पाकिस्तान की सियासत में हमेशा से ही उठापटक होता रहा है, मुल्क को कभी भी स्थिर सरकार नसीब नहीं हुई. पाकिस्तानी हुकमरानों ने अपने-अपने तौर तरीकों से देश को चलाने की हर कोशिश की, लेकिन ज्यादा सफल होते नहीं दिखे.
कहानी 1977 के चुनाव से जुड़ी है
जुल्फिकार अली भुट्टो के लिए साल 1977 के आम चुनाव में अपनी साख को बचाए रखने की चुनौती थी. देशभर में सरकार के खिलाफ काफी आक्रोश था. इसके बावजूद भुट्टो चाहते थे कि आम चुनाव में उन्हें दो तिहाई बहुमत से सरकार बनाने का मौका मिले.
पाकिस्तान के धार्मिक मामलों के तत्कालीन मंत्री कौसर नियाजी अपनी किताब- 'लास्ट डेज ऑफ प्रीमियर भुट्टो' में लिखते हैं,
"भुट्टो को पता था कि इस चुनाव में दो तिहाई बहुमत से जीत पाना लगभग नामुमकिन है लेकिन भुट्टो के सीनियर अधिकारियों ने भुट्टो को ये यकीन दिला दिया था कि ऐसा हो सकता है."
दूसरी ओर विपक्ष की 9 पार्टियों ने पीएनए नाम का एक गठबंधन बनाया. इस गठबंधन का मकसद भुट्टो को सत्ता से उखाड़ फेंकने का था.
लिहाजा जुल्फिकार अली भुट्टो की पीपुल्स पार्टी ने सभी 200 सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े कर दिये. इनमें से 19 सीटों पर पार्टी को निर्विरोध जीत मिल गई. भुट्टो भी लरकाना की सीट से निर्विरोध जीतना चाहते थे. इसके लिए उन्होंने विपक्षी पार्टी के उम्मीदवार मौलाना जान मुहम्मद अब्बासी के सामने सीट छोड़ने की पेशकश की.
लरकाना सीट जुल्फिकार अली भुट्टो के लिए इसलिए भी खास था क्योंकि भारत-पाकिस्तान के बंटवारे के बाद उनके पिता भागकर लरकाना आए थे, भुट्टो के पिता शाह नवाज भुट्टो आजादी के पहले तक जूनागढ़ रिसासत के दीवान थे. पाकिस्तान के लरकाना आने के बाद शाह नवाज भुट्टो लरकाना के जमींदार बन गए और उनका इस इलाके में काफी रसूख था. इसी रसूख को बनाए रखने के लिए भुट्टो लरकाना से निर्विरोध जीतना चाहते थे.
बहरहाल भुट्टो की ओर से डील की गई कि अगर मौलाना जान मुहम्मद अब्बासी लरकाना की सीट छोड़ दें और किसी दूसरी सीट से चुनाव लड़ लें तो इसके एवज में भुट्टो की पीपुल्स पार्टी की ओर से उस सीट पर कोई उम्मीदवार नहीं उतारा जाएगा.
लेकिन मौलाना जान मुहम्मद अब्बासी ने भुट्टो की शर्त ठुकरा दी और लरकाना सीट से चुनाव लड़ने के लिए अड़ गए. अब्बासी के इनकार से भुट्टो के लरकाना सीट से निर्विरोध चुनाव जीतने के सपने पर जैसे पानी फिर गया.
भुट्टो पर लगे थे अपहरण के आरोप
19 जनवरी 1977 को नॉमिनेशन भरने की आखिरी तारीख थी. इस रोज मौलाना जान मुहम्मद अब्बासी अपना नामांकन दाखिल करने जा रहे थे लेकिन वह अचानक 'गायब' हो गए. ब्रितानी पत्रकार ओवेन बेनेट जोन्स ने अपनी किताब- ‘द भुट्टो डाइनेस्टी द स्ट्रगल फॉर पॉवर इन पाकिस्तान’ में इस वाकये का जिक्र किया है. ओवेन ने अपनी किताब में तत्कालीन वित्त, राजस्व और आर्थिक मामलों के मंत्री हाफिज पीरजादा के हवाले से लिखा है कि मौलाना जान मुहम्मद अब्बासी के कथित तौर अगवा किये जाने के बाद से ही 1977 आम चुनाव में धांधली करने की शुरुआत हुई.
लेकिन कौसर नियाजी ने अपनी किताब में इस घटना का वर्णन अलग तरह से किया है.
कौसर नियाजी लिखते हैं, "राष्ट्रीय चुनाव के लिए नामांकन पत्र दाखिल करने की अंतिम तिथि 19 जनवरी को थी.उसी शाम की खबर प्रसारित की गई थी कि प्रधानमंत्री भुट्टो अपनी सीट से निर्विरोध जीत गई हैं. रेडियो और टीवी पर प्रधानमंत्री भुट्टो की निर्विरोध जीत की चर्चा थी. अगली सुबह सारे अखबार में पीएम भुट्टो की तस्वीर छपी थी."
उन्होंने लिखा, "हालांकि बाद की रिपोर्टों के अनुसार, मौलाना जान मुहम्मद अब्बासी को 18 जनवरी की शाम को पुलिस ने हिरासत में ले लिया था और अगली दिन नामांकन पत्र दाखिल करने का समय खत्म होने के बाद रिहा कर दिया."
बहरहाल 7 मार्च 1977 को चुनाव कराए गए. चुनाव नतीजे आने के बाद लोगों को लिए यकीन करना मुश्किल हो गया था कि भुट्टो को इतनी बंपर जीत मिली है. भुट्टो को 200 सीटों में से 155 सीटों पर जीत मिली थी जबकि विपक्षी गठबंधन को एड़ी-चोटी के जोर लगाने के बावजूद 36 सीटें ही मिल पाईं थीं.
चुनाव में धांधली का आरोप
नतीजों के बाद विपक्ष ने चुनाव में धांधली के आरोप लगाए. दरअसल धांधली के आरोप इस वजह से भी लग रहे थे क्योंकि भुट्टो की राह पर चलते हुए पीपुल्स पार्टी के करीब 17 उम्मीदवारों ने अपनी सीट पर निर्विरोध लड़े और जीते. तब आरोप लगा कि पीपुल्स पार्टी ने पीएनए गठबंधन के उम्मीदवारों को ठिकाने लगा दिया.
विपक्षी गठबंधन ने दोबारा चुनाव कराने की मांग की और देश में आंशिक मार्शल लॉ लगाना पड़ा.
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