पुतिन ने यूक्रेन के खिलाफ सैन्य ऑपरेशन शुरू कर दिया है. इसकी आग पूरी दुनिया को अपनी चपेट में ले सकती है. हालात काफी खराब हो सकते हैं. इसके अलावा आर्थिक जगत और दुनिया भर के बाजारों को यह संकट बुरी तरह प्रभावित कर सकता है.
भारत भी इससे अछूता नहीं रह पाएगा. एनर्जी मार्केट तो बहुत अधिक प्रभावित होने की आशंका है. इस युद्ध के बाद काला सागर क्षेत्र से आवागमन और परिवहन में अगर किसी भी तरह की रुकावट आती है तो पूरी दुनिया में अनाज, ईंधन की कीमतें भूचाल खड़ा कर सकती हैं.
यूक्रेन पर आक्रमण के प्रभाव गेहूं और ऊर्जा की कीमतों के अलावा इस क्षेत्र के सॉवरेन डॉलर बांड से लेकर सुरक्षित-संपत्ति और शेयर बाजारों तक कई जगह महसूस किया जाएगा. यहां हम नीचे उन सात बड़े आर्थिक कारणों व मुद्दों का उल्लेख कर रहे हैं, जो इस तनाव के बाद दुनिया और भारत के सामने तेजी से खड़े हो सकते हैं.
अनाज और गेहूं की आपूर्ति में बाधा
इस युद्ध की स्थिति में यदि काला सागर क्षेत्र से अनाज की आपूर्ति में किसी भी तरह की रुकावट होती है तो उसका कीमतों पर और आगे चलकर खाद्य व ईंधन मुद्रास्फीति पर एक बड़ा प्रभाव पड़ने की संभावना है. यह समय वैसे भी कठिन है, क्योंकि COVID-19 महामारी से होने वाली आर्थिक क्षति के बाद अफोर्डेबिलिटी दुनिया भर में चिंता का प्रमुख विषय बन चुकी है.
इस क्षेत्र के चार प्रमुख एक्सपोर्टर यूक्रेन, रूस, कजाकिस्तान और रोमानिया ब्लैक सी के पोर्ट से दुनियाभर में अनाज भेजते हैं . यदि किसी भी तरह की सैन्य कार्रवाई किसी भी ओर से होती है तो ब्लैक सी के परिवहन में निश्चित तौर पर व्यवधान आएगा और उसका प्रभाव पूरी दुनिया को झेलना पड़ेगा.
अंतर्राष्ट्रीय अनाज परिषद के आंकड़ों के अनुसार, यूक्रेन के आगामी वित्त वर्ष 2021-22 में मकई के दुनिया के तीसरे सबसे बड़े निर्यातक और गेहूं का चौथा सबसे बड़ा निर्यातक होने का अनुमान है. रूस पहले ही दुनिया का शीर्ष गेहूं निर्यातक देश है. अब कल्पना करिए कि इस संकट से दुनिया भर की कितनी रसोई में अनाज पहुंचने से बाधित हो जाएगा.
प्राकृतिक गैस का संकट
यदि यह तनाव संघर्ष में बदल जाता है तो ऊर्जा बाजार के सबसे ज्यादा प्रभावित होने की संभावना है. यूरोप अपनी लगभग 35% प्राकृतिक गैस की आपूर्ति के लिए रूस पर निर्भर है, जो ज्यादातर उन पाइपलाइनों के माध्यम से यूरोप तक आती है जो बेलारूस, पोलैंड और जर्मनी से गुजरती हैं.
2020 में जब अधिकतर कंट्रीज में लॉकडाउन लगे तो यूरोप में गैस की डिमांड में कमी आई. इससे रूस की ओर से गैस मात्रा उत्पादन में कमी की गई. पर जब पिछले साल जब गैस की खपत में वृद्धि हुई तो एकदम से मांग पूरी नहीं हो पा रही थी. इस स्थिति ने गैस की कीमतों को रिकॉर्ड ऊंचाई पर भेज दिया.
अभी इस गैस आपूर्ति को लेकर देशों के मध्य जिस तरह के अनुबंध है उन पर गौर करें तो जर्मनी अपने यहां से गुजरने वाली रूस की नई नॉर्ड स्ट्रीम 2 गैस पाइपलाइन को रोक सकता है, उसने ऐसा कहा भी है. यह पाइपलाइन वैसे तो रूस से यूरोप में गैस के आयात बढ़ाने के लिए डाली गई है , पर इससे यह भी मैसेज जाता है कि यूरोप के ज्यादातर देश अपनी एनर्जी की जरूरत को पूर्ण करने के लिए मास्को पर निर्भर हैं.
धुर कलह की स्थिति में वे इस मैसेज को सहन नहीं कर सकते, क्योंकि रूस उन्हें इस गैस आपूर्ति के लिए ब्लैकमेल भी कर सकता है. ऐसे में इस पाइपलाइन की आपूर्ति को जर्मनी की ओर से रोका जा सकता है.
विश्लेषकों का मानना है कि प्रतिबंधों की स्थिति में रूस से पश्चिमी यूरोप को प्राकृतिक गैस का निर्यात यूक्रेन और बेलारूस दोनों के माध्यम से काफी कम हो जाएगा. ऐसी हालत में गैस की कीमतें Q 4 के स्तर पर फिर से आ सकती हैं.
तेल डालेगा आर्थिक प्रभाव
तेल बाजार भी प्रतिबंधों या व्यवधान से प्रभावित हो सकते हैं. यूक्रेन रूसी तेल को स्लोवाकिया, हंगरी और चेक गणराज्य में ले जाता है. S&P ग्लोबल प्लैट्स के अनुसार यूक्रेन में निर्यात के लिए रूसी क्रूड ऑयल का ट्रांसिट 2021 में पिछले वर्ष की तुलना में गिरकर 11.9 मिलियन मीट्रिक टन हो गया था, जबकि 2020 में यह 12.3 मिलियन मीट्रिक टन था.
जेपी मॉर्गन की ओर से भी इस बारे में गंभीर आशंकाएं जताई गई हैं. उनके अनुसार इस तनाव ने तेल की कीमतों में मटेरियल स्पाइक के रिस्क को बढ़ा दिया है. यदि युद्ध की स्थिति से 150 डॉलर प्रति बैरल की वृद्धि हो गई तो इससे वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि वर्ष की पहली छमाही में केवल 0.9% वार्षिक हो जाएगी, जबकि मुद्रास्फीति दोगुनी से अधिक 7.2% हो जाएगी.
भारत पर क्या सीधे प्रभाव
हमारा देश कच्चे तेल के आयात पर सबसे ज्यादा विदेशी मुद्रा खर्च करता है. कच्चे तेल की कीमत से ही हमारे यहां पेट्रोल-डीजल और रसोई गैस की कीमतें डिसाइड होती हैं. जब पेट्रोल तेजी से महंगा हुआ तो हमारी कार बाइकों के चलने का खर्च बढ़ेगा.
हमारे घरों में आने वाला हर सामान डीजल वाहनों की ढुलाई से ही हमारे घरों तक पहुंचता है. वह सब महंगा हेागा. खाद्य वस्तुओंं,सब्जियों फल समेत सभी के दाम बढ़ सकते हैं. अभी हमने ऊपर गैस गैस खपत का उल्लेख किया था. जब युद्ध छिड़ने पर रूस यूरोप को गैस की आपूर्ति बंद करेगा तो यूरोपीय देश दूसरे उत्पादकों को देखेंगे.
इसमें समय लगेगा तो उस दौरान मांग आपूर्ति का संतुलन बिगड़ने से पूरी दुनिया में कच्चे तेल की कीमतों में उछाल आएगा और इसका सीधा असर भारत के निवासियों को महंगाई के रूप में झेलना पड़ेगाा.
हमारे रक्षा क्षेत्र पर पड़ सकता है असर
हालांकि भारत के लिए इसमें राहत वाली बात यह है कि रूस का हमसे द्विपक्षीय व्यापार कुछ विशेष क्षेत्रों को छोड़कर सीमित ही है. भारत के कुल आयात में रूस का शेयर केवल 1.4 फीसदी है और हमारे कुल निर्यात में रूस एक फीसदी से भी कम हिस्सेदारी रखता है. इस आंकड़े पर गौर करें तो हमारे आयात-निर्यात पर ज्यादा असर नहीं होगा.
लेकिन इस युद्ध से हमारे रक्षा क्षेत्र पर असर पड़ सकता है. भारत के रक्षा आयात में रूस की हिस्सेदारी बहुत बड़ी है. यह 49 फीसदी तक है. वहीं रूस के रक्षा आयात में भारत की 23 फीसदी हिस्सेदारी है. रूस अगर लंबे समय तक युद्ध में उलझा रहा तो भारत की रक्षा तैयारियों पर असर दिखने लगेगा.
पैसा कैसे रहे सुरक्षित
इस संकट से हमें यह परिलक्षित होगा कि लोग अपने धन को सुरक्षित रखने के लिए किस तरह का रवैया अख्तियार करेंगे. हमने देखा है कि जब भी कोई बडी रिस्क सामने आती है तो आमतौर पर निवेशक बांड को एक सुरक्षित एसेट मानकर उसकी ओर वापस भागते हैं, इस बार भी ऐसा ही कुछ होने की उम्मीद है. भले ही यूक्रेन पर रूसी आक्रमण से तेल की कीमतों में अत्यधिक वृद्धि होने और मुद्रास्फीति का जोखिम सामने हो फिर भी ऐसा ही करेंगे.
पहले से ही काफी उच्च स्तर पर चल रही मुद्रास्फीति (इन्फ्लेशन) और ब्याज दर में वृद्धि की संभावना के कारण बॉन्ड बाजारों के लिए इस साल की मुश्किलों भरी शुरुआत हुई है. अमेरिका की 10 वर्षीय इंट्रेस्ट रेट्स तो अभी भी 2% के की-लेवल के करीब मंडरा रही हैं और 2019 के बाद पहली बार जर्मनी की 10 वर्ष की yield 0% से ऊपर है. रूस-यूक्रेन संघर्ष तो इस स्थिति में और भी ज्यादा बदलाव ला सकता है.
विदेशी मुद्रा बाजारों में, यूरो/स्विस फ़्रैंक एक्सचेंज रेट को यूरो क्षेत्र में जिओपॉलिटिकल रिस्क के सबसे बड़े संकेतक के रूप में देखा जाता है क्योंकि स्विस मुद्रा को लंबे समय से इनवेस्टर्स एक सुरक्षित आश्रय के रूप में मानते रहे हैं. यूरो/स्विस फ़्रैंक एक्सचेंज रेट विगत जनवरी के अंत तक मई 2015 के बाद से अपने सबसे मजबूत स्तर पर पहुंच गई थी.
अब आर्थिक जानकार समझ सकते हैं कि यह लेवल किस तरह के जिओपॉलिटिकल रिस्क का संकेत दे रहा है. धन को सुरक्षित रखने के आश्रय को जानने के उद्देश्य से इस आर्टिकल को पढ़ रहे रीडर्स के लिए यह जानकारी भी महत्वपूर्ण है कि वह सोना 13 महीने के अपने शिखर पर अभी भी टिका हुआ है, जिसे किसी बड़े संघर्ष या आर्थिक संकट के दौरान भी सबसे अच्छी फाइनेंस शेल्टर माना जाता है.
कई कंपनीज होंगी प्रभावित
पश्चिम जगत की लिस्टेड फर्में भी रूसी आक्रमण के परिणामों से खासा प्रभावित हो सकती हैं. ऊर्जा फर्मों के रेवेन्यू या मुनाफे में कोई भी झटका इस युद्ध के जरिए लगता है तो वे तेल की कीमतों में उछाल करके इसकी भरपाई की कोशिश करेंगी.
ब्रिटेन की बीपी की रोसनेफ्ट में 19.75% हिस्सेदारी है, जो इसके उत्पादन का एक तिहाई है. रूस के पहले एलएनजी संयंत्र, सखालिन 2 में शेल की 27.5% हिस्सेदारी है, जो देश के कुल एलएनजी निर्यात का एक तिहाई है.
अमेरिकी ऊर्जा फर्म एक्सॉन रूस की सखालिन -1 तेल और गैस परियोजना के माध्यम से संचालित होती है. इसमें भारत की ऑयल एंड नेचुरल गैस कॉर्प की भी हिस्सेदारी है. इन सब पर इस संकट का परिणाम पड़ेगा.
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