13 मई साल 1967 को राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन का कार्यकाल खत्म होने वाला था. इसके साथ ही देश में राष्ट्रपति चुनाव की सुगबुगाहट शुरू हो गई थी. नई-नई प्रधानमंत्री बनीं इंदिरा गांधी के लिए ये चुनाव बहुत महत्वपूर्ण था. क्योंकि, साल 1967 का लोकसभा चुनाव आजादी के बाद कांग्रेस के लिए सबसे बड़ा झटका था. इस चुनाव में कांग्रेस 283 सीट पर सिमट गई थी. 1962 के मुकाबले इस चुनाव में कांग्रेस को 78 सीटों का नुकसान झेलना पड़ा था. यह आंकड़ा बहुमत के आंकड़े से महज 12 सीट ही ज्यादा था. 11 राज्यों में कांग्रेस को हार का सामना करना पड़ा था. इस चुनाव के बाद इंदिरा को पार्टी के भीतर तख्तापलट का डर सताने लगा.
इसलिए इंदिरा गांधी ने अपने को मजबूत करने की कवायद शुरू कर दी. क्योंकि, प्रधानमंत्री बनने के बाद इंदिरा को समझ में आ गया था कि अगर वो कांग्रेस सिंडिकेंट की पकड़ से बाहर नहीं निकलीं तो वो इसकी कठपुतली बन कर रह जाएंगी.
जामिया मिल्लिया इस्लामिया के पूर्व प्राध्यापक और डॉ. जाकिर हुसैन के सहकर्मी डॉ. जियाउल हसन फारूकी ने अपनी किताब में लिखा है कि 1967 में तत्कालीन कांग्रेस पार्टी अध्यक्ष के. कामराज चाहते थे कि डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन दोबारा राष्ट्रपति बनें और उपराष्ट्रपति जाकिर हुसैन को कार्यविस्तार दिया जाए लेकिन इंदिरा गांधी जाकिर हुसैन को अगले राष्ट्रपति के तौर पर देख रही थीं. हालांकि, इंदिरा के मन में यह शंका थी कि जाकिर साहब इस पद के लिए तैयार हैं भी या नहीं?
उधर, जाकिर हुसैन का मन नहीं था कि वो उपराष्ट्रपति पद पर एक और कार्यकाल करें. यहां तक कि उन्होंने अपने आधिकारिक आवास 6 मौलाना आजाद रोड से अपना सामान जामिया नगर के अपने निजी घर भेजना शुरू कर दिया था. जब इस बात की खबर इंदिरा गांधी को लगी तो उन्होंने इंद्रकुमार गुजराल को जाकिर हुसैन के पास भेजा.
इंद्रकुमार गुजराल ने इस बात का जिक्र करते हुए अपने एक लेख में लिखा था कि एक दिन इंदिरा गांधी ने उनसे राष्ट्रपति पद के लिए जाकिर हुसैन का मन टटोलने के लिए कहा था. इसके बाद वह जाकिर साहब से मिले. तब जाकिर हुसैन ने उनसे कहा कि "अगर आप मुझसे राष्ट्रपति भवन जाने के लिए कहें तो मैं इतना मजबूत नहीं हूं कि 'ना' कह दूं. यानी उनका इशारा स्पष्ट था कि वह इस पद के लिए तैयार हैं. लेकिन, के कामराज इसके लिए राजी नहीं हुए.
इंदिरा और कामराज के बीच इस बात को लेकर तनातनी हो गई कि राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार चुनने का अधिकार किसके पास है. बतौर प्रधानमंत्री इंदिरा इस पर अपना दावा जता रही थीं और कामराज का कहना था कि पार्टी अध्यक्ष होने की वजह से यह हक उनका था. इंदिरा ने मामले को सुलझाने के लिए 8 अप्रैल 1967 को सर्वदलीय बैठक बुलाई. वो जाकिर हुसैन के नाम पर सहमति चाहती थीं. लेकिन, विपक्षी नेता यह कह कर मीटिंग से चले गए कि सत्ताधारी पार्टी के अध्यक्ष की गैर मौजूदगी में इस मीटिंग का कोई मतलब नहीं है.
कांग्रेस में फूट को देखते हुए विपक्ष ने तुरंत मौका हाथ से लपक लिया और विपक्ष ने सुप्रीम कोर्ट के 9वें चीफ जस्टिस के. सुब्बाराव को अपना उम्मीदवार घोषित कर दिया. क्योंकि, उस समय देश में एक अलग माहौल बन गया था. उस वक्त जनसंघ की तरफ से ये संदेश देने की कोशिश भी की गई कि एक मुस्लिम को देश के राष्ट्रपति के तौर पर स्वीकार नहीं किया जा सकता है. तब इस मुश्किल घड़ी में इंदिरा ने जयप्रकाश नारायण को याद किया. जयप्रकाश नारायण ने 22 अप्रैल 1967 को एक बयान जारी कर राष्ट्रपति पद के लिए जाकिर हुसैन का समर्थन कर दिया.
डॉ. जियाउल हसन फारूकी ने अपनी किताब डॉ. जाकिर हुसैन में बताया कि स्वतंत्र पार्टियों ने राष्ट्रपति पद के लिए जय प्रकाश नारायण के नाम की पुष्टि की थी. लेकिन जेपी का कहना था कि वह इस समय जाकिर साहब को ही देश के इस उच्च पद के लिए सबसे उपयुक्त समझते हैं. उनकी इस चुनाव में कोई दिलचस्पी नहीं है.
इधर, सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने दोबार राष्ट्रपति चुनाव लड़ने से मना कर दिया. ऐसे में कामराज को जाकिर हुसैन के नाम पर सहमत होना पड़ा.
हसन फारूकी अपनी किताब डॉ. जाकिर हुसैन में लिखते हैं कि 1967 के राष्ट्रपति चुनाव के लिए उनके प्रतिद्वंद्वी कोटा सुब्बाराव देशभर में घूम-घूमकर जहां अपने लिए समर्थन जुटा रहे थे. वहीं, जाकिर हुसैन अमेरिका की मिशिगन यूनिवर्सिटी की स्थापना के 150 साल पूरे होने पर आयोजित कार्यक्रम में शिक्षा पर भाषण रहे थे. वह राष्ट्रपति चुनाव से सिर्फ तीन दिन पहले देश लौटे थे.
6 मई साल 1967 को राष्ट्रपति चुनाव के लिए वोटिंग हुआ. 9 मई की शाम को नतीजों की घोषणा हुई. जाकिर हुसैन को 471244 और के. सुब्बाराव को 363911 वोट मिले. आकाशवाणी का नियमित प्रसारण रुकवाकर जाकिर हुसैन की जीत का ऐलान किया गया. इसके साथ ही दिल्ली की जामा मस्जिद से भी जीत की घोषणा की गई.
डॉ. जियाउल हसन फारूकी ने अपनी किताब डॉ. जाकिर हुसैन में लिखते हैं कि नई दिल्ली और पुरानी दिल्ली की सड़कों-गलियों में लाउडस्पीकर से उनकी जीत का ऐलान हो रहा था. लोग खुशी से नाच रहे थे, एक-दूसरे को गले लगा रहे थे जैसे वे ईद मना रहे हों. आखिरकार, जाकिर हुसैन ने 13 मई साल 1967 को भारत के तीसरे और पहले मुस्लिम राष्ट्रपति के रूप में शपथ ली. यह वहीं चुनाव था, जिसने देश की सियासत में इंदिरा गांधी को अपने पैर जमाने में मजबूत किया.
3 मई साल 1969 को राष्ट्रपति जाकिर हुसैन का इंतकाल हो गया. दरअसल, निधन से कुछ दिन पहले उनका असम दौरा था लेकिन वहां जाने से पहले ही उनकी तबीयत बिगड़ गई. डॉक्टरों ने उन्हें दौरा रद्द कर आराम करने को कहा. लेकिन, वह नहीं माने. उन्होंने कहा कि राज्यपाल इस दौरे के लिए मुझे काफी दिन से मना रहे थे. अगर मैं नहीं जाऊंगा तो बहुत से लोगों को दुख पहुंचेगा. सेहत जरूरी है लेकिन उससे ज्यादा जरूरी है अपने कर्तव्य को निभाना. उन्होंने डॉक्टरों को यह कहकर मना लिया कि असम से लौटने के बाद वह ओखला वाले घर चले जाएंगे, जहां सिर्फ आराम करेंगे. लेकिन, जब वह लौटे तो उनकी तबीयत ज्यादा खराब हो गई.
निधन वाले दिन सुबह करीब पौने ग्यारह बजे डॉक्टर चेकअप के लिए आए तो वह डॉक्टरों को इंतजार करने की बात कहकर बाथरूम में चले गए. काफी देर बाद भी जब वह नहीं लौटे तो उनके विशेष सेवक इसहाक ने बाथरूम का दरवाजा खटखटाया. भीतर से जवाब नहीं मिला तो दूसरे दरवाजे से वह बाथरूम में गया. उसने देखा कि जाकिर हुसैन जमीन पर बेसुध पड़े थे. डॉक्टरों ने बताया कि उनका निधन हो गया. 5 लाख से ज्यादा लोग उनके अंतिम दर्शन के लिए आए थे. राष्ट्रपति भवन के बाहर करीब तीन मील तक लोग उनकी झलक पाने के लिए लंबी कतार में खड़े रहे थे.
जाकिर हुसैन को जामिया मिल्लिया के कैंपस में दफनाया गया. क्योंकि, साल 1920 में जाकिर हुसैन ने ही अलीगढ़ में जामिया की स्थापना की थी. लेकिन, बाद में साल 1925 में महात्मा गांधी के कहने पर जामिया को दिल्ली शिफ्ट कर दिया गया. साल 1963 में उन्हें देश के सबसे बड़े नागरिक सम्मान भारत रत्न से नवाजा गया. जाकिर हुसैन देश के पहले राष्ट्रपति थे, जिनका पद पर रहते हुए इंतकाल हो गया था.
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