हम भारतीयों को, भारत का मूल दर्शन एवं सांस्कृतिक झांकियां भाषा में देखने को मिलती है. हमारी मातृभाषा हिंदी (Hindi) में वह रोचक सामग्री और राष्ट्रीय दर्शन निहित है, जिसे हम अपने हृदय में संजोए रखना चाहते हैं. एक भाषा अच्छे व्यक्ति और व्यक्तित्व का निर्माण करती है और अच्छा व्यक्तित्व अच्छे समाज का निर्माण करता है और अच्छा समाज ही एक आदर्श राष्ट्र का निर्माण करता है. आज हम हिंदी भाषा के माध्यम से ही प्रत्येक भारतवासियों में राष्ट्रीय भावना और राष्ट्रवाद का संचार करने में सफल हुए हैं.
अगर हिंदी न होती
अगर हिंदी न होती तो शायद इतने व्यापक पैमाने पर हम भारत के लोगों में शायद ही राष्ट्रीय भावना जागृत कर पाते. समाज में भाषा से संस्कृति और संस्कृति से सभ्यता स्थापित होती है. भारत में एक मानवीय सभ्यता स्थापित करने में हिंदी का अतुलनीय योगदान रहा है. आज हम सभी भारतीयों का यह परम कर्तव्य बनता है कि हम हिंदी की प्रतिष्ठा बढ़ाएं, जिससे हमारी भाषा अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हमारे राष्ट्र का गौरव बढ़ा सके.
हिंदी और बाबा साहेब
इस संबंध में बाबा साहब अंबेडकर ने भी हिंदी को सम्पूर्ण भारत की राजकीय भाषा बनाने का पुरजोर समर्थन किया. इसके साथ ही इस ओर बल दिया कि हिंदी को राजभाषा का दर्जा किसी भी कीमत पर मिले. बाबा साहब अंबेडकर ने कहा था कि
भाषा ही एक राष्ट्र को संगठित और अखंड रख सकती है और समूचे देश में शांति सद्भाव एवं विचारों को आसान बना सकती है. हालांकि बाबा साहब की मातृभाषा मराठी थी फिर भी उन्होंने हिंदी को ही प्रथम और प्रमुख स्थान दिया. उन्होंने कहा कि कोई भी भारतीय जो हिंदी भाषा को भाषायी राज्यों में राजकीय भाषा मानने को तैयार नहीं है, उसे भारतीय कहलाने का कोई अधिकार नहीं है. वह सही मायने में भारतीय नहीं हो सकता है. सिर्फ और सिर्फ भौगोलिक आधार वह अपने आपको भारतीय कह सकता है.
उस समय उन्होंने जो बात कही थी वह एकदम सही और सटीक साबित हुई. उन्होंने कहा कि, हम किसी भी क्षेत्रीय बोली और भाषा को, सरकारी भाषा की मान्यता देने से भारत को एक इकाई के रूप में संगठित नहीं रख सकते और अगर ऐसा होता है तो भारतीयों को भारतीय प्रथम, और भारतीय अंतिम मानने का आदर्श ही धूमिल हो जाएगा.
डॉ अंबेडकर के तर्कों और तमाम जद्दोजहद के बाद भारतीय संविधान सभा में हिंदी को राजभाषा का दर्जा मिल गया.
हिंदी को राष्ट्र भाषा बनाने के लिए महात्मा गांधी से लेकर जवाहरलाल नेहरू तक ने भी मुहिम चलाई थी, लेकिन वो भी इस मुहिम में सफल नहीं हो सके. उस वक्त काफी लोग ऐसे थे, जो हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के पक्ष में नहीं थे.
साल 1949 में भारत की संवैधानिक समिति ने मुंशी-आयंगर समझौता किया, इसके बाद जिस भाषा को राजभाषा के तौर पर स्वीकृति मिली वह हिंदी (देवनागरी लिपि में) थी.
आजादी के 18 साल बाद साल 1965 में जब हिंदी को सभी जगहों पर जरूरी बना दिया गया, तो तमिलनाडु में काफी हिंसक आंदोलन हुए. उनका कहना था कि यहां के लोग हिंदी नहीं जानते है इसलिए उसे राष्ट्रभाषा नहीं बनाया जा सकता. आज भी दक्षिण भारत में हिंदी को जानने और बोलने वालों की तादाद को उंगलियों में गिनी जा सकता है.
भारत के 20 राज्यों में हिंदी बोलने वाले लोगों की संख्या काफी कम हैं लेकिन जिन राज्यों को हम हिंदी भाषी मानते हैं उनमें भी जनजातीय और क्षेत्रीय भाषाएं बोलने वाले लोगों की तादाद अधिक है. यही वजह है कि आजतक हिंदी राष्ट्रभाषा बनने की बांट जोह रही है.
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