द्वितीय विश्वयुद्ध (2nd World War) के बाद कोरिया को 38वें पैरालल से दो हिस्से में बांटा गया. 38 वां पैरालल यानि वो सीमा जहां से एक तरफ अमेरिकी असर वाला साउथ कोरिया है तो दूसरी तरफ सोवियत वाला नॉर्थ कोरिया.
यूक्रेन के मिलिटरी इंटेलिजेंस प्रमुख ने 27 मार्च को कहा था कि हो सकता है कि क्रेमलिन यूक्रेन को दो भागों में बांटने पर काम कर रहा है. ठीक उसी तरह जैसे द्वितीय विश्व युद्ध के बाद कोरिया को बांटा गया. यूक्रेन के पूर्वी हिस्से को रूस अपने नियंत्रण में रखना चाहेगा. ये सब बातें तब उन्होंने कही जब राष्ट्रपति जेलेंस्की ने उसी दिन कहा था वो रूस-नियंत्रित डोनबास क्षेत्र पर "समझौता" करना चाहते हैं.
ब्लादिमीर पुतिन ने 24 फरवरी को यूक्रेन पर आक्रमण किया. अब 33 से ज्यादा दिन से युद्ध चल रहा है। पूर्व की भारी सैन्य श्रेष्ठता के बावजूद यूक्रेन अभी भी उसके सामने मजबूती से खड़ा है और रूसी सैनिकों और टैंकों से लड़ रहा है.
यूक्रेन के साथ "कोरियाई परिदृश्य" जैसा कुछ किए जाने के बारे में जनरल किरीलो बुडानोव ने अनुमान लगाया. उनका कहना था कि "ऐसा लगता है कि पुतिन हमारे देश के कब्जे वाले और 'आजाद' इलाकों में लकीर खींचने की कोशिश कर सकते हैं. रेडियो फ्री यूरोप और रेडियो लिबर्टी के साथ बात में उन्होंने कहा- असल में यूक्रेन में नॉर्थ कोरिया और साउथ कोरिया जैसा बंटवारा करने का प्लान हो सकता है.
अगर सच में ऐसा कुछ होता है तो कीव को यूक्रेन का एक बड़ा हिस्सा क्रेमलिन के पास सरेंडर करना होगा. ये बहुत हद तक यूक्रेन का पूर्वी हिस्सा होगा जहां रूसी भाषा बोलने वाली जनता ज्यादा है.
जहां यूक्रेन को दो हिस्से में बांटने की बात अभी सिर्फ अटकलें हैं, इसे कोरिया में 1945 में जो कुछ हुआ उसे जानने के बाद पुख्ता तौर पर इसे समझा जा सकता है.
कोरिया क्यों बांटा गया ?
बंटवारे से पहले कोरिया 35 वर्षों के लिए एक जापानी उपनिवेश था. 1910 की जापान-कोरिया संधि ने दरअसल कोरिया पर जापानी शासन को औपचारिक रूप दे दिया था. ऐसा तब से हो रहा था जबसे 1905 में जापान ने रूस के खिलाफ युद्ध जीता था.
अब साल 1945 पर आते हैं जब जापान, सेकेंड वर्ल्ड वॉर हार गया और मित्र देशों के सामने सरेंडर कर दिया. हालांकि अभी तक इस पर विद्वानों में कोई सहमति नहीं है कि आखिर जापान के सरेंडर के बाद ऐसा क्या हुआ कि कोरिया को बांटने का फैसला किया गया. कुछ कहते हैं सोवियत संघ ने पूरे कोरिया पर दावा किया था क्योंकि सोवियत संघ ने जापान को हराया था और कोरिया उनके लिए इनाम था.
जबकि अमेरिका के साथ निगोशिएशन में इलाके को दो हिस्से में बांटने का फैसला लिया गया. बाद में अमेरिकी राष्ट्रपति, हैरी ट्रूमैन ने कहा था कि "उस समय जापानी सरेंडर को मंजूर करने के लिए ऐसे बंटवारे के सिवाय कोई और विकल्प नहीं था "
सभी विद्वानों में तमाम असहमतियों के बाद भी सबसे लोकप्रिय सिद्धांत शीत युद्ध के इतिहासकार जॉन लुईस गद्दीस ने रखा है. इसमें उनका कहना है कि कोरिया के बंटवारे का लक्ष्य "सुदूर पूर्व में आने वाले क्षेत्रों में रूसी नियंत्रण को कम करना था.
विभाजन के पीछे जो भी तर्क हो, अमेरिका समर्थित दक्षिण कोरिया और सोवियत समर्थित उत्तर कोरिया के बीच तनाव कभी कम नहीं हुआ. दक्षिण में सिनगमैन री और उत्तर में किम इल-सुंग की अगुवाई वाली दोनों ही सरकारें अपना अपना दावा कोरिया पर करती रही. दोनों ने ही खुद को कोरिया का वैध शासक बताया . बॉर्डर पर झगड़े खूब होते थे. साउथ कोरिया में जनता री के भ्रष्ट और तानाशाही भरे शासन के तौर तरीके से तंग आ गई. किम इल सुंग ये मानता था कि साउथ कोरिया में कम्यूनिस्ट सरकार से बगावत कर रहे हैं और अगर नॉर्थ कोरिया , साउथ पर आक्रमण करता है तो स्थानीय जनता इसका स्वागत करेगी.
लगातार उत्तर-दक्षिण में तनाव और यह धारणा कि दक्षिण कमजोर और बिखरा हुआ है.किम इल-सुंग ने स्टालिन से साउथ कोरिया पर युद्ध शुरू करने की अनुमति मांगी. आखिर अप्रैल 1950 में स्टालिन ने इस शर्त पर जंग के लिए हां कर दिया कि कोरियाई कम्युनिस्टों की सहायता के लिए माओ चीनी सैनिक भेजें. आखिर युद्ध 25 जून को शुरू हो गया जब उत्तरी कोरिया की फौज 38वें पैरालल यानि सीमा रेखा को पार कर फायरिंग करने लगी. (हालांकि कुछ विद्वान कहते हैं कि फायरिंग पहले साउथ कोरिया ने की)
फिर 19 अक्टूबर को जंग में चीन भी शामिल हो गया. तीन साल के रक्तपात के बाद, कोरियाई युद्धविराम समझौते पर योद्धाओं ने दस्तखत किए . इसमें शांति समझौता होने तक दोनों देशों में शत्रुता समाप्त करने की बात कही गई. तब से 7 दशक बीत चुके हैं लेकिन कोई सुलह नहीं हुई और दोनों कोरिया तकनीकी तौर पर अभी भी युद्धरत हैं.
यूक्रेन का कोरिया जैसा हाल
यदि यूक्रेन को ऐसे ही हाल से गुजरना पड़ता है, तो इसका मतलब देश के पूर्वी और पश्चिमी हिस्सों के बीच विभाजन होगा. एक क्रेमलिन समर्थक कठपुतली शासन पूर्व में स्थापित किया जाएगा, जैसा कि 2014 यूरोमैडन क्रांति से पहले विक्टर यानुकोविच का शासन था.
पश्चिमी यूक्रेन में नाटो और यूरोपीय संघ जैसे संस्थानों और अमेरिका और ब्रिटेन जैसे देशों से घनिष्ठ संबंधों को भारी समर्थन हासिल है, जहां लोग लोकतंत्र और उदारवादी ख्यालों से ज्यादा आकर्षित हैं. जबकि पूरब में ऐसा नहीं है.
कीव इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ सोशियोलॉजी और अन्य शोध केंद्रों के सर्वेक्षणों के अनुसार, देश के पूर्वी हिस्से में, संसदीय चुनावों में या यूरोपीय संघ और नाटो में शामिल होने के पक्ष में पश्चिमी यूक्रेन की तुलना में कम मतदान की संभावना है. इसमें ये भी जोड़ लें कि पूर्वी इलाके में रूसी भाषा बोलने वालों की तादाद ज्यादा है. अगर हम ये बात समझें कि क्यों अमेरिका ने कोरिया के बंटवारे पर बल दिया तो पुतिन का इरादा और साफ हो जाता है. वो यूक्रेन में अमेरिका, यूरोप और नाटो जिसे वो रूस के लिए खतरा मानते हैं, के असर को कम करना चाहते हैं। यूक्रेन इस मामले में बफर जोन है.
वह उस प्रभाव को कम करना चाहते हैं जिसकी वजह से 2014 में क्रेमलिन समर्थक यानुकोविच की सरकार को लोगों ने बाहर कर दिया और पेट्रो पोरोशेंको और ब्लाडिमिर जेलेंस्की के नेतृत्व वाली बाद की सरकारों ने पश्चिम-समर्थक विदेश नीति शुरू की.
बंटवारा हुआ तो क्या होगा?
पुतिन उस बफर को वापस चाहते हैं. पूर्व में क्रेमलिन-नियंत्रित कठपुतली शासन उनके हित को पूरा करेगा.
यूक्रेन में पूर्व-पश्चिम बंटवारे से जो समस्याएं पैदा हो सकती हैं, वे वैसी ही हैं जैसी सात दशक पहले कोरिया में हुई थीं. पश्चिम और पूर्व के जो अपने अपने संरक्षक होंगे उससे दोनों ही इलाके में सियासी तनाव हमेशा बढ़ा रहेगा. सीमा पर संघर्ष जरूर होंगे. राजनीतिक सौदेबाजी या सैन्य अभियानों को वाजिब ठहराने के लिए झंडे फहराए जाने को हथियार बनाया जाएगा. कोरिया, वियतनाम और कुछ हद तक युद्ध के बाद की जर्मनी का इतिहास बताता है कि तनाव के मूल कारणों को हल किए बिना किसी देश का बंटवारा केवल दूसरे संघर्ष को जन्म देगा. युद्ध का खतरा कभी नहीं मिटेगा और हथियारों की होड़ इसे और बदतर बना देगी.
इसलिए, यदि यूक्रेन-रूस युद्ध वास्तव में 'कोरियाई परिदृश्य' के साथ समाप्त होता है, तो सुपर पावर के संरक्षण में फिर एक नए प्रकार का संघर्ष बढ़ेगा, जो खतरनाक बयानबाजी, सीमा संघर्ष, हथियारों की दौड़ वाली होगी.
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