ADVERTISEMENTREMOVE AD

कर्नाटक चुनाव नेतृत्‍व के लिहाज से मोदी, राहुल के लिए अहम क्‍यों?

1987 के हरियाणा चुनाव के तीन महत्वपूर्ण संदेश थे, जो आज भी प्रासंगिक हैं.

story-hero-img
i
छोटा
मध्यम
बड़ा

कर्नाटक में लोकसभा की सिर्फ 28 सीटें हैं, इसके बावजूद कई लोगों को लगता है कि राज्य के चुनावी नतीजों का असर 2019 के लोकसभा चुनाव पर पड़ेगा. अगर कम सीटों की वजह से लोकसभा चुनाव के लिए कर्नाटक मायने नहीं रखता, तो वहां होने जा रहा चुनाव कैसे और क्यों महत्वपूर्ण है?

हम पहले एक या दो बार देख चुके हैं कि लोकसभा की सीटें उतनी अहमियत नहीं रखतीं, जितना राजनीतिक माहौल में बदलाव. चुनावी नतीजे इस माहौल के बदलने का संकेत देते हैं.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

इसे समझने के लिए हमें 1987 के हरियाणा विधानसभा चुनाव पर नजर डालनी होगी. हरियाणा में भी तब मई में ही चुनाव हुए थे. 1984 लोकसभा चुनाव में 415 सीटें लाने वाली कांग्रेस को तब अपराजेय माना जा रहा था, लेकिन हरियाणा में उसकी हार हुई. इसके बाद कांग्रेस की तकदीर ने ऐसी पलटी मारी कि 1989 लोकसभा चुनाव में भी उसे ‘हार’ का सामना करना पड़ा.

मैं इसे कांग्रेस की ‘हार’ इसलिए कह रहा हूं, क्योंकि उसके सांसदों की संख्या 415 से घटकर 207 रह गई थी. हालांकि 207 सीटों के साथ कांग्रेस अकेली सबसे बड़ी पार्टी थी. 1989 में राजीव गांधी ने सरकार बनाने से मना कर दिया था. उन्होंने कहा था कि चुनाव में विपक्ष की नैतिक जीत हुई है.

छोटा राज्य, बड़ा संदेश

1987 के हरियाणा चुनाव के तीन महत्वपूर्ण संदेश थे, जो आज भी प्रासंगिक हैं. पहला, इसने दिखा दिया कि 1984 में कांग्रेस को इतनी सीटें इसलिए मिली थीं, क्योंकि चुनाव इंदिरा गांधी की हत्या के 6 हफ्ते बाद हुए थे.

2014 आम चुनाव में भले ही बीजेपी को अपने दम पर बहुमत किसी ‘हादसे’ की वजह से नहीं मिला था, लेकिन यह भी उतना ही अप्रत्याशित था, जितना कांग्रेस के लिए 1984 का रिजल्ट. मैं कुछ समय से लिख रहा हूं कि भले ही लोकसभा चुनाव में कानूनी तौर पर बहुमत के लिए 272 सीटों की जरूरत है, लेकिन राजनीतिक बहुमत के लिए 190-210 सीटें काफी हैं.

दूसरा, 1980 के दशक के पहले हिस्से में क्षेत्रीय दल मजबूत हुए और उसके बाद उनकी ताकत लगातार बढ़ती गई. बीजेपी अभी इसलिए मजबूत दिख रही है, क्योंकि उसने उनके साथ पार्टनरशिप की. कर्नाटक में भी उसे एचडी देवगौड़ा की जेडीएस के साथ हाथ मिलाने को मजबूर होना पड़ सकता है.

तीसरा, संयुक्त विपक्ष का तब तक कोई मतलब नहीं है, जब तक कि उसके पास सर्वमान्य नेता न हो. यहां तक कि इमरजेंसी के बाद हुए 1977 के आम चुनाव में जनता पार्टी की जीत की चमक भी मोरारजी देसाई, जगजीवन राम और चरण सिंह के बीच नेतृत्व की लड़ाई की वजह से फीकी पड़ गई थी. आरएसएस के सपोर्ट से इस जंग को आखिरकार मोरारजी जीत पाए थे.

1989 में वीपी सिंह ने नेतृत्व की यह भूमिका कुछ हद तक अदा की. हालांकि, प्रधानमंत्री पद पर उनकी दावेदारी को भी देवीलाल से चुनौती मिली. यह सरकार 8 महीने में ही कमजोर दिखने लगी थी और आरएसएस-बीजेपी के समर्थन वापस लेने से 11 महीने बाद  गिर गई.

1991 के चुनाव में कांग्रेस की वापसी हुई. इस बार पीवी नरसिम्हा राव के नेतृत्व में उसने अल्पसंख्यक सरकार बनाई. उनकी लीडरशिप को भी जल्द ही पार्टी नेताओं से चुनौती मिली. इन नेताओं को सोनिया गांधी का समर्थन हासिल था.

कांग्रेस में लीडरशिप की लड़ाई 1998 में सोनिया के राजनीति में आने से कमोबेश खत्म हो गई. गांधी परिवार के प्रमुख होने के नाते तब उन्हें पार्टी में लाया गया था. हालांकि, कांग्रेस के सभी नेताओं ने उनके नेतृत्व को स्वीकार नहीं किया और शरद पवार ने अलग होकर अपनी पार्टी बना ली. इतना ही नहीं, 1996 में अलग होने वाली तमिलनाडु कांग्रेस को पार्टी के साथ जुड़ने में 8 साल लगे. यहां भी मसला लीडरशिप को लेकर था, क्योंकि जीके मूपनार ने सीताराम केसरी को अपना नेता मानने से इनकार कर दिया था.

2004 आम चुनाव में कांग्रेस को अप्रत्याशित सफलता मिली. इसके बाद पार्टी को लगा कि लीडरशिप से जुड़ी समस्याएं खत्म हो गई हैं. जिन्ना और गांधी के बीच 100 साल पहले से शुरू हुई नेतृत्व की लड़ाई का जवाब कांग्रेस को विरासत की राजनीति में नजर आया.

आज कांग्रेस की कमान गांधी परिवार की चौथी पीढ़ी के नेता राहुल के हाथों में है, लेकिन वह कई चुनाव हार चुके हैं. कहने का मतलब यह है कि कांग्रेस ने भले ही नेतृत्व की समस्या का समाधान विरासत की राजनीति में ढूंढ लिया हो, लेकिन उसका जलवा 30 साल पहले ही खत्म हो चुका था. उसे संभावित सहयोगियों को यह यकीन दिलाना होगा कि राहुल यूपीए का नेतृत्व कर सकते हैं.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

क्‍या यूपीए में सबको राहुल का नेतृत्‍व मंजूर होगा?

अगर कर्नाटक की 225 सीटों में कांग्रेस 100 से अधिक सीटें भी जीत लेती है, तो क्या यूपीए के क्षेत्रीय सहयोगियों को राहुल का नेतृत्व मंजूर होगा? कर्नाटक की जीत को सिद्धारमैया की जीत माना जा सकता है, जैसा कि पिछले साल गुजरात चुनाव में हुआ था. वहां पार्टी के अच्छे प्रदर्शन का श्रेय राहुल को नहीं मिला.

इधर, नरेंद्र मोदी ने खुद को बीजेपी से अलग प्रोजेक्ट करना शुरू कर दिया है. कर्नाटक के चुनाव प्रचार में हम इसे देख रहे हैं. एक तरह से यह आरएसएस को चुनौती भी है. आरएसएस में एक बड़े वर्ग का मानना रहा है कि हिंदुत्व की राजनीति के चलते बीजेपी को 2014 आम चुनाव में बहुमत मिला था, न कि मोदी की वजह से. इसलिए कर्नाटक का चुनाव एनडीए और यूपीए, दोनों के लिए सिर्फ नेतृत्व के लिहाज से महत्वपूर्ण है. इस चुनाव में जो जीतेगा, वही सिकंदर होगा.

(लेखक आर्थिक-राजनीतिक मुद्दों पर लिखने वाले वरिष्ठ स्तंभकार हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्‍व‍िंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)

ये भी पढ़ें- ओपिनियन: BJP राजनीतिक बवंडर में फंसी, किसानोंं में ज्यादा नाराजगी

(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)

सत्ता से सच बोलने के लिए आप जैसे सहयोगियों की जरूरत होती है
मेंबर बनें
×
×