- यूपी इलेक्शन में ब्रांड मोदी और ब्रांड अखिलेश के बीच होगा मुकाबला
- मुस्लिम वोट बैंक पर है बीएसपी की नजर
- परिवार के बीच कलह का अखिलेश की छवि पर क्या पड़ सकता है असर
- इतिहास रचने के रास्ते पर हैं अखिलेश
- मोदी से होगा मुकाबला, क्योंकि परंपरागत राजनीति से हटकर विकास की राजनीति की डगर पर हैं अखिलेश
अपने जन्मदिन पर लखनऊ में कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए बीएसपी सुप्रीमो मायावती ने कहा कि बीएसपी ही अकेली पार्टी है, जो यूपी में बीजेपी को सत्ता में आने से रोक सकती है. मतलब साफ था मुस्लिम समुदाय को बीजेपी का भय दिखाना, ताकि मुस्लिम वोट समाजवादी पार्टी से छिटककर बहुजन समाज पार्टी की तरफ आए. लेकिन इससे एक और निष्कर्ष निकलता है कि मुस्लिम अभी भी सपा के साथ है. और असली मुकाबला अखिलेश और मुलायम के बीच चल रहे दंगल के बाद भी जमीन पर ब्रांड अखिलेश और ब्रांड मोदी में है.
बहनजी मुकाबले को त्रिकोणीय बनाने की भरपूर कोशिश कर रही है. अपने 13 प्रतिशत जाटव के साथ 19 प्रतिशत मुस्लिम पाने की आस में.
कम नहीं हुआ पीएम मोदी के प्रति आकर्षण
नोटबंदी, यूपी चुनाव में एक बड़ा फैक्टर है और ब्रांड मोदी की लोकप्रियता पर इससे कोई बुरा असर नहीं पड़ा है. लोग कहते हैं कि मोदी के मन में तो कोई खोट नही था ये ठीक से लागू नहीं हुआ. इस मुद्दे के चलने न चलने पर बीजेपी का चुनावी अंकगणित टिका है. लेकिन बीजेपी सिर्फ नोटबंदी के आसरे नहीं है. हर क्षेत्र के हिसाब से रणनीति बनाई गई है.
मोटे तौर पर बीजेपी के समर्थन में मुखर सवर्ण जातियों को लग रहा है कि मायावती और मुलायम से छुटकारा पाकर लखनऊ में सत्ता वापसी का उन्हें एक ऐतिहासिक मौका मिला है. वहीं 30 प्रतिशत की हिस्सेदारी वाले गैर यादव ओबीसी में ब्रांड मोदी की इमेज अभी भी मजबूत है. उन्होंने अभी मोदी से आस नहीं छोड़ी है.
अनुप्रिया पटेल को मंत्रिमंडल में जगह, प्रदेश अध्यक्ष केशव प्रसाद मौर्या को प्रदेश अध्यक्ष बनाकर बीएसपी से स्वामी प्रसाद मौर्या को तोड़कर बीजेपी ने अपना समाजिक आधार बढ़ाया है. लेकिन इस वर्ग में मजबूत मोदी ब्रांड के प्रति यदि आकर्षण है, तो अखिलेश के लिए प्रशंसा और सहानुभूति है. यही बीजेपी और बीएसपी की मुश्किल है.
ऐतिहासिक मौके के मुहाने पर अखिलेश
राजनीति पर्सनेलिटी और परसेप्शन से चलती है. अखिलेश के पास इस समय दोनों हैं. अखिलेश समय के सही साइड के साथ खड़े हैं. कुशल प्रशासक, बेदाग चेहरा, विकास की राजनीति का प्रणेता और भ्रष्टाचारियों, अपराधी राजनेताओं से टक्कर लेने के लिए परिवार से लोहा लेने वाले नायक की दमदार छवि बिल्कुल परफेक्ट पिक्चर.
व्यवस्था को बदलने को आतुर 70-80 के दशक के एंग्री यंग मैन अमिताभ की जगह अखिलेश हैं और अमरीश पुरी का किरदार चाचा शिवपाल यादव के जिम्मे है. सारी बुराइयों, पांच साल के सपा सरकार की सारी गलतियों और सपा के अपराधिक विधायकों नेताओं के संरक्षक सरगना, जिनसे सपा को आजाद कराने के लिए अखिलेश कोई भी कीमत देने को तैयार हैं. यह विभाजन होने की सूरत में आगे की स्क्रिप्ट है. ऐसी इमेज लाखों करोड़ों खर्च करने के बाद भी इमेज मैनेजमेंट कंपनियां राजनीतिक शख्सियत की बना नहीं पाती, जो मुलायम ने सोच-समझकर, बाहरी दवाब में या जिद में अखिलेश के लिए तैयार की है.
सपा परिवार के झगड़े ने अखिलेश सरकार की तकरीबन सारी एंटी इनकमबेंसी खत्म कर दी है और सारी अच्छाइयों के पुंज अखिलेश बन चुकें हैं. चुनावी कैंपेन में विपक्ष के कानून व्यवस्था के मुद्दे या बेरोजगारी जैसे मुद्दों को उठाने पर अखिलेश सीधे शिवपाल यादव पर इसका भार डालकर बच निकल सकते हैं और कह सकते हैं उन्हें इन्ही लोगों ने काम करने से रोका. एक झटके में साढ़े पांच सीएम की इमेज से भी अखिलेश बाहर आ गए. एंटी इनकमबेंसी तो गई, अखिलेश को लाने की प्रो इनकमबेंसी न काम करने लगे, यानी सहानुभूति फैक्टर झगड़े से हुए नुकसान की भरपाई न कर दे.
शिवराज-रमन सिंह की राह पर अखिलेश
यूपी विधानसभा का चुनाव मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को वो ऐतिहासिक अवसर दे रहा है, जहां वो मुलायम, मायावती से बड़ी लकीर खींच नीतीश, शिवराज, रमन सिंह की लीग में शामिल हो सकते हैं, जो 'मौलाना' मुलायम यादव, मुस्लिम-यादव के मजबूत गठबंधन के बाद भी अपने दौर में नहीं कर पाए . पांच साल के शासन के बाद दोबारा चुनकर आने की गुडविल.
यूपी चुनाव की सेंट्रल थीम इस समय अखिलेश है
सपा के वोटबैंक वाले इलाके यादवों के गढ़ इटावा, मैनपुरी में ही नहीं बल्कि सहारनपुर, मिर्जापुर, बीजेपी के गढ़ वाले इलाके गोरखपुर के गांव देहात में भी जब आप पूछेंगे, इस बार किसको वोट देंगे तो लोग भले ना-नुकुर कर सही जबाब न दें. लेकिन जब आप पूछेंगे अखिलेश ने कोई काम किया है इन पांच सालों में? तो लोग डायल 100, बेरोजगारी भत्ता, लैपटॉप योजना, साइकिल योजना, समाजवादी पेंशन, लखनऊ-आगरा हाइवे, लखनऊ मेट्रो जैसी चार-पांच योजनाओं का नाम गिना देगें, बिना भष्टाचार का आरोप लगाए. यानी अखिलेश विकास की राजनीति का चेहरा बनकर उभरे हैं, जो जाति की सीमाओं को तोड़ रहा है. सिर्फ यादव-मुस्लिम गठबंधन में नहीं, बल्कि बाकी जातियों में भी ब्रांड अखिलेश की पैठ बढ़ी है.
बीजेपी के बारे में सवाल पूछने पर लोग कहते हैं कि मोदी जी अच्छा काम कर रहे हैं. नोटबंदी पर सवाल पूछने पर कई लोग बीजेपी के नैरेटिव के अनुकूल जबाब देते हैं. लेकिन कई लोग कहते हैं किसी अमीर को परेशानी हुई क्या इतने दिनों में? रोजी-रोटी तो हमारी चली गई. फिर मोदी जी को वोट देंगे? इस सवाल पर उनका जवाब होता है, यहां तो अखिलेश ही हैं ना, मोदी जी थोड़े यहां आएंगे सरकार चलाने? यानी बीजेपी पर अखिलेश ब्रांड भारी है और बीजेपी की सबसे बडी चिंता इस समय अखिलेश के सामने बिना चेहरे के चुनाव लड़ना है.
अखिलेश का स्विंग फैक्टर भी वही है, जो मोदी का है
अखिलेश का वोटबैंक कौन है इस समय? अखिलेश का वोटबैंक वही है, जो मोदी का है. यूपी में पहली बार आकांक्षाओं के सपने बुनता युवा, समाजवादी साइकिल पर कॉलेज जाती युवतियां, लखनऊ मेट्रो और लखनऊ-आगरा हाइवे की सवारी करता शहरी मध्यम वर्ग. इसलिए यूपी चुनाव का विश्लेषण केवल जातिगत समीकरणों के जोड़-घटाव से करना सरलीकरण होगा.
अखिलेश सपा का जनाधार यादव मुस्लिम के अलावा दूसरी जाति की महिलाएं और युवा भी हैं, आकांक्षाओं के उभार वाला खेतिहर और मजदूर भी है, तो समाजवादी पेंशन पा रहा बुजुर्ग भी है, जो बीजेपी का वोट बैंक भी है. लेकिन वहां अखिलेश अपनी डिलीवरी और स्थानीय ब्रांड होने से बीजेपी पर भारी पड़ सकते हैं. अगर अखिलेश कार्ड कांग्रेस आरएलडी गठबंधन के बाद बिना यादव मुस्लिम बंटे चला, तो अखिलेश मोदी को नुकसान पहुंचा रहे होंगे, न कि मोदी गठबंधन के चेहरे अखिलेश को.
लेकिन कहानी तो फॉल्टलाइन की है, जो भरनी बाकी है
मुलायम, शिवपाल के अलग चुनाव लड़ने की सूरत में अखिलेश को अपने यादव-मुस्लिम गठबंधन को भरोसा दिलाना होगा कि सपा का भविष्य मुलायम नहीं, बल्कि अखिलेश हैं, जो अखिलेश कैंप की तरफ से संदेश दिया जा चुका है. बार-बार उन्हें पिता का सम्मान कर एमवाई के बीच विश्वास बनाए रखना होगा, जिससे भीतरघात खत्म हो सके. साल 2012 के विधानसभा चुनाव में सपा के 500-1000 वोटों के अंतर से जीतने वाली सीटों की संख्या 14 थी और 1000-5000 वोटों के अंतर से सपा 29 सीटें जीती थी.
अगर शिवपाल सपा ऐसे 500 -1000 वोटों के अंतर से जीतने और हारने वाली सीटों पर यादव और मुस्लिमों को खींच पाने में सफल हो गई तो कहानी पलट भी सकती है. अखिलेश की फॉल्टलाइन ऐसी सीटें रहेंगी, लेकिन इसे पाटने में कांग्रेस अखिलेश का गठबंधन और प्रियंका-डिंपल का सघन चुनावी प्रचार होने नाले नुकसान की भरपाई कर सकता है.
अखिलेश की राजनीतिक लड़ाई वैसे जुए से कम नहीं है. लेकिन अगर अखिलेश इस रिस्की जुए में जीत गए तो 2019 लोकसभा चुनाव की नई राजनीतिक पटकथा के लिखे जाने की शुरुआत हो सकती है और वो राहुल, नीतीश के साथ मिलकर मुलायम से बड़ी लकीर खींच सकते हैं.
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(शंकर अर्निमेष जाने-माने पत्रकार हैं. इस आलेख में प्रकाशित विचार लेखक के हैं. आलेख के विचारों में क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)
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