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देर से ही सही, पर अखिलेश ने पुराने बोझ को छोड़कर अच्छा ही किया है

क्या इतनी देरी से जनादेश समझने का खामियाजा अखिलेश को उठाना पड़ सकता है?

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सवाल यह नहीं है कि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने पुरानी समाजवादी पार्टी के बैगेज को क्यों छोड़ा. यह तो होना ही था. सवाल यह है कि ऐसा करने के लिए उन्होंने इतनी देरी क्यों की?

2012 के विधानसभा चुनाव का फैसला साफ था. समाजवादी पार्टी की जीत अपने कोर वोटर्स की बदौलत नहीं हुई थी. पिछली विधानसभा की तुलना में काफी कम मुस्लिम और यादवों का वोट समाजवादी को मिला था. यही वो दो ग्रुप हैं, जिन्हें सपा का स्तंभ माना जाता रहा है. इन्हीं दोनों गुटों को रिझाकर मुलायम सिंह यादव देश के सबसे बड़े राज्य में अपनी राजनीति चमकाते रहे. पूर्ण बहुमत फिर भी कभी नहीं ला पाए.

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लेकिन 2012 का चुनाव अलग था. पहली बार समाजवादी पार्टी को पूर्ण बहुमत मिला. वो भी तब, जब उसके कोर वोटर्स में उत्साह की कमी थी. पहली बार ऐसा हुआ कि ब्राह्मणों के एक बड़े तबके ने समाजवादी पार्टी को वोट दिया. एक-चौथाई राजपूतों का वोट भी सपा को मिला. सबसे ज्यादा कोयरी-कुर्मी का भी और दलितों का भी एक तबका सपा के साथ गया.

कुल मिलाकर 2012 का फैसला समाजवादी पार्टी के बदले हुए स्वरूप के लिए था, जिसकी अगुवाई अखिलेश यादव कर रहे थे. अपने चुनावी वादों- जिसमें लैपटॉप बांटना भी था- के जरिए भी अखिलेश नई समाजवादी पार्टी का ताना-बाना बुन रहे थे.

अखिलेश की सपा 'हमें सांप्रदायिक ताकतों से लड़ना है' जैसे एकाकी नारे वाली पार्टी नहीं थी. उसमें यूपी में निवेश लाने का वादा था. उसमें एक्सप्रेस-वे बनाने की बात होती थी. आईटी पार्क और मेट्रो रेल जैसे शब्द सुनने को मिलते थे. डिजिटल सुविधाओं से संपन्न गांवों के वादे भी थे. उत्तर प्रदेश के हर इलाके में बिजली पहुंचाने का भी भरोसा दिया जाता था. इन वादों को नई छवि वाले अखिलेश बता रहे थे, इसीलिए हर जाति, हर धर्म के लोगों ने भरोसा भी कर लिया.

एक और फैक्टर है, जिससे अखिलेश के कैंपेन को बल मिला. वो यह कि पड़ोसी राज्य बिहार में बदलाव की बयार बह रही थी. यूपी वालों को भी एक नीतीश कुमार की तलाश थी, जो विकास डिलिवर करे. अखिलेश में उन्हें शायद नीतीश कुमार नजर आया, जो वादों पर खरा उतरे. इससे पहले उत्तर प्रदेश ने सिर्फ धर्म और जाति की राजनीति देखी. अखिलेश ने उन्हें नए सपने देखने को प्रेरित किया और उत्तर प्रदेश के लोगों ने उनकी टीम के साथ चलने की हामी भरी.

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लेकिन मुलायम और उनके पुराने सहयोगी, जिनमें शिवपाल यादव भी शामिल हैं, 2012 के चुनाव की जीत को अपनी जीत समझ गए. 2014 के लोकसभा चुनाव तक तो अखिलेश की हैसियत पुराने समाजवादियों ने 'आधे मुख्यमंत्री' से ज्यादा नहीं रहने दी.

अखिलेश को बताए बिना बड़े फैसले हो जाते- सरकार में भी और पार्टी में भी. विरोध करने पर मुलायम सिंह यादव का एक ही जवाब होता, ‘’यह मत भूलो कि मैंने तुम्हें मुख्यमंत्री बनाया है.’’

2014 के लोकसभा चुनाव में करारी हार ने अखिलेश को झकझोरा. पहली बार टीपू (अखिलेश को परिवार वाले इसी नाम से जानते हैं) को लगा कि जो तलवार उन्हें मिली है, उसे चलाने का अधिकार भी उन्हीं को मिले. पहली बार उन्हें लगा कि पापा-चाचा और अंकल की गिरफ्त से निकला जाए. लेकिन 'खून-पसीने से सींचकर मैंने पार्टी बनाई है' बोलने वालों को यह कहां मंजूर था. झगड़ा तो होना ही था, सो वही हो रहा है.

लेकिन ताज्जुब की बात यह है कि जो जनादेश अखिलेश को मिला था, उसे पहचानने में उन्होंने इतनी देरी क्यों की? 2012 का जनादेश पुराने विचार वाली समाजवादी पार्टी के लिए तो बिल्कुल ही नहीं था. नेता जी यह मुगालता पालते रहे और अखिलेश उसमें हामी भरकर उस जनादेश का निरादर करते हैं.

क्या इतनी देरी से जनादेश समझने का खामियाजा अखिलेश को उठाना पड़ सकता है?

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