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लॉकडाउन ने लोकतंत्र की कमजोरी को किया बेनकाब,आ गया बदलाव का वक्त  

महामारी से निपटने के लिए सरकारों ने फरमानों के साथ जो लॉकडाउन लागू किया है वो लोकतंत्र के नियमों का उल्लंघन है

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वक्त आ गया है कि हम अपने काम का आकलन करें, चाहे वो भारत के अंदर हो या विश्व स्तर पर. दुनिया भर की सरकारें इस महामारी का मुकाबला करने के लिए तैयार नहीं थीं. इसकी वजह साफ है. पूरे विश्व में सरकारें, खासतौर पर पश्चिमी देशों में, प्रदूषण फैलाने में इस कदर मशगूल रही हैं जैसे कि कोई कल आने ही नहीं वाला हो. अब प्रकृति ने पलटवार किया है और हम रास्ते तलाश रहे हैं.

और इस प्रक्रिया में, सरकारों ने अपने निर्देशों और परामर्शों से, हमारी स्वंतत्रता पर अंकुश लगा दिया है. कुछ लोग तो यह भी कहते हैं कि इसने लोकतंत्र की कमजोरी को बेनकाब कर दिया है. वहीं कुछ लोगों का मानना है कि मजबूत और निर्णायक सरकार, जो कि शक्तिशाली सत्ता अधिकार की निशानी होती है, अब एक सामान्य बात हो गई है.

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थॉमस हॉब्स ने प्रकृति के संदर्भ में मनुष्य के जीवन को ‘अकेला, लाचार, घिनौना, पाशविक और अल्पकालीन’ बताया है. हालांकि हम खुद को सभ्य बताते हैं, लेकिन सत्ता की असमान संरचना, दबंगों वाली जाति व्यवस्था, कमजोर तबकों से हृदयविदारक और नृशंस व्यवहार और लगातार बढ़ती आर्थिक असमानता ने भारत में गरीब आदमी की जिंदगी को और ज्यादा ‘कठोर, पाशविक और छोटी’ बना दी है. यह सब महामारी से पहले का सच था.

ल़ॉकडाउन लोकतंत्र के नियमों का उल्लंघन

इस महामारी से निपटने के लिए सरकारों ने अपने फरमानों के साथ जो लॉकडाउन लागू किया है वो लोकतंत्र के नियमों का उल्लंघन है, लेकिन इसकी एक जरूरत के तौर पर तारीफ की जा रही है, इसका स्वागत किया जा रहा है. यही वक्त है जब लोकतंत्र को अपने आदर्शों के लिए प्रतिबद्धता दिखाते हुए नागरिकों की रक्षा करनी चाहिए.

ऐसे कई देश हैं जहां लोकतांत्रिक अधिकारों की अवहेलना नहीं की गई है. लोगों की रोजी रोटी को बचाने की पूरी कोशिश की गई है. जिस तरीके से भारत में शिकंजा कसा गया है वैसा कहीं और नहीं हुआ. दूसरे देशों में सरकारों ने अपने फैसलों में पारदर्शिता रखी है और अपने नागरिकों की स्वतंत्रता के प्रति संवदेनशील रही है.

बोरिस जॉनसन, बीमारी से ठीक होने के बाद, अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए बेताब हैं और लोगों पर लगी पाबंदियों को खत्म करने के फैसले पूरी पारदर्शिता के साथ करने के लिए प्रतिबद्ध नजर आते हैं. ‘जॉब रिटेंशन स्कीम’ के तहत ब्रिटेन में छुट्टी पर रहने को मजबूर सभी कर्मचारियों को 80% सैलरी दी जाएगी. इस स्कीम में उन लोगों का भी ख्याल रखा जाएगा जो सेल्फ-इमप्लॉएड हैं. न्यायपालिका अपना काम कर रही है, जज अपने विवेक से रॉस्टर संभाल रहे हैं. जिंदगी पूरी तरह थम नहीं गई है.
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इस महामारी से निपटने के लिए सरकारों ने अपने फरमानों के साथ जो लॉकडाउन लागू किया है वो लोकतंत्र के नियमों का उल्लंघन है.

ऐसे कई देश हैं जहां लोकतांत्रिक अधिकारों की अवहेलना नहीं की गई है. लोगों की रोजी रोटी को बचाने की पूरी कोशिश की गई है.

दूसरे देशों में सरकारों ने अपने फैसलों में पारदर्शिता रखी है और अपने नागरिकों की स्वतंत्रता के प्रति संवदेनशील रही है.

लोकतांत्रिक पद्धति से जुड़े लोग ऐसे फरमान नहीं जारी कर रहे जिससे देश में तानाशाही नजर आ रही हो.

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फ्रांस में 11 मई से प्राइमरी स्कूल और दुकानें खुल जाएंगी. ऑस्ट्रिया में 10 लोगों के जमा होने की छूट दे दी गई है, रेस्टोरेंट और होटल कुछ शर्तों के साथ खोल दिए जाएंगे. स्पेन में बार और रेस्टोरेंट को 30% क्षमता की शर्त पर खोलने की इजाजत दे दी गई है.

जर्मनी में छात्र स्कूलों में लौट आए हैं. कुछ दुकानें खोलने की अनुमति मिल गई है. फॉक्सवैगन, कार निर्माता, ने अपना उत्पादन शुरू कर दिया है. अमेरिका में अलग-अलग राज्यों में महामारी का अलग असर देखने को मिल रहा है. कई राज्यों में बिजनेस शुरू हो गया है. 8 राज्य ऐसे हैं, जिन्होंने कभी घर पर रहने का आदेश जारी ही नहीं किया.

जॉर्जिया, ओक्लाहोमा और साउथ कैरोलीना में रेस्टोरेंट, मनोरंजन और गैर-जरूरी सेवाएं भी खुल गई हैं. गवर्नर क्वोमो ने ऐलान किया है कि न्यूयॉर्क के कुछ हिस्सों में वो लॉकडाउन की पाबंदियों को हटाना चाहते हैं. अमेरिका ने 2.2 ट्रिलियन डॉलर के जिस राहत पैकेज की घोषणा की है, उसमें बेरोजगारों को भरपाई भी शामिल है.

चीन ने लॉकडाउन के असर को काबू में रखा

पड़ोसी चीन, जहां इस महामारी का जन्म हुआ, ने लॉकडाउन के असर को काबू में रखा है. चीन की फैक्ट्रियों में उत्पादन लगातार जारी है. जहां दुनिया के बाकी देशों में पूर्ण या आंशिक लॉकडाउन है, चीन इसे एक व्यावसायिक अवसर मानता है और उसका रवैया बाकी देशों से अलग है. इसके अलावा चीन साउथ चाइना समुद्र में अपना दबदबा कायम करने की कोशिश कर रहा है. जहां दुनिया महामारी से निपटने में लगी है, चीन साउन चाइना सागर के द्वीपों के नाम बदलकर उस पर अपना प्रभुत्व स्थापित करने में लगा है.

इसी तरह, साउथ कोरिया में भी विकास की गाड़ी रुकी नहीं है. लोकतांत्रिक पद्धति से जुड़े लोग ऐसे फरमान नहीं जारी कर रहे जिससे देश में तानाशाही नजर आ रही हो.
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यही वक्त है जब हमें लोकतंत्र की अहमियत और उसके मूलभूत सिद्धांतों को दोहराना चाहिए. 2014 से भारत में लोकतंत्र का हनन जारी है. सोशल मीडिया पर सरकार की आलोचना करनेवालों को गिरफ्तार कर लिया जाता है. संस्थाएं हमारे पूर्वजों की उम्मीदों पर खरा नहीं उतर रही हैं. विधानसभा के स्पीकर, राज्यपाल, यूनिवर्सिटी के वीसी, चुनाव आयोग सबको आगे आकर अपनी संवैधानिक जिम्मेदारियों का निर्वहन करना, अपना अस्तित्व साबित करना होगा. लेकिन जो हो रहा है, तब भी जब महामारी नहीं थी, वो बिलकुल अलग है.

लोकतंत्र की भंगूरता साफ नजर आ रही है. आतंकवाद, आर्थिक मंदी और जंग के नाम पर सत्ता का केन्द्रीकरण करने की कोशिश निराशाजनक और खतरनाक है. इससे ठीक उलट, यही वो वक्त है जब सरकार, महामारी से लोगों को बचाने के नाम पर, अपनी ताकत का इस्तेमाल कर लोकतांत्रिक मूल्यों को कमजोर करती है, आलोचनाओं का स्वागत होना चाहिए, उसे सरकार की सूझबूझ को मजबूत करने का जरिया माना चाहिए.

देश की 1.35 अरब आबादी को सिर्फ 4 घंटे की मोहलत देकर सारे कारोबार को बंद कर देने के फैसले को जायज नहीं ठहराया जा सकता. इससे जो भगदड़ मची वो दरअसल लोकतंत्र पर एक धब्बा है. इसे कोरोना वायरस से निपटने की दक्षता और तुरंत फैसले लेने की क्षमता बताना सच के साथ खिलवाड़ करने जैसा है.

बिना सोचे समझे लिए गए इस फैसले की वजह से बेघर और लाचार लोगों की मुश्किलें बढ़ गईं. कई लोगों को सैंकड़ों किलोमीटर पैदल चलकर अपने घर जाना पड़ा. कुछ तो पहुंच भी नहीं सके. मैं तो सोच कर भी कांप उठता हूं कि इस तरह की तत्परता एक लोकतांत्रिक सरकार की संवैधानिक जिम्मेदारियों से कैसे मेल खाती हैं. दूसरी बात यह है कि भारतीय संविधान का स्वरूप सत्ता के इस केन्द्रीकरण की इजाजत देता है. इसका एकल स्वरूप हमारे संघीय ढांचे को कमजोर करता है. जिसकी वजह से हमारी लोकतांत्रिक पद्धति कमजोर होती है.

संवैधानिक तौर पर संघीय सरकार के पास राज्यों को नियंत्रित करने की बेतहाशा ताकत है. राज्यों के साथ राजकीय धन साझा करना, संविधान की सातवीं अनुसूची के मुताबिक राज्यों के लिए संसद के पास कानून बनाने का अधिकार होना, संसद के पास राज्यों से ज्यादा विधायी ताकत होना, ये सब कुछ एकल स्वरूप की सरकार के तामझाम के कुछ उदाहरण हैं.

इसके अलावा सरकार के पास आतंकवाद के मसले पर NIA और भ्रष्टाचार के मसले पर CBI की बेतहाशा ताकत है. जिनका कई मामलों में दुरुपयोग होता है. पिछले दिनों में सीबीआई के निदेशकों पर भ्रष्टाचार के आरोपों से एजेंसी की साख धूमिल हुई है.

24 मार्च को लॉकडाउन की घोषणा से पहले केन्द्र सरकार ने राज्यों के मुख्यमंत्रियों से, जिसमें कि बीजेपी शासित राज्य भी शामिल थे, इस बारे में कोई चर्चा नहीं की. इसके बाद नॉर्थ ब्लॉक से एक के बाद फरमान जारी किए गए जिनका जमीनी हकीकत से कोई वास्ता नहीं था. जिसमें लोगों और सामानों की आवाजाही से जुड़े फैसले भी शामिल थे.

व्यावसायिक संस्थानों से कहा गया कि वो अपनी माली हालत को नजरअंदाज कर सभी कर्मचारियों को वेतन दें. सरकार ने आपदा प्रबंधन कानून का इस्तेमाल करते हुए आदेश जारी किए जिसे लागू करना सभी राज्यों के लिए अनिवार्य हो जाता है. सरकार और ज्यादा ताकत हासिल करना चाहती है. भविष्य की बात करें तो भारत जैसे देश में ऐसी कोशिशें धराशायी हो जाएंगी. भारत की विविधता, प्रादेशिक आकांक्षाएं, जातीय संरचना और इन सबके ईदगिर्द मौजूद राजनीति ऐसी कोशिशों को नाकाम कर देंगीं. हम एक बदलाव के दौर से गुजर रहे हैं.

(लेखक कांग्रेस के राज्यसभा सांसद हैं.)

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