हाल ही में व्हाट्सऐप पर एक मैसेज आया, जिसमें दलितों के उत्पीड़न से जुड़ी कुछ घटनाओं का जिक्र था. मैसेज के अंत में यूपी में हो रहे चुनाव में बीएसपी सरकार को वोट देने की अपील भी थी.ये मैसेज एक परिचित के पास से आया था, जो ग्रेटर नोएडा के निजी इंजीनियरिंग कॉलेज से एमटेक कर रहा है. उसका किसी राजनीतिक पार्टी से कोई सीधा सरोकार नहीं है. फोन करके इस मैसेज के बारे में पूछा तो उसका कहना था-
बीएसपी सरकार में हमारी बात सुनी जाती थी. पुलिस थानों में जाने पर वो हमारी शिकायतें लिखते थे और तमीज से पेश आते थे. अखिलेश सरकार में ऐसा नहीं है. मैं चाहता हूं कि इस बार बीएसपी की सरकार प्रदेश में आए. मुझे फेसबुक, व्हाट्सऐप पर ऐसे कंटेंट मिलते हैं तो मैं उन्हें ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाने की कोशिश करता हूं.
सोशल मीडिया पर इस तरह के कई ‘गुमनाम’ लोग हैं जो इस बार बीएसपी के लिए कैंपेन चला रहे हैं.
ये अंबेडकरवादी विचारधारा के लोग आपको जेएनयू, बीएचयू, एएमयू जैसी यूनिवर्सिटी में पढ़ाई करते या प्राइवेट सेक्टर के किसी दफ्तर में काम करते मिल जाएंगे.
इनका बीएसपी या मायावती से कोई सीधा संबंध नहीं है, लेकिन ये तरह-तरह के वीडियो, तस्वीरें और दूसरे कंटेट सोशल मीडिया पर शेयर करके दलित चेतना को जगाने का काम कर रहे हैं.
बीजेपी-एसपी का सोशल मीडिया कैंपेन
यूपी विधानसभा चुनाव में पार्टियां सोशल मीडिया कैंपेन पर खास जोर दे रही हैं. बीजेपी, एसपी और कांग्रेस जैसी पार्टियों ने पेशेवरों को कैंपेन की जिम्मेदारी सौंपी हुई है. बीजेपी ने अपने लखनऊ कार्यालय में वॉर रूम बनाया है. आधुनिक उपकरणों के साथ इंजीनियरिंग, मैनेजमेंट और पत्रकारिता के बैकग्राउंड वाले पेशेवर लोग पार्टी को सोशल मीडिया पर बढ़त दिलाने में जुटे हैं. दूसरी तरफ अखिलेश की पार्टी एसपी भी फेसबुक और ट्विटर पर काफी लोकप्रिय है. वेतन पर रखे गए कई वॉलंटियर अखिलेश के ‘काम बोलता है’ कैंपेन को सोशल मीडिया पर जोरशोर से चला रहे हैं.
कैसे अलग है बीएसपी का वॉर रूम
इन सबसे अलग, बिना 'प्रवक्ता' की पार्टी बीएसपी ने कोई वॉर रूम नहीं बनाया है. पार्टी ने सोशल मीडिया पर कैंपेन चलाने के लिए वेतन पाने वाले वॉलंटियर भी नहीं रखे हैं. फिर भी हर प्लेटफॉर्म पर आपको पार्टी से जुड़े वीडियो, फोटो और दूसरे कंटेंट आसानी से देखने को मिल जाएंगे.
‘बहनजी को आने दो’ टैगलाइन वाले पोस्टर फेसबुक, ट्विटर पर भरे हुए हैं. बीजेपी-एसपी के कंटेंट को जवाब देने वाले कंटेट की भी कमी नहीं है. इनके जरिये सोशल मीडिया पर एसपी-बीजेपी को कड़ी टक्कर दी जा रही है.
ये लोग किसी दबाव या नफा नुकसान की परवाह किए बिना फेसबुक, ट्विटर, यू ट्यूब और न्यूज पोर्टल के जरिए बीएसपी के प्रचार को धार दे रहे हैं. इस कोशिश का फायदा बीएसपी को सोशल मीडिया पर मिल रहा है.
भारतीय जनसंचार संस्थान, दिल्ली के प्रोफेसर आनंद प्रधान इसे ‘दलित मध्यम वर्ग’ के उभार के तौर पर देखते हैं. आनंद प्रधान कहते हैं-
बीएसपी का सोशल मीडिया कैंपेन दूसरी पार्टियों से अलग है. ये अब एक्टिविज्म का रूप ले रहा है. तेजी से उभर रहा ‘दलित मध्यम वर्ग’ इस कैंपेन को आगे बढ़ा रहा है. पार्टी के कार्यकर्ताओं से ज्यादा वो लोग इससे जुड़े हैं जो पार्टी और मायावती से सहानुभूति रखते हैं.
नेशनल दस्तक, दलित दस्तक जैसे न्यूज पोर्टल मुख्यधारा के मीडिया की खबरों से अलग दलितों, शोषितों से जुड़े वीडियो और खबरों को प्रमुखता से पेश करते हैं. नेशनल दस्तक पोर्टल के संपादक भावेंद्र प्रकाश का कहना है कि सोशल मीडिया पर सक्रिय ये एक्टिविस्ट किसी पार्टी से नहीं जुड़े हैं. भावेंद्र अपनी बात पर जोर डालते हुए कहते हैं-
मीडिया में जब भी बात होती है, बीएसपी सरकार को पार्क वाली सरकार ही कहा जाता है. लेकिन अब एक्टिविस्ट सोशल मीडिया पर खुद बता रहे हैं कि मायावती ने बतौर मुख्यमंत्री क्या खास काम किए थे. कानून व्यवस्था की हालत मायावती के कार्यकाल में कितनी बेहतर थी. न्यूज चैनल, अखबारों में ऐसी खबरें नहीं आने के कारण इसे सोशल मीडिया के जरिए लोगों के सामने लाया जा रहा है.
बीएसपी अध्यक्ष मायावती भी कई बार मेनस्ट्रीम मीडिया पर पार्टी की अनदेखी का आरोप लगा चुकी हैं. ऐसे में सोशल मीडिया को इसके विकल्प के तौर पर देखा जाना स्वभाविक है.
बीएसपी की सोशल मीडिया रणनीति में खास योगदान दे रहे पार्टी के एक युवा नेता ने बताया कि देश के अलावा विदेशों से भी सोशल मीडिया पर कंटेंट शेयर किए जा रहे हैं. पार्टी ने कैंपेन के लिए किसी से समझौता नहीं किया है. 'बहन जी को आने दो' जैसा नारा भी ऐसे ही वॉलेंटियर्स ने दिया है, जिनका नाम तक कोई नहीं जानता. खुद ब खुद इस नारे को सोशल मीडिया में पहचान मिल गई और नारा मशहूर भी हो गया.
'कार्यकर्ताओं' पर किसी का दबाव नहीं !
बीजेपी और एसपी जैसी पार्टियों के कंटेट उनके वॉर रूम में तैयार होते हैं. कंटेट को मंजूरी मिलने के बाद उसे सोशल मीडिया के सभी प्लेटफॉर्म यानी फेसबुक, ट्विटर और व्हाट्सऐप पर शेयर किया जाता हैं. लेकिन बीएसपी के ‘कैंपेन’ में ऐसा नहीं है. उसका कंटेंट अंबेडकरवादी युवा खुद तैयार करते हैं. इसके बाद ये कंटेंट समान विचारधारा वाले सोशल मीडिया ग्रुप्स में जगह बनाने की वजह से खुद ब खुद वायरल संदेश की तरह आगे बढ़ने लगता है.
बीएसपी के ‘कैंपेन’ में ऐसा नहीं है, यहां कुछ अंबेडकरवादी खुद से कोई कंटेट तैयार करते हैं. समान विचारधारा वाले सोशल मीडिया ग्रुप्स में उसे जब तवज्जों मिलने लगता है तो वो कंटेट अपने आप वायरल संदेश की तरह आगे बढ़ने लगता है.
क्या हैं खास हथियार ?
गुजरात के उना में दलितों पर अत्याचर के वीडियो, रोहित वेमुला खुदकुशी से जुड़े मामलों के वीडियो ऑनलाइन प्रचार के कुछ ऐसे हथियार थे, जिनकी वजह से केंद्र सरकार घिरती नजर आ रही थी. इसमें सोशल मीडिया का सबसे बड़ा योगदान था. शायद यही वजह है कि बीएसपी में सोशल मीडिया की बढ़ती अहमियत को स्वीकार किया जाने लगा है. इसी रणनीति के तहत अब सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर ऐसे कंटेंट डाले जाने लगे हैं जो सीधे दलितों से जुड़े हैं और सामाजिक भेदभाव को दिखाते हैं.
खुद को कैंपेन से जोड़ने की ललक
सोशल मीडिया पर खुद को किसी कैंपेन से जोड़ने की ललक देखने को मिल रही है. अब तक जिस वर्ग को पिछड़ा या शोषित कहा जाता रहा है, उन्होंने डिजिटल मीडिया की ताकत को पहचान लिया है. इस विधानसभा चुनाव में जीत किसे मिलेगी ये खुलासा तो 11 मार्च को ही होगा, लेकिन फिलहाल इतना तो तय है कि सोशल मीडिया के 'गुमनाम' साथी बीएसपी के हाथी को जिताने की कोशिश में जी जान से लगे हैं।
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