'वक्त बदल दिया-जज्बात बदल दिया'- उद्धव ठाकरे (Uddhav Thackeray) आज शायद इसी स्थिति में हैं. 8 महीने पहले तक वे शिवसेना (Shivs ena) के सुप्रीमो के तौर पर महाराष्ट्र में मुख्यमंत्री की कुर्सी पर विराजमान थे लेकिन वक्त बदला, एकनाथ शिंदे और उनके गुट के विधायकों के जज्बात बदलें- आज उद्धव ठाकरे के पास न सीएम की कुर्सी ही है और न ही पिता बाला साहेब ठाकरे से विरासत में मिली शिवसेना पार्टी ही.
उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाले धड़े को झटका देते हुए चुनाव आयोग ने शुक्रवार को आदेश दिया कि बागी एकनाथ शिंदे खेमे को ही पार्टी का आधिकारिक नाम 'शिवसेना' और उसके चुनाव चिह्न 'धनुष और तीर' के इस्तेमाल की इजाजत होगी. दूसरी तरफ उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली पार्टी का नाम 'शिवसेना यूबीटी' और चुनाव चिन्ह 'मशाल' ही रहेगा.
सवाल है कि अपने राजनीतिक कैरियर के सबसे मुश्किल दौर से गुजर रहे उद्धव ठाकरे के लिए आगे क्या विकल्प बचा है? क्या वह चुनाव आयोग के सामने पार्टी नाम और सिंबल के लिए अपनी लड़ाई जारी रखेंगे? या फिर जनता को चुनाव में ही यह तय करने देंगे कि वो बाला साहेब ठाकरे के कट्टर वोटों के असल राजनीतिक उत्तराधिकारी हैं या नहीं?
जनता की अदालत में जाएंगे उद्धव?
इलेक्शन कमीशन के फैसले पर उद्धव ठाकरे गुट की निराशा व्यक्त करते हुए सांसद संजय राउत ने कहा कि वे इस फैसले को अदालत में चुनौती देंगे. उन्होंने कहा कि "हम अब जनता की अदालत में जाएंगे. हम कानूनी लड़ाई भी लड़ेंगे. हम असली शिवसेना को फिर से जमीन से उठाएंगे".
फैसले पर प्रतिक्रिया देते हुए उद्धव ठाकरे ने कहा कि उनका गुट सुप्रीम कोर्ट का रुख करेगा. उन्होंने कहा 'शिवसेना को कोई खत्म नहीं कर सकता. यहां तक कि रामायण और महाभारत में भी, दोनों पक्षों के पास धनुष और बाण थे, लेकिन केवल राम और पांडव ही क्रमशः युद्ध जीते, क्योंकि सत्य उनके साथ था. चोरों ने कागज पर धनुष-बाण चुरा लिया है, लेकिन असली धनुष-बाण, जिसकी पूजा शिवसेना के संस्थापक बालासाहेब ठाकरे करते थे, आज भी हमारे पास है. हम अपने पूजा रूम में इसकी पूजा करते हैं.”
जनता पार्टी के सिंबल को पहचानती है
स्वतंत्र राजनीतिक टिप्पणीकार अमिताभ तिवारी के अनुसार किसी भी पार्टी के लिए सिंबल बहुत महत्वपूर्ण होता है क्योंकि लगभग एक तिहाई वोट एक उम्मीदवार को मिलता है क्योंकि बहुत से लोग उम्मीदवार को नहीं बल्कि पार्टी के सिंबल को पहचानते हैं. यह एक विरासत का प्रतिनिधित्व करता है जो अब उद्धव ठाकरे ने खो दी है.
यकीनन पक्के शिवसैनिक शिवसेना और बाला साहेब को 'धनुष और तीर' के चुनाव चिन्ह से ही जानते हैं. ऐसे में उद्धव के लिए बाला साहेब के उन कोर वोटरों के बीच जाना और उन्हें नए चुनाव चिन्ह 'मशाल' को याद दिलाना कठिन काम है.
उद्धव ठाकरे यह जानते हैं कि वे कोई बालासाहेब नहीं हैं. उन्हें बेटे आदित्य के साथ आक्रामक रूप से सड़कों पर उतरना होगा, शिवसैनिकों तक पहुंचना होगा, बालासाहेब की विरासत का आह्वान करना होगा, महाराष्ट्र के लोगों के साथ भावनात्मक जुड़ाव स्थापित करना होगा, और ठाकरे खानदान के साथ वोटों को बनाए रखने के लिए शिंदे गुट को देशद्रोही बताना होगा .
उद्धव ठाकरे को यह भी याद होगा कि शिवसेना पहले भी मशाल चुनाव चिन्ह पर लड़ चुकी है लेकिन तब वह मान्यता प्राप्त राजनीतिक पार्टी नहीं थी. 1989 में शिवसेना के मोरेश्वर सावे औरंगाबाद लोकसभा चुनाव क्षेत्र से मशाल चुनाव चिन्ह पर विजयी हुए थे. उस समय बालासाहेब ठाकरे ने चुनावी सभा में मशाल चिन्ह पर चुनाव चिन्ह पर ठप्पा लगाकर शिवसेना प्रत्याशी को जिताने की अपील की थी.
फिर खड़ा होने के लिए उद्धव को क्या करना होगा?
इस समय सबसे बड़ी बात यह है कि उद्धव ठाकरे को जमीनी स्तर पर पकड़ बनाए रखने के लिए कौन से कदम उठाने होंगे? महा विकास आघाडी के कारण उद्धव ठाकरे के हिंदुत्व पर पहले ही सवालिया निशान लग चुका है. अगर वो सिर्फ बाला साहेब के नाम पर ही अपनी आगे की राजनीतिक मैदान को तैयार करने की कोशिश में हैं तो उन्हें इस निशान को मिटाने की कोशिश करनी होगी.
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