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अंबेडकर ने क्यों कहा था-अगर हिंदू राष्ट्र बना तो देश के लिए सबसे बड़ी तबाही होगी

Ambedkar Jayanti: ''हम पहले भारतीय फिर हिंदू और मुस्लिम नहीं, हम शुरू से आखिर तक भारतीय हैं''

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बाबासाहेब अंबेडकर (Ambedkar) का जन्म 1891 में इंदौर (Indore) के पास सैन्य छावनी वाले महू शहर में हुआ था. हालांकि उनका परिवार महाराष्ट्र से था. वो हमारे हाल के उन गिने चुने सियासतदां और बौद्धिक शख्सियतों में से एक हैं, जिन्हें सभी अपनी सियासी सहूलियतों के हिसाब से अपना रहे हैं. यहां मुझे यह समझाने की जरूरत नहीं कि ऐसा क्यों हो रहा है. क्योंकि हम में से ज्यादातार लोगों को यह बात मालूम है. उनका नाम और विरासत हमारी आबादी के एक बड़े हिस्से जो सदियों से हाशिए पर रहे हैं, उनको अपनी ओर खींचती है.

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उन्होंने उन लाखों मूक भारतीयों को आवाज दी, जिन्हें अपनी सरकार चुनने के लिए मताधिकार मिला था. लेकिन जो लोग वोट के लिए अंबेडकर की प्रशंसा करते हैं, उन्हें भी जरा उस बौद्धिक और राजनीतिक विरासत का पता लगाने की कोशिश करनी चाहिए जिसे उन्होंने बैक सीट पर रख दिया है.

अंबेडकर ने जो समावेशी विचार दिए थे उसमें धर्म या जाति भेद मायने नहीं रखता था. ये एक ऐसा विचार है जो लोकतांत्रिक शासन के लिए जरूरी है. उस पर चिंतन करने की आवश्यकता है.

यह आज विशेष रूप से इसलिए भी जरूरी हो गया है कि हममें से कुछ लोग अपने साथियों और नागरिकों की पहचान धार्मिक आधार पर करने में बिजी हैं. पिछले कुछ दिनों में इस 'अन्य' को मुसलमानों के खिलाफ अत्यधिक नफरत और हिंसा के रूप में प्रकट होते देखा गया है. मिली जुली राष्ट्रीयता के विचार को बेधड़क खत्म किया जा रहा है.

ड्राफ्ट कमिटी के चेयरमैन के तौर पर बाबा साहेब अंबेडकर ने जो संविधान लिखा उस पर आज खतरा मंडराता दिख रहा है.

जब आज संविधान की धज्जियां उड़ाई जा रही हैं तो हमें बाबा साहब के शब्दों को याद रखना चाहिए जिन्होंने कहा था- अगर मुझे लगेगा कि संविधान का गलत इस्तेमाल किया जा रहा है तो फिर मैं उसे फाड़ देना ज्यादा पसंद करूंगा.
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अंबेडकर ने पहचान और राष्ट्रीयता पर सिवाए छिटपुट विचार देने के ज्यादा कुछ लिखा नहीं है लेकिन उनकी राष्ट्रीयता को उनके राजनीति और राजनीतिक विचार से समझा जा सकता है. इसमें लोगों और देश दोनों के लिए एक गरिमा बनाए रखने की बात की थी.

वो मानते थे कि राष्ट्रवाद और राष्ट्रीय आंदोलन उन लोगों के लिए बहुत मायने नहीं रखता जो सदियों से अब तक मूलभूत अधिकारों और सम्मान से वंचित हैं. आज जो अंबेडकर के प्रशंसक हैं वो भी सिर्फ जबान चलाने तक सिमटकर रह गए हैं.

जिन लोगों ने 1947 में राष्ट्र की नींव रखने में महत्वपूर्ण योगदान दिया उनके लिए अंबेडकर के प्रशंसकों को जमीनी बदलाव लाने के लिए कुछ पॉजिटिव एक्शन करना चाहिए.

अंबेडकर मानते थे कि अगर सामाजिक भेदभाव वाले मूल्य आजाद भारत में भी बेरोकटोक चलते रहते हैं तो इस तरह की आजादी सिर्फ अभिजात्यों और ऊंची जातियों की गुलाम बनकर रह जाएगी और वंचितों और शोषितों की इसमें कोई भागीदारी नहीं बन पाएगी.

वो सभी जो आज हिंदू राष्ट्र की बात करते हैं और अंबेडकर का नाम भी लेते हैं उन्हें अंबेडकर के शब्द याद रखना चाहिए- अगर हिंदू राष्ट्र एक हकीकत बन जाए तो बिना किसी शक के ये देश के लिए सबसे बड़ी तबाही होगी, हिंदू राज को किसी भी कीमत पर रोका जाना चाहिए.

बाबा साहेब अंबेडकर ने ऐसा तब महसूस किया जब हिंदू महासभा और मुस्लिम लीग का सांप्रदायिक कैंपेन चल रहा था. उन्होंने अपने राष्ट्रवाद को आगे कई भाषणों और बाम्बे असेंबली में दिए वक्तव्यों से साफ किया. उन्होंने कहा था –

मैं नहीं मानता कि इस देश में किसी भी खास संस्कृति के लिए कोई जगह है चाहे ये फिर हिंदू संस्कृति हो या फिर मुस्लिम या फिर कर्नाटक की या फिर गुजराती संस्कृति.

हम सबका पूरा मकसद इस भावना को मजबूत करना है कि हम सब एक भारतीय हैं और इसी एक भारतीयता को ताकतवर बनाना है. मुझे वो पसंद नहीं है जैसा कि कुछ लोग कहते हैं पहले हम भारतीय हैं फिर हिंदू और फिर मुस्लिम. मैं चाहता हूं कि देश के सभी लोगों को पहला और आखिरी भारतीय होना चाहिए.

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जब हम राष्ट्रवाद और संस्कृति की बात करते हैं तो हमें थोड़ी देर रुककर सोचना चाहिए कि आखिर जो हमारे राष्ट्रनिर्माता थे उनके ऐसे बयानों के क्या मायने थे ?

आज जिस तरह की राष्ट्रीयता को बढ़ावा दिया जा रहा है वो समावेशी और शांतिपूर्ण भारत के लिए ज्यादा बड़ा खतरा है. उन्होंने साफ तौर पर कहा कि

राष्ट्रवादी विचारधारा दोधारी तलवार जैसा है. इसमें जहां ये एक कुटुंब से जुड़े लोगों को जोड़ती है वहीं ये दूसरी तरफ जो उस एक कुटुंब या कुल से संबंध नहीं रखते उनको जोड़ने से रोकती है. यह एक ऐसी ‘प्रबुद्धता ‘ की कोशिश है जिसमें जहां एक तरफ लोग एक ख्याल से बंध जाते हैं. एक सूत्र में इसे वो इतनी मजबूती से गुंथ जाते हैं बाकी सभी विचार और संघर्ष चाहे आर्थिक या सामाजिक संघर्ष कितना भी बड़ा क्यों ना हो वो मायने नहीं रखती हैं. वहीं दूसरी तरफ जो इनसे जुड़े नहीं होते वो उनसे कट जाते हैं. फिर ये किसी ग्रुप से संबंध नहीं रखने की लंबी पीड़ा बनती जाती है. राष्ट्रीयता और राष्ट्रीय विचार की जड़ यही है.

इसिलए हम अगर उनके दिए ख्यालों की फिक्र करते हैं सबको उनके दिए विचार पर गंभीरता से सोचना चाहिए सिर्फ सियासी चमत्कार के लिए उनका उपयोग नहीं होना चाहिए.

अंबेडकर ने जब साल 1930 में इंडियन लेबर पार्टी बनाया तब भी उन्होंने अपने राष्ट्रवाद की बुनावट के बारे में बताया. अंबेडकर के विचार तब की तुलना में आज ज्यादा प्रासंगिक हो गए हैं जब वो कहते हैं कि ‘वो राष्ट्रवाद का ढोंग करने को तैयार नहीं है’.

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उन्होंने उन लोगों को कुछ चेतावनी दी थी जो इतिहास का दुरुपयोग अपने मतलब के लिए इसे घुमाफिराकर करते हैं. उन्होंने कहा कि

श्रम मनुष्य की निरंतर बढ़ती आत्मा को अतीत के हाथों से गला घोंटने की अनुमति नहीं देगा जिसका वर्तमान के लिए कोई अर्थ नहीं है और नहीं भविष्य के लिए आशा: न ही यह इसे स्थानीय विशिष्टता के एक संकीर्ण दायरे में कैद होने की इजाजत देगा.

वे सभी जो अपने मौजूदा सियासी फायदे के लिए ही अंबेडकर का सम्मान करते हैं उन्हें उन्हें यह समझना चाहिए कि अम्बेडकर वास्तव में किसके लिए खड़े थे.

अंबेडकर के लिए राष्ट्रवाद दरअसल लक्ष्य हासिल करने का साधन था ना कि सिर्फ खुद में एक साध्य. उन्होंने इसे कभी भी एक पवित्र पंथ के रूप में नहीं माना, जैसा कि आज हम में से कुछ लोग करते हैं.
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बाबा साहेब अम्बेडकर ने अपनी पुस्तक पाकिस्तान, या फिर भारत के विभाजन में हमें चेतावनी दी थी कि

भारतीय आज दो विचारधाराओं से शासित हैं. उनका राजनीतिक आदर्श संविधान की प्रस्तावना में स्थापित स्वतंत्रता, न्याय, समानता और बंधुत्व की बात करता है, जबकि उनका सामाजिक विचार उनके धर्म में निहित है जो कि उन्हें इससे अलग करता है.

यह बात आज और अधिक प्रासंगिक हो जाती है जब वे सभी मूल्य जो उन्होंने सुझाए थे, वे एक भयंकर मुश्किल हालत में फंसते दिखते हैं. उन्होंने जो कुछ चिंता राष्ट्र को लेकर जाहिर की थी आज वो पहले से कहीं ज्यादा मुखर होकर सामने हैं.

पिछले कुछ वर्षों के दौरान अम्बेडकर के दर्शन और हिंदुत्ववादी राजनीति में संबंध पर फोकस तेजी से बढ़ा है. लगभग हर राजनीतिक दल उनकी कसम खाता है, भले ही उनकी अधिकांश चिंताएं, जिन आदर्शों के लिए अंबेडकर खड़े रहे वो दशकों से दरकिनार किए जा रहे हैं.

अभी एक प्रगतिशील और समतामूलक भारत के उनके सपनों और विजन को पूरा करने के लिए बहुत कुछ करना बाकी है. अभी उन सभी लोगों से यही उम्मीद की जाती है कि जो अंबेडकर के विचारों को हथियाने के लिए एक-दूसरे के साथ होड़ कर रहे हैं, वो सही तरीके से उनके सपनों को पूरा करने लिए काम करेंगे.

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