“बल्लीमारान के मुहल्ले की वो पेचीदा दलीलों-सी की गलियां, सामने टाल के नुक्कड़ पे बटेरों के कसीदे,
गुड़गुड़ाती हुई पान की पीकों में वो दाद वो वाह-वाह,
चंद दरवाजों पर लटके हुए बोसीदा-से टाट के कुछ परदे,
एक बकरी के मिमियाने की आवाज और धुंधलाई हुई शाम के बेनूर अंधेरे,
ऐसे मुंह जोड़ के चलते हैं यहां, जैसे चूड़ीवालान के कटरे की बड़ी बी जैसे,
अपनी बुझती हुई आंखों से दीवारे टटोले.
इसी बेनूर अंधेरी-सी गली कासिम से एक तरतीब चरागों की शुरू होती है,
एक पुराने सुखन का सफा खुलता है,
असदउल्ला खां गालिब का पता मिलता है.”
ये गुलजार साहब के कलम से निकला हुआ, मिर्जा गालिब के वक्त के बल्लिमरान की तस्वीर है. पुरानी दिल्ली का बल्लिमरान, जहां उर्दू के शायर या यूं कहिए उर्दू के शेक्सपीयर मिर्जा गालिब एक लंबे अरसे तक रहे. आइए उनकी पुण्यतिथि पर आज उर्दूनामा में हम याद कर रहे हैं उसी महान शायर को.
उर्दू के मशहूर शायर मिर्जा गालिब की तारीफ में अब मैं क्या कहूं, जिंदगी के हर पल, हर मौके पर गालिब का शेर बस ऐसे ही जुबां पर आ जाता है.
मिसाल के तौर पर, जब इंतजार की घड़ी लंबी हो जाती है, तब बेचैनी होती है, घबराहट होती है. तब गालिब का ये शेर खुद बा खुद जुबां पर आता है.
“कोई मेरे दिल से पूछे, तेरे तीर-ए-नीमकश को
ये खलिश कहां से होती, जो जिगर के पार होता”
इस पॉडकास्ट में आपकी मुलाकात हम गालिब के पड़ोसी से भी कराएंगे. दिल्ली के बल्लिमरान ही के गलियों में गालिब का पता एक और जगह से मिलता है, और वो है लेखक और स्कॉलर माज बिन बिलाल की किताब गजलनामा में से. माज ने अपनी किताब में गालिब की गजलें ट्रांस्लेट की हैं. सुनिए ये खास पॉडकास्ट और जानिए गालिब की जिंदगी की कहानी.
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