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बिहार डीजीपी फेक फोन कॉल केस: लापरवाही हर स्तर पर हुई है?

fake call बिहार के मुख्यमंत्री का कहना है कि डीजीपी रिटायर होने वाले हैं, इसे इग्नोर कीजिए

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Bihar: “मान लीजिये कोई त्रुटि हुई है और फिर उनको अहसास हो गया तो इस पर ध्यान नहीं देना चाहिए, बाकी सब काम बहुत मजबूती से डीजीपी कराते हैं. अपराध पर अंकुश के लिए हर जांच बेहतर ढंग से कराते हैं. दो महीने में DGP रिटायर हो रहे हैं”.

यह बयान है बिहार के मुख्यमंत्री का. और मामला है बिहार डीजीपी को पटना उच्च न्यायालय का मुख्य न्यायधीश बनकर फर्जी कॉल करने का.

ये फर्जी कॉल किया गया था एक मामले में फंसे एक IPS की पैरवी करने के लिए. हालांकि, इस मामले में कॉल करने वाले अबतक चार आरोपियों को गिरफ्तार किया जा चुका है और आगे भी कार्रवाई की जा रही है. लेकिन इस सम्बन्ध में कई ऐसे पक्ष हैं जिसपर गंभीरता से विचारने की जरुरत है, क्योंकि इसमें अपराध कमोबेश सभी के द्वारा किया गया है, लेकिन सजा एकतरफा है.

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कार्यप्रणाली में ढिलाई, आखिर लापरवाह कौन ?

डीजीपी के पक्ष को देखें तो इससे दिखता है कि उनके स्तर से बड़ी गंभीर लापरवाही की गई है. यह उनकी काबिलियत पर भी सवाल है कि उन्हें एक फर्जी कॉल तक का पता नहीं चला, जबकि, आज विज्ञान और तकनीक का युग है जिसमें आसानी से फोन कॉल के पते का पूरा ब्यौरा इकठ्ठा किया जा सकता है. और निस्संदेह ऐसी तकनीक बिहार पुलिस के पास भी होगी ही.

यह चिंतित करने वाली बात है कि अगर इसके बावजूद वे फोन कॉल की असलियत का पता नहीं लगा पाए तो न जाने ऐसे कितने फर्जी कॉल उनके पास आते रहे होंगे. दूसरा और सबसे अहम बात कि क्या वे ऐसे ही फोन कॉल के आधार पर अपराधियों को पकड़ते-छोड़ते हैं! उनके लिए कानूनी प्रक्रिया का कोई महत्त्व है भी या नहीं? यह एक बड़ा सवाल है जिससे नौकरशाही की कार्यप्रणाली का पता चलता है.

फोन आते ही हो जाता है मामला ठंडा, पैरवी लगाते हैं अपराधी ?

परोक्ष रूप से न्यायपालिका पर भी सवाल खड़े हो जाते हैं कि क्या सच में न्यायपालिका इस तरह से फोन कॉल के माध्यम से हस्तक्षेप करती रही है जिसके डीजीपी अभ्यस्त हो चुके थे! हम सबने अपने जीवन में ऐसे अनेक मामले देखें हैं जिसमें थाने में प्रभावशाली व्यक्तियों के कॉल आने पर गंभीर से गंभीर अपराध में फंसा व्यक्ति आसानी से बच निकलता है, और इन्हीं आधार पर हम इस बात को मान सकते हैं कि नौकरशाही मुख्यतौर पर ऐसे ही कार्य करती है. मामला चाहे थाने के दरोगा का हो या राज्य के डीजीपी का-कार्य करने का तरीका एक ही है.  

ये ध्यान देना चाहिए कि डीजीपी के पक्ष में मुख्यमंत्री का उपरोक्त बयान भी गंभीर रूप से गैरजिम्मेवार बयान माना जाना चाहिए. जो कहीं से भी तटस्थ और न्यायपूर्ण नहीं दिखता. उनकी बातों से लगता है कि व्यक्तिगत रूप से मुख्यमंत्री डीजीपी को बचा रहे हैं.

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माफी मांगकर, सजा से बचा जा सकता है "नेता जी" ?

उनके बयान में दो मुख्य बातें हैं- पहला अहसास और दूसरा रिटायर. ये दोनों ही शब्द इस बात को प्रमाणित करते हैं कि मुख्यमंत्री भी यह स्वीकारते हैं कि डीजीपी के तरफ से अपराध किया गया है. लेकिन अब वे रिटायर होने वाले हैं इसलिए उनकी गलती को माफ कर दिया जाना चाहिए. यह बयान कितना न्यायपूर्ण है इसपर आप खुद ही मंथन कर सकते हैं.

क्या किसी अन्य अपराधी के लिए मुख्यमंत्री ऐसा कहेंगे कि चुंकि उसे अपनी गलती का अहसास हो गया है और वह रिटायर होने वाला है इसलिए उसे माफ कर दिया जाना चाहिए? और ऐसा कितने अपराधियों के साथ किया जाए? इसी तरह क्या वे उन चारों आरोपियों को भी अन्य सहानुभूति मूलक कारणों से प्रेरित होकर माफ करेंगे? और उससे भी बड़ा सवाल कि ऐसी सहानुभूति आमतौर पर आमलोगों के लिए क्यों नहीं उमड़ती? यह सहानुभूति केवल खास लोगों के लिए ही क्यों है?

डॉ केयूर पाठक सामाजिक विकास परिषद, हैदराबाद से पोस्ट-डॉक्टरेट हैं.

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