यूपी में गठबंधन टूट चुका है. बल्कि यूं कहें कि गठबंधन के सूत्रधार, यानी मायावती और अखिलेश टूट चुके हैं. एक-दूसरे से रूठ चुके हैं. मायावती ने प्रेस कॉन्फ्रेन्स कर उन खबरों की पुष्टि कर दी है, जो दो दिनों से चल रही थीं.
मायावती ने सवाल दागा है कि ऐसे गठबंधन से क्या फायदा, जिसमें सहयोगी दल की अपनी ही कोई हैसियत न हो. एक तरह से गठबंधन तोड़ने से ज्यादा यह दिल तोड़ने जैसा है.
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माया का जुमला- जब डिम्पल को नहीं जिता सके अखिलेश तो...
मायावती ने मूल रूप से गठबंधन तोड़ने की जो वजह बताई है, वह यह है कि जब समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव अपनी पत्नी डिम्पल यादव की सीट नहीं बचा सकते, जब रामगोपाल यादव के भतीजे धर्मेंद्र यादव को नहीं जिता सकते, तो वे किस काम के? मतलब ये कि ऐसी पार्टी और ऐसे नेता बहुजन समाज पार्टी के उम्मीदवारों को क्या जिताएंगे?
‘प्रतिभा’ के दम पर मिली 10 सीट?
मायावती के कहने का मतलब यह भी है कि शून्य से 10 तक की जो गिनती 2019 के आम चुनाव में उन्हें कंठस्थ हुई है, वह तो उनकी मेधा है, प्रतिभा है. इसमें समाजवादी पार्टी का कोई योगदान नहीं है.
मायावती यह भी कह रही हैं कि अखिलेश जब अच्छा काम करेंगे, तो फिर से उनके साथ जुड़ेंगे. इसका मतलब ये है कि अखिलेश ने अच्छा काम नहीं किया है. इसका मतलब यह भी है कि अब वे गठबंधन तोड़ रही हैं.
गठबंधन में टूट की असली वजह- हार का प्रहार
मायावती चाहे गठबंधन टूटने की जो वजह बताएं, मगर वास्तव में हार का प्रहार ही इसकी वजह है. नरेंद्र मोदी की भविष्यवाणी अभी पूरी तरह सच नहीं हुई है. उन्होंने कहा था कि हार के बाद गठबंधन के लोग एक-दूसरे के कपड़े फाड़े हैं. अब तक जो बातें सामने आई हैं, यह काम बीएसपी की तरफ से हुआ है. मतलब ये कि अभी अखिलेश यादव की प्रेस कॉन्फ्रेन्स होना बाकी है. उनकी ओर से इसी किस्म के कपड़े फाड़ प्रतिक्रिया आनी शेष है.
सिर्फ दो यादव बहुल सीटें जीत सकी समाजवादी पार्टी
निस्संदेह मायावती ने जो सवाल उठाए हैं, उसमें जान है. उत्तर प्रदेश की यादव बहुल सीटों की बात करें, तो उनमें शामिल हैं- इटावा, बदायूं, एटा, मैनपुरी, फिरोजाबाद, फैजाबाद, संत कबीर नगर, बलिया, जौनपुर, आजमगढ़. इनमें से केवल मैनपुरी और आजमगढ़ ही समाजवादी पार्टी जीत पायी. बाकी सभी सीटें बीजेपी की झोली में गईं.
केवल दो सुरक्षित सीट ही जीत सकी बीएसपी
मगर, बीएसपी सुप्रीमो मायावती ने एक और तथ्य को छिपाया है. अच्छा होता अगर उसे भी वह बता देतीं. बीएसपी ने जिन 10 सुरक्षित सीटों पर चुनाव लड़ा उनमें शामिल हैं- नगीना, बुलंदशहर, आगरा, शाहजहांपुर, मिसरिख, मोहनलालगंज, जालौन, बांसगांव, लालगंज और मछलीशहर. इनमें से दो सीटें ही बीएसपी जीत सकीं- नगीना और लालगंज.
मछलीशहर की सीट जरूर ऐसी है, जहां महज 181 वोटों से बीएसपी की हार हुई. दलित बहुल सीटें जब मायावती हार गयीं, तो उनसे भी यही सवाल किया जा सकता है कि आखिर वह भी तो समाजवादी पार्टी के काम नहीं आईं.
समाजवादी पार्टी को एक भी सुरक्षित सीट पर नहीं मिली जीत
समाजवादी पार्टी ने जिन 7 सुरक्षित सीटों पर चुनाव लड़ा, उनमें शामिल हैं- हाथरस, हरदोई, इटावा, कौशाम्बी, बाराबंकी, बहराइच, रॉबर्ट्सगंज. इनमें से एक भी सीट समाजवादी पार्टी नहीं जीत पायी, तो इसका मतलब यह लगाया जा सकता है कि दलितों के वोट भी समाजवादी पार्टी को नहीं ट्रांसफर हुए.
अखिलेश ने कहा- रास्ते अलग हुए तो उसका भी स्वागत
समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव ने मायावती की प्रेस कॉन्फ्रेन्स पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है. अलबत्ता बुआ कहे जाने पर पत्रकारों को उन्होंने जरूर रोका-टोका. उन्होंने गठबंधन पर प्रतिक्रिया बाद में सोच-समझकर देने की बात कही. वहीं यह भी कहा कि अगर रास्ते अलग हैं, तो इसका स्वागत है. एक तरह गठबंधन के टूटने पर अखिलेश यादव ने भी मुहर लगा दी है.
बीएसपी की जीत में एसपी के योगदान को नहीं भुला सकते
बहुजन समाज पार्टी ने जिन 10 सीटों पर जीत हासिल की है, उनमें शामिल हैं- सहारनपुर, बिजनौर, नगीना (सु), अमरोहा, अम्बेडकरनगर, श्रावस्ती, डुमरियागंज, लालगंज (सु), घोसी, गाजीपुर.
इनमें से सहारनपुर, बिजनौर, नगीना, अमरोहा जैसी सीटें मुस्लिम बहुल हैं और उनके वोट यहां निर्णायक होते हैं. मगर यह मान लेना कि ये सीटें समाजवादी पार्टी की मौजूदगी के बाद भी बीएसपी जीत सकती थी, थोड़ा एकतरफा सोच है.
मुसलमानों ने बीएसपी को वोट इसलिए भी दिया, क्योंकि वह समाजवादी पार्टी के साथ थी. अन्यथा यह सम्भव था कि मुसलमान कांग्रेस को वोट देते. सवाल ये है कि यही नतीजे बहुजन समाज पार्टी पिछले चुनाव में लेकर क्यों नहीं आ सकी?
बीजेपी को छोड़कर यूपी में सबके वोट घटे
अगर पिछले लोकसभा चुनाव की बात करें, तो समाजवादी पार्टी को 22.35 प्रतिशत, बहुजन समाज पार्टी को 19.77 प्रतिशत, बीजेपी को 42.63 प्रतिशत और कांग्रेस को 7.53 प्रतिशत वोट मिले थे.
2019 के आम चुनाव में समाजवादी पार्टी को 17.96 प्रतिशत, बीएसपी को 19.3 प्रतिशत, कांग्रेस को 6.3 प्रतिशत और बीजेपी को 49.6 प्रतिशत वोट मिले हैं. इसका मतलब साफ है कि समाजवादी पार्टी को 4.39 फीसदी वोटों का नुकसान हुआ है, जबकि बीएसपी को 0.47 फीसदी का मामूली नुकसान. कांग्रेस को भी 1.23 फीसदी का नुकसान हुआ है. फायदा केवल बीजेपी को हुआ है. बीजेपी को 6.97 प्रतिशत वोटों का फायदा हुआ है.
वोट घटकर भी बीएसपी की सीटें बढ़ीं, तो वजह था गठबंधन
एक बात साफ है कि जब मुकाबला आमने-सामने का हुआ और नुकसान गठबंधन के दोनों घटक दलों का वोट प्रतिशत के रूप में हुआ, तो सीटों में बढ़ोतरी गठबंधन की नहीं हो सकती थी. बीएसपी की सीटें सिर्फ और सिर्फ इसलिए बढ़ी हैं, क्योंकि खास सीटों पर वोटों का ध्रुवीकरण नतीजे देने वाला रहा. इसमें समाजवादी पार्टी की भूमिका को नजरअंदाज करना गलत है. बल्कि यही ध्रुवीकरण समाजवादी पार्टी के पक्ष में सीटों के स्तर पर परिणाम देने वाला नहीं रहा, जिसका खामियाजा उन्हें भुगतना पड़ा.
गठबंधन नहीं होता तो अखिलेश-मुलायम की भी राहुल जैसी होती हार
फिर भी एक बात साफ है कि चाहे मुलायम सिंह हों या अखिलेश यादव, इनकी जीत जितने कम वोटों से हुई है, उसका भी मतलब ये है कि अगर बीएसपी का समर्थन नहीं होता, तो वे हार भी सकते थे. ठीक उसी तरह हार सकते थे, जैसे राहुल गांधी अमेठी में हार गये.
हालांकि ऐसा भी कहा जा सकता है कि तब जीत का समीकरण या कारण कुछ और होते. मगर यह बात खुद को तसल्ली देने भर के लिए ही है.
गठबंधन टूटने से मिली सीख
यह बात साबित हुई है कि किसी को हराने के मकसद से गठबंधन करना या अपने अस्तित्व बचाने के लिए गैर-बराबरी का गठबंधन या अप्राकृतिक गठजोड़ से नेता सबक लें. मुलायम और माया ने एक मंच पर खड़ा होकर जो ओबीसी और दलितों को एकजुट करने का संकल्प रखा था, वह छलावा साबित हुआ है. नरेंद्र मोदी की ही बात सही साबित हुई है कि यह महामिलावटी गठबंधन था.
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