भारतीय सिनेमा (Indian Cinema) को अक्सर सामाजिक शिक्षा के उद्देश्य से दूर ही रखा जाता है. फिल्म निर्माता सिनेमा को मनोरंजन को ऐसे रूप के तौर पर लेते हैं जहां दिमाग की जरूरत नहीं पड़ती, न कि सामाजिक जटिलताओं पर मूलभूत बदलाव लाने के लिए एक उद्देश्यपूर्ण जुड़ाव के तौर पर.
उनके लिए दर्शक हिंसा, पुरुष प्रधान और अति भावनात्मक ड्रामा के ही उपभोक्ता हैं न कि आलोचनात्मक समूह.
सिनेमा के लोकप्रिय सांस्कृतिक संकेतक शासकीय अभिजात वर्ग (एलीट क्लास) के राजनीतिक हितों और सांस्कृतिक मूल्यों की खुले तौर पर मदद करते हैं और भयानक सामाजिक वास्तविकताओं, खासकर वर्गीकृत जाति संबंधों और दलितों और आदिवासियों की डरावनी जीवन स्थितियों को छिपाते हैं. इस तरह की रूढ़ीवादी स्थिति में अंबेडकर का व्यक्तित्व और राजनीतिक दर्शन बिल्कुल अलग है.
इसलिए, हाल की कुछ फिल्में खासकर आर्टिकल 15 (हिंदी), जय भीम (तमिल) और जयंती (मराठी) को देखना दिलचस्प था, क्योंकि ये विकृत सामाजिक असमनाताओं को दिखाती हैं.
सामंती शोषण, जातिवादी अत्याचार की कहानी बताती हैं और मानवाधिकार को सुरक्षित करने के लिए हाशिए पर रहने वाले वाले वर्ग का संघर्ष दिखाती हैं.
इस तरह की फिल्मों को एक नई ‘दलित सिनेमा’ शैली की शुरुआत कहा जा सकता है, क्योंकि इसमें दिखाई जा रही कहानियां सामाजिक अभिजात वर्ग के वैचारिक मूल्यों के लिए नहीं हैं बल्कि दलित-बहुजन के नजरिए को दिखाती है.
महत्वपूर्ण ये भी है कि इन फिल्मों की समीक्षा मुख्य धारा के सिनेमा में बाबा साहेब अंबेडकर के सामाजिक दृष्टिकोण के आने के तौर पर भी की जाती है. ये महत्वपूर्ण है क्योंकि लंबे समय तक भारतीय सिनेमा ने अंबेडकर की उपस्थिति को नजरअंदाज किया है दलित आंदोलन के दावों से दूरी बनाए रखी है.
बॉम्बे सिटी का अधूरा कैनवास और उसका मजदूर वर्ग
बॉम्बे में शुरुआती सिनेमा, खासकर 1940 से 1960 के बीच ज्यादातर सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के नए विचारों से जुड़ा था, अक्सर हिंदू धार्मिक पौराणिक कथाओं से जुड़ी कहानियां, पौराणिक नायकों, संतों और किंवदंतियों के आसपास की कहानियों को दिखाया जाता था.
आजादी के बाद के दौर में इस पर एक तरफ धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवाद और दूसरी तरफ समाजवादी विचारधारा का असर था. मुख्यधारा के कई अभिनेता (जैसे राज कपूर), लेखक (एके अब्बास) और निर्देशक (बिमल रॉय) वामपंथी प्रगतिशील संगठनों से जुड़े थे और सामाजिक वास्तविकता पर कुछ बहुत ही अच्छी फिल्में बनाईं.
उन्होंने गांधीवादी समाजवादी विचारधारा को आगे बढ़ाया और सामाजिक सुधारों (सुजाता), ग्रामीण-शहरी संकट (दो बीघा जमीन) और आधुनिक विकास के एक आलोचनात्मक मूल्यांकन (नया दौर) पर फिल्में बनाईं.
हिंदी सिनेमा ने हिंदू सांस्कृतिक सुधारवाद (धर्मपुत्र) का समर्थन किया, आधुनिक-शहरी समाज (प्यासा) से महत्वपूर्ण रूप से जुड़ी रही और शहरीकरण को देश (नीचा नगर) की सभ्यतागत प्रकृति के लिए खतरे के तौर पर लिया.
सिनेमा निर्माता आकर्षित करने वाले सांस्कृतिक परिधान (भव्य कपड़ों और ऐतिहासिक नाटकों) के भी शौकीन थे और सिनेमा का इस्तेमाल राष्ट्रवादी अभिजात वर्ग के राजनीतिक विचारों, विशेष रूप से धर्मनिरपेक्ष भारत के नेहरुवादी-गांधीवादी दृष्टिकोण के लिए करते थे.
महत्वपूर्ण रूप से युवा प्रवासियों की कहानियां (आवारा, श्री 420, बूट पॉलिश आदि) सामने लाने के लिए बॉम्बे एक अहम पृष्ठभूमि के तौर पर उभरी
हालांकि इन फिल्मों में वर्ग असमानताओं और शहरी विकास की समस्याओं को दिखाने की कोशिश की गई, लेकिन अक्सर इन कहानियों से उस संकट और हिंसा को दूर रखा गया जो सामाजिक रूप से हाशिए पर रहने वाले समुदायों को हर दिन झेलनी पड़ती थी.
उदाहरण के तौर पर बॉम्बे में प्रवासी मजदूर वर्ग की आबादी में विशेष रूप से कपड़ा मिलों, बंदरगाह और दिहाड़ी मजदूरों के क्षेत्रों में बड़ी संख्या में एक दलित वर्ग शामिल था.
हालांकि बॉम्बे सिनेमा का ‘गोल्डन एज’ चालाकी से मजदूर वर्ग के अंदर जाति आधारित असमानताओं के कठिन सवालों को उठाने से बचता है या उस भेदभाव और शोषण की उपेक्षा करता है जिसका दलित श्रमिकों को विशेष रूप से सामना करता है.
इसके बजाए गरीब प्रवासी की पहचान को सामाजिक अनिवार्यताओं से आजाद, एक सामान्य घुमक्कड़ (राज कपूर के प्रसिद्ध गरीब आवारा चरित्र को याद कीजिए) के तौर पर दिखाया गया है.
राष्ट्र निर्माण में अंबेडकर की भूमिका को सिनेमा ने कैसे नजरअंदाज किया
महत्वपूर्ण ये है कि इसी दौरान, अंबेडकर के नेतृत्व के तहत राष्ट्रीय स्तर पर एक लोकप्रिय जाति विरोधी दलित आंदोलन भी प्रभावशाली रूप से आगे बढ़ रहा था. बॉम्बे अंबेडकर की गतिविधियों का केंद्र बना.
हालांकि बॉम्बे सिनेमा इंडस्ट्री जाति विरोधी संघर्ष के बढ़ते कदमों से अनजान दिखाई देती है जिसका नेतृत्व अंबेडकर उस समय कर रहे थे. आजादी के बाद पहले दो दशकों में कोई भी फिल्म नहीं बनी जिसमें देश निर्माण में अंबेडकर के योगदान को दिखाया गया या सामाजिक अन्याय के मुद्दों पर विचार-विमर्श किया गया हो.
जब अस्पृश्यता (छूआ-छूत) पर फिल्म (जैसे अछूत कन्या और सुजाता) बनी भी तो उसमें गांधीवादी सामाजिक सुधारवाद को प्रमुखता से दिखाते हुए सामाजिक वास्तविकता का एक कल्पनाशील और काल्पनिक मूल्यांकन प्रस्तुत किया गया.
इस तरह का प्रलापता से भरा, जाति पर नजरों को बंद रखने वाला ‘गोल्डन एज’ सिनेमा वर्ग पहचान के वर्चस्व को बरकरार रखता है, धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवाद के काल्पनिक विषय को बढ़ावा देता है और मौलिक भारतीय नैतिक गुण के रूप में ब्राह्मणवादी सामाजिक सांस्कृतिक मूल्यों का पूरक बनता है.
अंबेडकर के दावों को सिनेमा से हटा दिया गया
अंबेडकर और सामाजिक न्याय की राजनीति के साथ किसी भी तरह का संभावित जुड़ाव सामाजिक अभिजात नेतृत्व की ओर से निर्धारित राष्ट्रवादी वास्तविकता को खत्म कर दिया होता.
सत्ताधारी अभिजात वर्ग का मानना था कि दलितों का सवाल राष्ट्रीय एकता के दावे के लिए एक समस्या है और मजदूर वर्ग की समाजवादी क्रांति के पारंपिरक प्रलाप को चुनौती देता है.
मुख्यधारा के फिल्म निर्माता भी अंबेडकर और दलित के सवाल के प्रति इस तरह के राष्ट्रवादी-समाजवादी रूढ़िवाद से प्रभावित थे, इसलिए इन विषयों से बचते थे. इसलिए गैर ब्राह्मण और अंबेडकर के आंदोलन की ओर से उठाए गए दावों को सिनेमा से हटा दिया गया.
रूढ़ीवादी समाजवादी प्रलाप को बाद के दौर के ‘समानांतर सिनेमा’ के बाद के दौर में सुधार दिया गया था. जिसमें गांवों को वास्तविक रूप में दिखाया गया और भूमिहीन मजदूरों (दामूल), पितृसत्तात्मक शोषण (अंकुर) और जातिगत अत्याचार (पार) की दुख भरी कहानियों को पर्दे पर दिखाया गया.
हालांकि ‘नई लहर’ की सिनेमा की कहानियों में गरीब दलितों की वास्तिविक स्थिति को अच्छी तरह से दिखाया गया है, लेकिन ये सिर्फ आधी कहानी ही है.
1970 और 1980 का दशक वो समय भी था जब दलितों ने सत्ताधारी वर्ग के आदेशों को नकारना शुरू कर दिया था और कई मौकों पर पारंपरिक सामाजिक व्यवस्था को चुनौती देने के लिए अपनी स्वतंत्र इच्छा और वीरता का प्रदर्शन किया था.
उन्होंने महाराष्ट्र (दलित पैंथर्स का उदय), तमिलनाडु (विदुथलाई चिरुथैगल काची का आगमन), बिहार (दलितों और आदिवासियों की नक्सल लामबंदी) और उत्तर प्रदेश (बहुजन समाज पार्टी का उदय) जैसे राज्यों में प्रभावशाली राजनीतिक परिपक्वता दिखाई. दलित मजबूत राजनीतिक बल के रूप में उभरे.
इसके अलावा, साहित्यिक और बौद्धिक जमात के बीच, दलित साहित्य की एक नई क्रांतिकारी आवाज सामाजिक सच्चाई के बारे में लिखने में पारंपरिक साहित्य की भ्रांति और सीमाओं को प्रदर्शित करने के लिए जोरदार ढंग से आगे बढ़ रही थी.
1980 के दशक के शुरुआती सालों को नींव के तौर पर देखा जाता है जब दलित राजनीति की नई पारी को अंबेडकर की छवि के इर्द-गिर्द फिर से बनाया गया.
हालांकि, समानांतर सिनेमा में, दर्शकों ने दलितों के गरीब और दयनीय जीवन के बारे में केवल स्पष्ट तौर पर देखा और उन्हें ज्यादातर जातिगत अत्याचारों के शिकार के रूप में दिखाया गया. फिल्मों में उनके राजनीतिक और सामाजिक दृष्टिकोण को कोई स्थान नहीं दिया और लोकतांत्रिक क्षेत्रों में उनकी बढ़ती आवाज को स्वीकार करने में विफल रहा.
हाल की मराठी और तमिल फिल्मों में अब काफी बदलाव नजर आता है. अंबेडकर अब पर्दे पर न केवल पुलिस स्टेशन, कोर्ट या सरकारी दफ्तरों में लटकती तस्वीर के तौर पर ही नहीं बल्कि फिल्मी चरित्रों को प्रेरणा देने वाले कारकों के तौर पर भी दिखते हैं.
दिलचस्प बात ये है कि ऐसा दलित-बहुजन पृष्ठभूमि से फिल्म निर्माताओं, टेक्नीशियंश और कलाकारों के आने से भी हुआ है जिन्होंने पर्दे पर अंबेडकर को एक नया अर्थ दिया है.
उदाहरण के तौर पर, फिल्म फैनड्री में नागराज मंजुले ने अंबेडकर, फूले और शाहू महाराज की पेंटिंग्स को ग्रामीण हिस्सों में जाति संबंधों की न बदलने वाली प्रकृति को प्रदर्शित करने के लिए व्यंग्यपूर्ण कलाकृति के रूप में इस्तेमाल किया.
इसी तरह पा रंजीत अक्सर कहानी को एक वास्तविक सामाजिक अर्थ प्रदान करने के लिए बातचीत की पृष्ठभूमि में अंबेडकर के नाम, तस्वीर, मूर्ति, नारे और दूसरे दलित प्रतीकों का इस्तेमाल करते हैं.
हाल ही में नरवडे की जयंती ने इस सीमा का विस्तार किया और अंबेडकर के लेखन को एक महत्पूर्ण शक्ति के रूप में पेश किया जो नायक को एक साहसी वीर व्यक्ति बनने के लिए प्रेरित करती है.
अंबेडकर और दलितों ने लोकप्रिय सिनेमा संस्कृति का हिस्सा बनने के लिए दशकों तक इंतजार किया है. सिनेमा उद्योग में ब्राह्मणों का आधिपत्य और वर्ग अभिजात्यवाद ने हाशिए पर रहने वाले समुदाय के प्रवेश को इतने वर्षों से रोक रखा है.
उभरते हुए ‘दलित सिनेमा’ में नए सिनेमाई संस्कृति पर मंथन करने की क्षमता है और ये दर्शकों तक एक सार्थक और सामाजिक रूप से जिम्मेदार सिनेमा ला सकता है.
अंबेडकर के विचारों और दृष्टिकोण के साथ ये गति निश्चित रूप से फिल्म उद्योग को लोकतांत्रिक बनाएगी और कहानी कहने की कला में महत्वपूर्ण बारीकियां ला सकती हैं.
(हरीश एस वानखेड़े जेएनयू में सेंटर फॉर पॉलिटकल स्टडीज, स्कूल ऑफ सोशल साइंस के असिस्टेंट प्रोफेसर हैं. ये एक ओपिनियन पीस है और इसमें व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. द क्विंट न तो इनका समर्थन करता है और न ही इनके लिए जिम्मेदार है.)
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