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बीजेपी अटल का जन्‍मदिन मनाएगी, पर क्‍या उनकी बात भी मानेगी?

संसदीय गतिरोध तोड़ने के लिए कितनी बार सर्वदलीय बैठक बुलाई गई?

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वैसे तो पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को याद करने के कई मौके और प्रसंग हैं. संसदीय राजनीति की मर्यादा बनाए रखने की जद्दोजहद, राजनीति की शुचिता, असहमति के बीच सहमति ढूंढने की राजनीति, राजनीतिक विरोधियों को शत्रु न समझने का साफ दिल.

गठबंधन की राजनीति में सबको साथ लेकर चलने जैसे दुर्लभ राजनीतिक मूल्यों के कारण वाजपेयी को याद किया जाता है. ऐसा उदाहरण आज के दौर की राजनीति में ढूंढने पर भी नहीं मिलता.

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बीजेपी वाजपेयी के जन्मदिन को अटल सप्ताह के रूप में मना रही है. चुनावी राज्यों में पार्टी वाजपेयी शासन की याद दिलाने के लिए 'सुशासन दिवस' के तौर पर ढेर सारे कार्यक्रम कर रही है. यूपी और उत्तराखंड में खास कार्यक्रम होना है, जहां वाजपेयी की ब्रांड वैल्यू अभी भी लोगों के दिलों में एक खुशनुमा अहसास कराती है. लेकिन सवाल ये है कि वाजपेयी ने जिन राजनीतिक मूल्यों की स्थापना के लिए कई बार दलगत राजनीति से ऊपर ऊठकर काम किया, क्‍या बीजेपी उन मूल्यों की कोई चिंता कर रही है?

बीजेपी मार्गदर्शक मंडल और वाजपेयी के बाद पार्टी के सबसे वरिष्ठ संस्थापक सदस्य लालकृष्ण आडवाणी ने पिछले हफ्ते संसद में कामकाज न चलने पर नाराजगी जाहिर की. संसद के शीतकालीन सत्र के खत्‍म होने के बाद यूपी के चुनावी प्रचार में प्रधानमंत्री ने कानपुर और बनारस में कहा सरकार भ्रष्‍टाचार और कालाधन रोकने में लगी है, जबकि विपक्ष संसद को रोकने में लगा है. ऐसे में जन्मदिन के बहाने वाजपेयी को याद करना लाजिमी है.

जब वाजपेयी ने पार्टी की भी नहीं सुनी

अप्रैल का महीना था और साल 2001. संसद का बजट सत्र चल रहा था. तहलका ने रक्षा सौदे में घोटाले का पर्दाफाश करने के लिए स्टिंग ऑपरेशन किया था. वाजपेयी सरकार बैकफुट पर थी और विपक्ष आक्रामक. कई हफ्ते संसद बाधित रहा, कामकाज नहीं हुआ.

पहले विपक्ष ने वाजपेयी सरकार का इस्तीफा मांगा, फिर रक्षा मंत्री जार्ज फर्नांडि‍स के इस्तीफे पर उतरी. लेकिन सरकार के मना करने और विरोध लंबा खिंचने पर कांग्रेस पूरे एपिसोड की संसद की संयुक्त समिति से जांच पर अड़ गई. रेल बजट को बिना बहस के पारित करना पड़ा. स्पीकर बालयोगी के बुलाए सर्वदलीय बैठक का कोई नतीजा नहीं निकला, लेकिन बजट के भी बिना बहस के पारित होने की बढ़ती आशंकाओं से वाजपेयी दुखी थे.

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गतिरोध खत्म करने के लिए वाजपेयी ने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को एक पत्र लिखा. प्रधानमंत्री के विपक्ष की नेता को पत्र लिखने से आरएसएस खुश नहीं था. वाजपेयी पर विपक्ष को ज्यादा रास्ते न देने का जबरदस्‍त दबाब था. लेकिन वाजपेयी ने एक कदम और बढ़ाते हुए चाय पर सोनिया गांधी से प्रमोद महाजन के साथ मुलाकात कर डाली.

उस समय के अखबारों ने इसे शिखर वार्ता तक का नाम दिया. बैठक के बाद सरकार और विपक्ष में सहमति बनी कि कांग्रेस बहस में शामिल होगी और तहलका मामले की जेपीसी की विपक्ष की मांग पर बहस के दौरान सरकार खुले दिल से विचार करेगी. लेकिन बाद में कांग्रेस ने रणनीति बदल ली.

कांग्रेस अध्यक्ष को जबाब देते हुए वाजपेयी ने संसद में तल्खी से जबाब दिया कि उनके 40 साल के संसदीय जीवन का मूल्यांकन किया जा रहा है. उन पर सवाल उठाए जा रहे हैं, इन दिनों के लिए वो संसद नहीं आए थे. वाजपेयी के तल्ख भाषण के बाद कांग्रेस वायदे से पीछे हट गई और स्पीकर बालयोगी को सदन को अनिश्चितकाल के लिए स्थगित करना पड़ा.

सदन की समाप्ति के बाद संसदीय कार्यमंत्री प्रमोद महाजन और गृहमंत्री आडवाणी सोनिया गांधी को धन्यवाद कहने गए, तो सोनिया वाजपेयी को निशाना बनाते हुए आडवाणी पर गुस्सा हो बैठीं. सोनिया ने कहा, ''मेरे पति को झूठा बताया गया, मेरी सास को नहीं छोड़ा गया. मेरे बच्चों तक के लिए अभद्र भाषा का इस्तेमाल हुआ.''

आडवाणी ने सारा किस्सा वाजपेयी को सुनाया. दुखी वाजपेयी ने इस घटना पर एक वक्तव्य जारी किया. वाजपेयी ने कहा, "यह सत्ता पक्ष और विपक्ष, दोनों का कर्तव्य है कि संसद चले और बहस का स्तर नई ऊंचाई पर पहुंचे. लोकतंत्र में फैसले बहुमत और सहमति से लिए जाते हैं, न कि संसद को बाधित कर."

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संसद चलाना मुख्यत: सरकार की जि‍म्मेदारी होती है. वाजपेयी सरकार ने तहलका कांड के बाद हंगामे के शोर-शराबे को खत्म कर संसद चलाने के लिए दो बार सर्वदलीय बैठक बुलाई, विपक्ष की नेता को पत्र लिखा. रिश्तों में तल्खी खत्म करने और विपक्ष को सम्मान देने के लिए सोनिया गांधी से व्यक्तिगत मुलाकात की, पर क्या नोटबंदी पर ठप संसद को चलाने के लिए मोदी सरकार ने वाजपेयी से सीखते हुए कोई पहल की?



संसदीय गतिरोध तोड़ने के लिए कितनी बार सर्वदलीय बैठक बुलाई गई?
(फोटो: Bjp.org)

वाजपेयी ने देशहित में सुनी विपक्ष की आवाज

एक दूसरा उदाहरण भी गौर करने लायक है. मार्च 2003 की बात है. संसद का बजट सत्र चल रहा था. अमेरिकी नेतृत्व वाली संयुक्त सेना ने इराकी राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन को हटाने के लिए इराक पर हमला बोल दिया था. संसद में जमकर हंगामा हुआ और संसद से अमेरिकी हमले के खिलाफ एक सर्वसम्मत प्रस्ताव पारित करने की मांग उठी.

वाजपेयी की दुविधा यह थी कि ईराक से सदियों पुरानी दोस्ती के कारण भारत ईराक के साथ खड़ा दिखना चाहता था, लेकिन अमेरिका को भी नाराज नहीं करना चाहता था. पूरा विपक्ष अमेरिका के खिलाफ कठोर प्रस्ताव पारित करना चाहता था. मामला गहरे कूटनीतिक संबंधों का था, लिहाजा सरकार ने प्रस्ताव की भाषा पर सहमति के लिए सर्वदलीय बैठक बुलाई.

बैठक में वामपंथी पार्टियां और सपा प्रस्ताव की भाषा में अमेरिकी हमले को अस्वीकार्य (अनएक्सेप्‍टेबेल) शब्द लिखने पर अड़ी थी और हमले का विरोध के लिए निंदा (कन्डेम) शब्द के इस्तेमाल पर जोर डाल रही थी. प्रस्ताव को तैयार कर रहे संसदीय कार्यमंत्री प्रमोद महाजन, वित्त मंत्री जसवंत सिंह, विदेश मंत्री यशवंत सिन्हा मामले की संजीदगी देखते हुए इन दोनों शब्दों को प्रस्ताव में शामिल करना नहीं चाहते थे.

मामला वाजपेयी की अदालत में पहुंचा. वाजपेयी ने अपने सहयोगी मंत्रियों की पूरी बात सुनी, फिर कहा क्या फर्क पड़ता है, भाव तो दोनों शब्दों का एक ही है, लोकतंत्र में चीजें ऐसी ही चलती है. 7 अप्रैल, 2003 को लोकसभा से सर्वसम्मत प्रस्ताव पारित हुआ, जिसमें निंदा की जगह 'डिप्लोर' शब्द का इस्तेमाल किया गया और अस्वीकार्य को अपनी जगह रहने दिया गया.

प्रस्ताव था, "देश की जनभावना को प्रतिबिंबिंत करता हुआ ये सदन संप्रभु राष्ट्र ईराक के खिलाफ अमेरिकी गठबंधन सेना की कार्रवाई की निंदा करती है. इराकी सरकार को बदलने की यह अमेरिकी सैन्य कार्रवाई अस्वीकार्य है.'' वाजपेयी ने विपक्ष की बात भी मानी और सरकार की भी मनवाई. बीच का रास्ता निकाला और संसद का गतिरोध तोड़ा.

क्या वाजपेयी के मूल्य बीजेपी के लिए प्रासंगिक नहीं रहे?

वाजपेयी की संसदीय मर्यादा और सहमति की राजनीति से बीजेपी और मोदी सरकार ने संसद के पिछले सत्रों में कुछ सीखा है?

संसदीय गतिरोध तोड़ने के लिए कितनी बार सर्वदलीय बैठक बुलाई गई? सदन शुरू होने से पहले एक औपचारिक सर्वदलीय बैठक के अलावा एक भी नहीं. गतिरोध तोड़ने के लिए सरकार और विपक्ष के बीच सत्र के दौरान कितनी बैठकें हुईं? प्रधानमंत्री तो छोड़िए, संसदीय कार्यमंत्री ने भी विपक्ष के महत्वपूर्ण नेताओं के कमरे में जाकर गतिरोध तोड़ने के लिए चाय नहीं पी.

लोकसभा में प्रचंड बहुमत के बाद भी सरकार नोटबंदी पर मत विभाजन वाले प्रस्ताव पर बहस से भागती रही और विपक्ष तो बिना किसी रणनीति के संसद को ठप कराता रहा. इसलिए सिर्फ विपक्ष के सिर ठीकरा फोड़ना न जायज है, न तथ्यों और परंपराओं का सही मूल्यांकन.

संसद का बजट सत्र तीन हफ्ते के बाद दोबारा शुरू होगा, लेकिन वाजपेयी के जन्मदिन पर केक काटते वक्त सरकार बीजेपी के संस्थापक सदस्य लालकृष्ण आडवाणी के अकेलेपन और पीड़ा पर जरूर चिंतन करे कि वाजपेयी के मूल्य लोगों के बीच तभी जिंदा रहेंगे, जब बीजेपी खुद उन मूल्यों पर चलेगी.

वाजपेयी आज बोल नहीं सकते, पर उनके शब्द गुंजायमान हैं. सरकारें संख्याबल से चलती हैं, पर संसद आम सहमति से चलनी चाहिए.

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(शंकर अर्निमेष जाने-माने पत्रकार हैं. इस आलेख में प्रकाशित विचार लेखक के हैं. आलेख के विचारों में क्‍व‍िंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)

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