राजस्थान के सियासी मैदान में खेल देख रही जनता के मन में एक ही सवाल है कि क्या बीजेपी आलाकमान इस बार वसुंधरा राजे को 'मरुधरा' का कैप्टन नियुक्त करेगा? सवाल ये भी पूछा जा रहा कि अगर नहीं तो 'महारानी' का क्या स्टैंड होगा? खैर जो भी हो ये तो आने वाला वक्त ही बताएगा कि किसकी फिल्डिंग मुस्तैद रही और किसकी गेंदबाजी में 'धार' और बल्लेबाजी में किसने अच्छा किया. लेकिन, वसुंधरा के करीबियों का मानना है कि मैडम महारानी की निर्णय क्षमता गजब की है, वो सिर्फ 'यस ऑर नो' में विश्वास रखती हैं.
ये बात काफी हद तक साल 2019 में प्रमाणित भी हुई, जब चुनाव हारने के बाद वसुंधरा को राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बना दिल्ली में तैनाती कर दी गई. लेकिन वो ऐसे कागजों की परवाह कहां करने वाली थीं. उसी वक्त वसुंधरा राजे ने ये कहते हुए आलाकमान को साफ संकेत दे दिया था कि "मेरी डोली राजस्थान आई थी और अब अर्थी भी राजस्थान से ही जाएगी."
साल 1984 का वक्त था. इंदिरा गांधी की मौत के बाद कांग्रेस के प्रति एक सहानुभूति की लहर थी. इसी वक्त 8वीं लोकसभा चुनाव की घोषणा कर दी गई. इस चुनाव में पहली बार वसुंधरा राजे मध्य प्रदेश की भिंड लोकसभा से मैदान में थीं. उस वक्त वसुंधरा राजे के उम्र करीब 30 साल थी. ग्वालियर राजघराने की बेटी के सामने कांग्रेस से कृष्णा सिंह थे. यूं तो भिंड कभी ग्वालियर रियासत का हिस्सा हुआ करता था, लेकिन जनता ने राजकुमारी को खारिज कर दिया. कांग्रेस उम्मीदवार कृष्णा सिंह ने 88 हजार वोटों के अंतर से वसुंधरा को हरा दिया.
वसुंधरा की हार के बाद राजमाता विजयाराजे सिंधिया की चिंता बढ़ गई. इन्हीं दिनों राजमाता विजयाराजे की दिल्ली में भैरोंसिंह शेखावत से मुलाकात हुई और उन्होंने वसुंधरा की हार का जिक्र उनके सामने किया. उस समय शेखावत राजस्थान बीजेपी के अध्यक्ष हुआ करते थे. ऐसे में भैरोंसिंह शेखावत ने राजमाता को सुझाव दिया कि वह बिटिया को सुसराल भेजें.
दरअसल, नवंबर, 1972 में राजकुमारी वसुंधरा की शादी धौलपुर के महाराज हेमंत सिंह के साथ हुई थी. लेकिन यशादी एक साल ही चल सकी. जिस वक्त दोनों का तलाक हुआ, उस वक्त वसुंधरा की उम्र 20 साल थी और वह गर्भवती थीं. तलाक के बाद वह ग्वालियर लौट आईं थीं, यहीं उन्होंने बेटे दुष्यंत को जन्म दिया था. धौलपुर छोड़ उन्हें करीब 12 साल गुजर गए थे. ऐसे में अब ससुराल जाना उनके लिए मुनासिब नहीं था. लेकिन, भैरो सिंह शेखावत के सुझाव को राजमाता मना नहीं कर सकीं. उन्होंने बेटी को विदा कर राजस्थान के धौलपुर भेज दिया...घर बसाने के लिए नहीं राजनीतिक जमीन तैयार करने के लिए...
साल 1985 के राजस्थान विधानसभा चुनाव में वसुंधरा बीजेपी के टिकट पर ससुराल धौलपुर से चुनाव लड़ीं और करीब 23 हजार वोटों से जीत दर्ज कर जयपुर पहुंची. यह जीत राजमाता की बेटी की नहीं, बल्कि धौलपुर की बहू की थी. बताया जाता है कि जब भैरोंसिंह शेखावत ने राजस्थान की राजनीति में वसुंधरा को बड़ी जिम्मेदारी देने की सिफारिश की थी, तब उन्होंने कहा था कि वसु मराठा राजपूत हैं. जाट राजघराने में उनकी शादी हुई है. उनके पति का जन्म सिख राजघराने में हुआ और वे जाट राजघराने में नाना की गोद आए. इसका लाभ पार्टी और राजस्थान की जनता दोनों को मिलेगा.
राजस्थान की राजनीति में वसुंधरा को सेटल करने का श्रेय बाबोसा को ही जाता है. दरअसल, वसुंधरा राजे भैरोसिंह शेखावत को प्यास से बाबोसा कहती थीं. लेकिन, एक ऐसा समय भी आया जब भैरोसिंह शेखावत ने वसुंधरा की राजनीति करियर को दांव पर लगा दिया था, तब वसुंधरा राजे खूब रोईं थीं. एक सभा में वसुंधरा राजे ने भैरोसिंह शेखावत को याद करते हुए कहा था कि...
एक जनसभा के दौरान मुझसे बिना पूछे बाबोसा ने ये ऐलान कर दिया कि वसुंधरा झालावाड़ से लोकसभा का चुनाव लड़ने जा रही हैं. मैं मंच पर ही थी. ये सुनकर हक्क-बक्का रह गई. मैं जैसे ही घर पहुंची तो राजमाता को फोन किया और सारी बातें बताई और रोने लगी. मैंने मां से कहा कि मैं धौलपुर में खुश हूं. मुझे झालावाड़ नहीं जाना है. मैं तो जानती भी नहीं हूं कि यह जगह कहां है. इसके बाद राजमाता ने कहा कि आप उन्हीं से बात करो.
फिर वसुंधरा राजे रोते-रोते भैरोसिंह शेखावत को फोन लगाया और कहा की मैं तो झालावाड़ के बारे में जानती तक नहीं, मुझे क्यों भेज रहे हैं वहां. मैं नहीं जाना चाहती वहां. इस पर भैरोसिंह शेखावत ने कहा कि तुम्हे झालावाड़ जाना होगा. तुम्हारा सारा अरेंजमेंट कर दिया गया है. तुम्हें किसी चीज की दिक्कत नहीं होगी. धौलपुर में तुमने विधायक बनकर देख लिया, अब सांसद बनकर देखो. इसके बाद वसुंधरा डरते डरते झालावाड़ पहुंचीं.
वसुंधरा राजे ने बताया था कि जैसे ही झालावाड़ स्टेशन पर उतरी उस दिन से आज तक मेरे कानों में बाबोसे के वो शब्द गूंजते रहते हैं.
दरअसल, भैरोसिंह शेखावत ने उस वक्त वसुंधरा से कहा था कि 'पॉलिटिक्स एक ऐसी जगह होती है जहां रिस्क लेने की जरूरत होती है. रिस्क अच्छा भी हो सकता है और बुरा भी सकता है. ऐसे टाइम में आप अगर रिस्क लेते हो तो शायद यह आपके लिए अच्छा हो जाए. सांसद बनना कोई आसान बात नहीं है.'
राजनीतिक पिच पर धौलपुर से झालावाड़ जाना वसुंधरा के लिए भले ही रिस्क था, लेकिन, वो एक रिस्क ने उन्हें राजस्थान की राजनीति का छत्रप बना दिया. यही वजह है कि आज भी वसुंधरा अपने बुरे दौर में भी आलाकमान के सामने डंटकर खड़ी हैं.
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