विधानसभा चुनाव में मुख्यमंत्री के तौर पर किसी को प्रोजेक्ट करने या न करने को लेकर हर पार्टी का अपना गणित होता है. बीजेपी भी इन विधानसभा चुनावों में फूंक-फूंककर कदम रख रही है. वह यूपी, उत्तराखंड और गोवा में सीएम उम्मीदवार के ऐलान से फिलहाल बच रही है. इसके पीछे पार्टी का सोचा-समझा हिसाब है.
चुनाव वाले राज्यों की चर्चा करने से पहले जरूरी है कि कुछ विधानसभा चुनावों में बीजेपी के अनुभवों पर एक नजर डाल ली जाए. असम चुनाव में बीजेपी ने केंद्रीय मंत्री सर्बानंद सोनोवाल को सीएम कैंडिडेट घोषित किया था, जिसका उसे भरपूर फायदा मिला. बिहार चुनाव में पार्टी ने किसी स्थानीय चेहरे को आगे करने की बजाए पीएम नरेंद्र मोदी के नाम पर चुनाव लड़ा, पर यह रणनीति काम नहीं आई.
इससे पहले दिल्ली चुनाव में किरण बेदी का नाम आगे करने को 'मास्टर स्ट्रोक' करार दिया जा रहा था, पर नतीजा सबके सामने है.
इन खट्टे-मीठे अनुभवों को देखते हुए बीजेपी अलग-अलग राज्य में वहां के हिसाब से रणनीति तय कर रही है. हालांकि इतना तय है कि किसी सीएम दावेदार के नाम के अभाव में पार्टी पीएम मोदी और उनकी सरकार के कामकाज के आधार पर ही प्रदेश की जनता को लुभाने की कोशिश करेगी.
राज के लिए तैयार नहीं 'नाथ'!
सबसे पहले बात उत्तर प्रदेश की. ऐसी चर्चा है कि बीजेपी यूपी में राजनाथ सिंह को कमान सौंपने को तैयार है, लेकिन गृहमंत्री खुद इसके लिए इच्छुक नहीं हैं. संभवत: केंद्र की राजनीति में अहम पद पर रहते हुए प्रदेश का रुख करने की सोच उन्हें रास नहीं आ रही है.
अगर पार्टी राजनाथ को आगे करती है, तो इसका फायदा यह हो सकता है कि पार्टी के नेता-कार्यकर्ता केंद्रीय नेता के नाम पर एकजुट होकर चुनाव में पूरा जोर लगाएं. लेकिन अभी के हालात में ऐसा लगता नहीं कि बीजेपी उनके नाम पर दांव लगाएगी.
वैसे सीएम पद के लिए पार्टी में कई स्थानीय दावेदार भी हैं, लेकिन किसी एक नाम की पतंग हवा में नहीं चढ़ पा रही है.
योगी आदित्यनाथ खुद कई बार अपनी दावेदारी पेश कर चुके हैं, लेकिन पार्टी उनका नाम आगे बढ़ाने का 'जोखिम' मोल लेने की हालत में नहीं है. बीजेपी चुनाव से ठीक पहले कट्टरपंथी छवि से बचने की हरसंभव कोशिश करना चाहेगी. वरुण गांधी का नाम भी सिरे नहीं चढ़ रहा. इसकी वजह यह है कि वरुण न तो पीएम नरेंद्र मोदी की 'गुड बुक' में आते हैं, न ही पार्टी अध्यक्ष अमित शाह कैंप के करीबी हैं.
फिलहाल पार्टी के भीतर इनके नाम पर आम सहमति बनाना भी टेढ़ी खीर है. साथ ही किसी एक नाम को आगे करने पर दूसरा खेमा 'खेल' खराब करने पर आमादा हो सकता है.
एक बड़ा तथ्य यह भी है कि बीजेपी यूपी में गैर यादव ओबीसी तबके को अपनी ओर लुभाने की कोशिश में है. इस पैमाने पर न राजनाथ, न आदित्यनाथ, न ही वरुण खरा उतरते हैं.
उत्तराखंड में भी किसी एक नाम पर मुहर नहीं
यूपी की तरह उत्तराखंड में भी पार्टी का सोचा-समझा गणित है. स्थानीय कद्दावर नेता के तौर पर बीजेपी के पास पूर्व सीएम भुवनचंद खंडूरी का चेहरा है, लेकिन उनकी राह में दो मुश्किलें हैं. वे भी अमित शाह के कैंप से ताल्लुक नहीं रखते. दूसरी बात यह कि पार्टी इस उम्रदराज नेता को 80 प्लस वाले फॉर्मूले के तहत चांस नहीं देगी.
टूट-फूट के नजरिए से बेहद संवेदनशील राज्य में बीजेपी गुटबंदी के जोखिम से जरूर बचना चाहेगी.
गोवा का सीन भी ज्यादा अलग नहीं
गोवा ही वह पहला राज्य है, जहां बीजेपी को किसी स्थानीय आरएसएस नेता की तरफ से खुले विद्रोह से जूझना पड़ा है. पार्टी मौजूदा सीएम लक्ष्मीकांत पारसेकर को भी अगले सीएम के तौर पर प्रोजेक्ट नहीं कर रही है. वजह यह है कि पारसेकर का कामकाज ऐसा नहीं रहा है, जिसे पार्टी चुनाव में वोटरों के बीच भुना सके.
केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने हाल ही में ऐलान किया कि पार्टी केंद्र के 'किसी' मंत्री को गोवा की कमान सौंपेगी. उन्होंने साफ-साफ मनोहर पर्रिकर का नाम नहीं लिया. खुद पर्रिकर ने भी गोवा लौटने की संभावना को खारिज नहीं किया है. उन्होंने बस इतना ही कहा, 'ये तो आगे देखने की बात है.'
पर्रिकर केंद्र की राजनीति में टीम मोदी से अच्छी तरह जुड़ चुके हैं. रक्षामंत्री के रूप में उनका अब तक का रिपोर्ट कार्ड भी बेहतर रहा है. ऐसे में उनके गोवा लौटने को लेकर अभी कुछ कहना जल्दबाजी होगी. बहुत मुमकिन है कि पार्टी दूर से ही पर्रिकर का चेहरा दिखलाकर गोवा में वोट बटोरने की ताक में हो.
तो आखिर तीनों राज्यों में बैकफुट पर क्यों है बीजेपी?
सवाल उठता है कि जहां अन्य क्षेत्रीय पार्टियां अपने जाने-पहचाने सीएम चेहरे के साथ चुनावी दंगल में जोश के साथ कूद रही हैं, वहां बीजेपी इस मोर्चे पर बैकफुट पर क्यों चली गई है.
इस बारे में सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसायटीज (सीएसडीएस) के हिलाल अहमद की टिप्पणी गौर करने लायक है. यूपी, उत्तराखंड और गोवा में सीएम कैंडिडेट के ऐलान से बचने के पीछे उन्होंने दो अहम कारण गिनाए.
इन तीनों ही राज्यों में बीजेपी का संस्थागत ढांचा बेहद लचर हो चुका है. कैडर बेस वाली पार्टी पिछले 3 साल से संगठन के नजरिए से खराब दौर से गुजर रही है. ऐसे में सीएम उम्मीदवार के नाम का ऐलान करने में जाहिर तौर पर पार्टी के सामने दिक्कतें आएंगी.हिलाल अहमद, सीएसडीएस
'ब्रांड मोदी' से बड़ा कोई नहीं!
2014 के लोकसभा चुनाव के वक्त से पार्टी की दिशा में बड़ा बदलाव देखने को मिल रहा है. जिस पार्टी की रणनीति कभी आरएसएस और अपने संगठन की सोच से तय होती थी, वह अब पूरी तरह मोदी पर केंद्रित हो गई है. पार्टी इन चुनावों में 'ब्रांड मोदी' पर ही आश्रित दिख रही है. इस बारे में हिलाल अहमद कहते हैं:
ब्रांड की राजनीति की खास बात यह होती है कि एक वक्त पर कोई एक ही ब्रांड हो सकता है, दो नहीं. जाहिर है ‘ब्रांड मोदी’ को आगे रखकर चलने वाली बीजेपी किसी और ब्रांड को नहीं उतार सकती.
कुल मिलाकर, बीजेपी मौजूदा हालात में 'थोड़ा ढको, थोड़ा दिखाओ' की रणनीति अपने लिए कारगर मानकर चल रही है. इन राज्यों के वोटर पार्टी की चुनावी चाल पर क्या रुख दिखाते हैं, यह जानने के लिए हमें 11 मार्च तक इंतजार करना होगा.
ये भी पढ़ें
विधानसभा चुनाव वाले 5 राज्यों में मनी और मसल पावर का कितना जोर?
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)