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मैं उनसे क्या कहूं जो अक्सर मुझसे पूछते हैं कि मैं कहां की हूं?

मेरा परिवार कई साल पहले बांग्लादेश से असम चला आया, लेकिन अब भी मैं एक आउटसाइडर जैसी महसूस करती हूं.

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“आपकी भाषा अलग है. आप ना तो असमिया बोलते हैं और ना ही बंगाली . वास्तव में आखिर आप हैं कहां से?” इस सवाल का जवाब मुझे बार-बार, अपनी सुविधा के हिसाब से देना होता है, कभी मैं खुद को बंगाली (Bengali) बताती हूं तो कभी असमी. जब जैसी परिस्थिति होती है वैसा जवाब.

यह सवाल मुझे चिंता में डाल देता है, मैं हैरान होती हूं कि आखिर मेरी जड़ें कहां हैं .कई बार मैंने किसी भी साइड फिट होने के लिए जवाब दिया है. यहां तक कि कभी कभी बिल्कुल ही एक जवाब के उलट दूसरा जवाब.

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इसने मेरे लिए ना सिर्फ ’पहचान की परेशानी’ खड़ी कर दी है बल्कि कहीं गहरे में मुझे सुन्न कर दिया है जहां मैं हकीकत में जानती ही नहीं कि आखिर मैं कहां से हूं और किसको अपना घर कहूं .

‘मेरे लोग ही अपना घर है’

मैं अपने परिवार के बांग्लादेश से भारत आने और असम में उनके बसने की कहानी सुनाती हूं, या तो मैं उन्हें अपने होम टाउन के नजदीक प्रसिद्ध स्थान के बारे में बताती हूं ताकि और सवाल-जवाब ना हो. कभी कभी बातचीत के सिलसिले को आगे बढ़ाने से बचने के लिए मैं इतना ही कह देती हूं “ मैं कहीं से जुड़ा हुआ महसूस नहीं करती. मेरे अपने लोग ही मेरा घर हैं. “ लेकिन मैं एक बाहरी यानि आउटसाइडर जैसा महसूस करती हूं. जो किसी जगह से जुड़ा रहना चाहती है और किसी जगह को ‘अपना घर’ कहना चाहती है.’

हर बार ये सवाल आता है तो मुझे लगता है कि मैं खुद को सफाई देने के लिए, अपने घर और अपनी जड़ों के बारे में बताने के लिए मजबूर हूं.

मेरा परिवार भारत-बांग्लादेश संकट के दौरान बांग्लादेश से भागकर असम आया. मेरे परिवार की तरह ही हजारों परिवार थे जो उस वक्त असम से चलकर बांग्लादेश आए और दक्षिणी असम के बार्क वैली में बसे.

उन्हें घर से दूर एक घर मिल गया जहां वे जोरदार खुशबू वाली सूखी मछली पका सकते थे. और लोग क्या कहेंगे के बारे में बिना सोचे "सिलहेती" और "ढाकिया" बोल सकते थे. लेकिन जैसे-जैसे मेरी पीढ़ी बेहतर जिंदगी और मौकों की तलाश में अपने-अपने होमटाउन से बाहर जाने लगी, चीजें बदलने लगीं.

हाई स्कूल के बाद मैं शिक्षा और करियर को बनाने के लिए लगभग पूरे देश में घूमती रही. इस दौरान मेरी मुलाकात उन दोस्तों से हुई जो पश्चिम बंगाल और असम से हैं.

‘मैंने महसूस किया कि ना तो मैं बंगाली बोलती हूं जैसा कि पश्चिम बंगाल के मेरे दोस्त बोलते हैं ना तो मैं असमी दोस्तों की तरह बिहू गीतों पर थिरक पाती हूं’

मैं असम में पैदा हुई थी, लेकिन असमिया नहीं दिखती - लेकिन यह कहना कि मैं एक बंगाली हूं, अजीब लगता है क्योंकि मैं पारंपरिक बंगाली बोली नहीं बोलती. इसलिए खुद मैं ज्यादा बंगाली जैसा फील भी नहीं करती.

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'अपने होमटाउन में भी आउटसाइडर’

मैं छह महीने में एक बार असम में अपने होमटाउन जाती हूं. उस जगह की नॉस्टेल्जिया और सबकुछ से वाकिफ होने और उन्हें जानने-जुड़े होने जैसा महसूस करती हूं. लेकिन अब, जब मैं अपने होमटाउन में होती हूं, तो मैं एक आउटसाइडर यानि बाहरी की तरह महसूस करती हूं. अब कुछ भी जाना-पहचाना नहीं लगता - लोग, जगह और यहां तक कि खाना भी.

मैंने अपनी जिंदगी का एक बड़ा हिस्सा "घर" तलाशने और बनाने की कोशिश में गुजारा है. फिर भी, मुझे यकीन नहीं है कि मेरा घर वास्तव में कहां है. पहचान से अपनेपन की भावना आती है, लेकिन मैं वास्तव में जहां भी जाती हूं, कहीं घर जैसा महसूस नहीं करती.

फिलहाल मैं दिल्ली में रहती हूं. मैंने दिल्ली में किराए के अपार्टमेंट में अपना घर बनाने की कोशिश की है, लेकिन हर छठे महीने, मुझे लगता है कि मुझे कहीं और जाने की जरूरत है.

यह कई बार बहुत मूड खराब करने वाला होता है जब मुझे सबसे सीधे और आसान प्रश्नों के लंबे उत्तर देने पड़ते हैं और अक्सर भावनाओं को साझा करने के लिए लोग नहीं होते.

यह कहते हुए कि, इस पहचान की परेशानी यानि आइडेंटिटी क्राइसिस के बीच में होने के कारण मुझे अपनी कहानियों को गढ़ने के लिए पंख भी मिले हैं.
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एक घर की तलाश में जिंदगी भर घूमते हुए कई संस्कृतियों को देखना और समझना बहुत ही अद्भुत एहसास है. घर और कहीं नहीं होने के बीच झूलना अब मेरी जिंदगी का एक हिस्सा है.

मैं जो बनना चाहती हूं उसके होने की संभावनाएं सीमाओं से परे है. अब, मैं वास्तव में एक अनुभव बन गई हूं जिसे मैंने वर्षों में हासिल किया है. शायद दुनिया के सामने बताने के लिए कि ये सबसे बढ़िया अहसास हैं. अब मैं खुद को यह समझाने की कोशिश करती हूं कि शायद मेरा कोई एक घर या कोई एक जगह या एक संस्कृति नहीं, बल्कि कई हैं.

(लेखिका जेएनयू, नई दिल्ली में मास्टर की छात्रा हैं. यह एक राय है और व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट न तो समर्थन करता है और न ही उनके लिए जिम्मेदार है.)

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