सुप्रीम कोर्ट ने कल शाम चार बजे कर्नाटक विधानसभा में शक्ति परीक्षण का फैसला दिया है. कर्नाटक में राजनीतिक गतिरोध पर सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद गवर्नर का वह फैसला बेअसर हो गया है., जिसमें उन्होंने सीएम बीएस येदियुरप्पा को राज्य में बहुमत साबित करने के लिए 15 दिन का वक्त दिया था. बीजेपी को दिया गया यह वक्त किसी भी लिहाज से काफी ज्यादा था.
यह कोई नई बात नहीं
बहरहाल, कर्नाटक को लेकर पिछले कुछ दिनों से चल रहे राजनीतिक घटनाक्रम ने संविधान के एक पुराने जख्म को हरा कर दिया है. 1967 से ही जब भी विधानसभा चुनाव के बाद अस्पष्ट जनादेश आए हैं,राज्यपालों ने ही तय किया है कि सरकार बनाने के लिए किसे बुलाया जाए. ये अलग बात है कि जिनके दावों को दरिकनार किया गया उन्होंने हंगामा खड़ा किया.
इसलिए कर्नाटक में इस महीने जो हुआ वो कई बात नहीं है. ऐसी स्थिति में अब तक ऐसे दो दर्जन मामले हो चुके हैं. सिर्फ एक अंतर है. उस वक्त इस हंगामे की वजह कांग्रेस हुआ करता थी और अब बीजेपी इसकी वजह है.लेकिन सचाई यह है कि इस राजनीतिक घटनाक्रम में अलग-अलग स्क्रिप्ट राइटरों ने एक ही कहानी लिखी है. संविधान के प्रावधानों को देखते हुए यह अचंभे की बात नहीं है. मामले के मूल में संविधान का अनुच्छेद 163 (2) है. इस अनुच्छेद के मुताबिक :
अगर किसी मामले पर संविधान के नजरिये या इसके तहत राज्यपाल की ओर से विचार किया जाना, है तो इस संबंध में उन्हें ही फैसला करने की छूट है. उनका निर्णय आखिरी होगा. राज्यपाल के किसी फैसले पर यह कहते हुए सवाल नहीं उठाया जाएगा कि उन्हें अपनी मर्जी के मुताबिक फैसला करना चाहिए या नहीं.
शराफत का खेल नहीं
नैतिकता, शराफत या लोकतांत्रिक मान्यताएं आदि यहां मायने नहीं रखते, यह सिर्फ राजनीति और सत्ता का खेल है. कोई और चीज यहां मायने नहीं रखती. यही वजह है कि पहले बने दो आयोगों यानी सरकारिया और पुंछी आयोग ने राज्यपाल की इस मर्जी में कैंची चलाने की सिफारिश की थी. उन्होंने वे प्रावधान सुझाए थे, जिनके तहत राज्यपाल किसी पार्टी की सरकार बनाने के लिए बुला सकती है. लेकिन किसी भी केंद्र सरकार ने सरकार बनाने के लिए बुलाए जाने के राज्यपाल के अधिकार को खत्म करने की कोशिश नहीं की. क्योंकि हर पार्टी को सरकार बनाने में राज्यपाल की यह भूमिका रास आती है.
गवर्नर की इस ताकत का क्या करें?
सुधी जनों ने कुछ सुझाव दिए हैं. लेकिन सब एक बेसिक तथ्य की अनदेखी कर रहे हैं- कोई भी पार्टी ऐसा काम नहीं करेगी जिससे इसके मौजूदा या भविष्य के हित खतरे में पड़ते दिखाई देते हों. सीधी बात यह है कि राज्यपाल जो संविधान का आवरण ओढ़े होते हैं, केंद्र सरकार के एजेंट ही होते हैं. कई बार एक्सपर्ट इस तथ्य को रेखांकित कर चुके हैं. राज्यपाल की भूमिका से असंतुष्ट पार्टियां इस तथ्य की अनदेखी करने का नाटक करती हैं. लेकिन इस फैसले से जिस पार्टी को फायदा होता है, वह इस पद पर बैठे शख्स के अधिकार का समर्थन करती है.
इसलिए असली सवाल यह है कि क्या केंद्र को राज्यों में अपने एजेंट की जरूरत है. दरअसल सूबों में केंद्र के एजेंट की जरूरत तब पड़ती थी जब हमारे यहां ब्रिटिश शासन था. फिर अब क्यों इसकी जरूरत है?
जवाब है राज्यपाल की जरूरत कुछ सार्वभौम जरूरतों को पूरा करने के होती है. जैसे - 1. दल-बदल रोकने के लिए 2. अगर कानून-व्यवस्था ध्वस्त हो जाए तो इसे बहाल करने के लिए और 3. यह सुनिश्चित करने के लिए राज्य सरकार मौलिक अधिकारों को हनन न करे.
ये जरूरतें ऐसी हैं, जिससे गवर्नर का पद खत्म करने के प्रस्तावों को तवज्जो नहीं मिलेगी. लेकिन चुनाव खत्म होने के बाद सरकार गठन के उसके अधिकारों को लेकर क्या फैसला किया जाए? इस सिलसिले में व्यापक अध्ययन के बाद किसी राजनीतिक फैसले करने की जरूरत होगी.
इस संघर्ष को सुलझाना आसान नहीं
जब राजनीतिक माहौल में उत्तेजना हो तो यह कहना आसान है कि राज्यपाल के अधिकारों को कम किया जा सकता है. सरकारिया और पुंछी आयोग ने ऐसी सलाह दी थी. लेकिन संविधान के अनुच्छेद 163(2) का क्या होगा. इसमें कैसे संशोधन किया जाए. आने वाले कुछ महीनों के दौरान देश को इस सवाल से जूझना होगा. असली संघर्ष संविधान के नियमों और प्रावधानों और मौजूदा हालातों के बीच है. यह संघर्ष कैसे खत्म होगा कहना मुश्किल है. क्योंकि केंद्र की जो भी सरकार इसे खत्म करने की पहल करेगी उसे एक अहम ताकत खोनी होगी. संभावना इसी बात की है आगे भी हम इस स्थिति से ऐसे ही जूझते रहेंगे जैसे पिछले चार दशक से जूझते रहते हैं.
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