेजों से लोहा लेने की सैकड़ों रणनीतियां इसी इमारत की चारदीवारी में बनीं.
इलाहाबाद के कांग्रेसियों को उम्मीद, राहुल की मेहनत से फिर चमकेगी कांग्रेस.
(फोटोः नीरज गुप्‍ता)

बात स्वतंत्रता संग्राम के दौरान ही खत्म हो गई होती, तो एक बात थी. आजादी के बाद भी करीब चालीस साल तक ये शहर कांग्रेस का गढ़ रहा. पंडित नेहरू ने अपने तमाम लोकसभा चुनाव इलाहाबाद से सटे फूलपुर से जीते. लेकिन पिछले तीन दशक से इलाहाबाद से कांग्रेस पार्टी का डिब्बा गुल है. कांग्रेस ने इलाहाबाद से अपना आखिरी सांसद सुपरस्टार अमिताभ बच्चन की शक्ल में देखा था और वो भी 1984 में.

इलाहाबाद की 12 विधानसभा सीटों में से 8 समाजवादी पार्टी के पास है, 3 बीएसपी के पास और महज एक सीट कांग्रेस के खाते में है. मुलायम सिंह यादव और मायावती की शक्ल में यूपी की राजनीति का केंद्र पूर्वी उत्तर प्रदेश से पश्चिमी उत्तर प्रदेश की तरफ सरक चुका है.

शहर के पुराने कांग्रेसियों में इस वजूद को गंवा देने की टीस साफ दिखती है.

पुराने कांग्रेसी अभय अवस्थी कहते हैं- पंडित नेहरू, लालबहादुर शास्त्री, इंदिरा गांधी, वीपी सिंह और चंद्रशेखर सरीखे प्रधानमंत्री देने वाला ये शहर पहले देश की राजनीति की अगुवाई किया करता था. लेकिन अब तो उत्तर प्रदेश की राजनीति में भी कोई इसका नामलेवा नहीं है.

वैसे उन्हें ये भी लगता है कि इलाहाबाद में चुनाव प्रचार राहुल के लिए भाग्यशाली साबित हो सकता है. इमरजेंसी के बाद हुई हार के बाद इंदिरा गांधी ने भी संगम की मिट्टी पर ‘देवराहा बाबा’ का आशीर्वाद लिया था और 1980 के चुनावों में जबरदस्त वापसी की थी.

लेकिन इन बातों में तर्क कम भावुकता ज्यादा है. कई शहरवासी ये भी मानते हैं कि इलाहाबाद में जो आलीशान छवि नेहरू-गांधी परिवार की रही, राहुल उस पर सौ फीसदी खरे नहीं उतरते. हालांकि फिर भी वो कोशिश करें, तो सिंकुड़ी हुई उन पुरानी जड़ों में फिर से पानी डाला जा सकता है.

राहुल गांधी भी कहीं न कहीं इस जज्बात को समझते हैं. तभी तो शहर के सिविल लाइंस इलाके की एक सभा में उन्होंने कहा- आज सुबह जब में स्वराज भवन के गार्डन में टहल रहा था, तो मुझे लग रहा था कि मैं अपने घर में हूं.  

लेकिन सच्चाई ये है कि राजनीति जज्बात से नहीं चलती. 2017 के चुनावों में अभी काफी वक्त है. राहुल गांधी का इलाहाबाद की सड़कों पर घूमना और उन्हें देखने के लिए लोगों के हुजूम का उमड़ना महज जिज्ञासा और मनोरंजन का विषय भी हो सकता है. इस भीड़ के वोटों में तब्दील होने की कोई गारंटी फिलहाल नहीं है.

इलाहाबाद के कांग्रेसियों को उम्मीद, राहुल की मेहनत से फिर चमकेगी कांग्रेस.
राहुल गांधी के लिए जनसभा को संबोधित करते कांग्रेसी नेता अभय अवस्थी (फोटोः NeerajGupta/TheQuint)

लिहाजा कांग्रेस पार्टी को अगर इलाहाबाद में अपना राजनीतिक वजूद दोबारा हासिल करना है, तो सिर्फ राहुल गांधी को नहीं, बल्कि उन भावुक कांग्रेसियों को भी कमर कसनी होगी, जो अब तक सिर्फ यादों के झरोखों में पार्टी का अक्स तलाश रहे हैं.

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