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Holi का खुमार, मजहब के पार: अकबर, खुसरो से लेकर आजाद भारत में मुसलमानों की होली

Holi 2022: मुगलों से शुरू मुस्लिमों की होली से इश्क की यह रवायत आजतक बिना रुके जारी है

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होली (Holi 2022) आते ही फिजाओं में गुलाल-अबीर के चटक रंग के साथ प्रेम का रंग भी घुल जाता है. होली एक ऐसा त्योहार भी है जहां मजहब की दीवारें भी इसके उत्साह और जश्न के कभी आड़े नहीं आई. चाहे हम बात अकबर के दरबार की करें या वर्तमान में बाराबंकी के देवा शरीफ के मजार की- भारत में मुस्लिम धर्म के लोग भी होली के रंग में उतने ही सराबोर होते आये हैं. आइये आपको पहले इतिहास के झरोखों से कुछ ऐसी ही कहानी सुनाते हैं.

मुगलों को प्यारी थी होली

1526 में बाबर भले ही एक विदेशी के रूप में हिंदुस्तान की सत्ता में दाखिल हुआ लेकिन फिर मुगल भारत के ही होकर रह गए. आखिर होली के रंगों में मुगल शासक भी जमकर डूबे और उनका दरबार भी होली गीतों का गढ़ बन गया.

सन्‌ 1192 में मोहम्मद गौरी ने जब पृथ्वीराज चौहान को हराकर अपनी स्थिति मजबूत की तो उसके बाद से शहरों में होली का रंग फीका पड़ने लगा. शहर से दूर गांवों में फिर भी होली की धूम बनी रही. मलिक मोहम्मद जायसी ने अपनी किताब में लिखा कि उस समय गांवों में इतना गुलाल उड़ता था कि खेत भी गुलाल से लाल हो जाते थे.

आखिरकार जब मुगलिया शासक अकबर ने राजपाट संभाला तो हिंदू त्योहार भी धूमधाम से मनाया जाने लगा. इसका वर्णन आईन-ए-अकबरी में मिलता है. शहंशाह अकबर अपनी हिंदू रानी जोधाबाई के साथ होली खेला करते थे. किताबों में जहांगीर का अपनी बेगम नूरजहां के साथ होली खेलने का उल्लेख मिलता है. होली के मौके पर लाल किले के पीछे यमुना नदी के किनारे आम के बगीचे में होली का मेला भी लगता था. उस समय की कई प्रसिद्ध पेंटिंग आज म्यूजियमों की शोभा बढ़ा रही हैं.

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शाहजहां के शासनकाल में भी होली धूमधाम से मनाई जाती थी. इस समय होली को ईद-ए- गुलाबी और आब-ए-पाशी कहा जाता था. यहां तक कि अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर को भी होली पसंद थी. होली पर उनके मंत्री उन्हें रंग लगाया करते थे.

अमीर खुसरो से रसखान तक- होली का खुमार सब  पर रहा

“आज रंग है ऐ मां, रंग है री…”- खड़ी बोली हिंदी के पहले कवि कहे जाने वाले अमीर खुसरो होली के रंग में इतने डूबे कि उन्होंने अपने आध्यात्मिक गुरु हजरत निजामुद्दीन औलिया के लिए ये पंक्तियां लिखी थीं.

16 वीं सदी में रसखान ने लिखा कि

"आज होरी रे मोहन होरी कल हमरे आंगन गारी दे आयो सो कोरी अब क्यों दूर बैठे मैय्या ढ़िंग, निकसो कुंज बिहारी "

18वीं सदी में हुए सूफी संत बुल्ले शाह ने लिखा कि

“होरी खेलूंगी कह कर बिस्मिल्लाह नाम नबी की रतन चढी, बूंद पड़ी इल्लल्लाह रंग-रंगीली उही खिलावे, जो सखी होवे फना-फी-अल्लाह होरी खेलूंगी कह कर बिस्मिल्लाह”
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आखिरी मुगल शासक बहादुर शाह जफर भी शायर मिजाज थे और जब उन्होंने होली पर लिखा तो इसकी मिसाल आज तक दी जाती है.

“क्यों मो पे रंग की मारी पिचकारी, देखो कुंवरजी दूंगी मैं गारी। भाग सकूं मैं कैसे मो से भागा नहीं जात, ठाड़ी अब देखूं और को सनमुच में आत। बहुत दिनन में हाथ लगे हो कैसे जाने दूं, आज फगवा तो सं का था पीठ पकड़ कर लूं”

मजहब के पार होली का जश्न आज भी जिन्दा

मुगलों से शुरू होली से यह इश्क की रवायत आजतक बिना रुके जारी है. दरगाहों से लेकर देश के कई ऐसे गांव भी हैं जहां मुसलमान भी जमकर होली मनाते हैं. बुंदेलखंड के झांसी जिले में वीरा नाम कला एक ऐसा गांव है जहां होली पर मुसलमान भी देवी के जयकारे लगाकर गुलाल उड़ाते हैं. झांसी के मउरानीपुर से 12 किलोमीटर दूर वीरा गांव में हरसिद्धि देवी का मंदिर है. खास बात है कि यहां फाग के गाने की शुरुआत एक मुस्लिम ही करता रहा है और उसके गाने के बाद ही गुलाल उड़ाया जाता है.

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इसी तरह मेवात में हजारों मुसलमान वर्षों से होली खेलते आ रहे हैं. यहां दोनों समुदायों के बीच का भाई चारा न तो 1947 में धर्म के आधार पर देश का बंटवारा तोड़ पाया और न ही राम मंदिर-बाबरी मस्जिद का विवाद.

यूपी की राजधानी से केवल 42 किलोमीटर दूर बाराबंकी में देवा शरीफ की मजार पर मनने वाली होली भी प्रसिद्ध है. देवा शरीफ हाजी वारिस अली शाह की जन्मस्थली है.

यूपी के मुरादाबाद के मूंढापांडे में बसे गांव बीरपुरबरियार में सैकड़ों वर्षों से हिंदू और मुस्लिमों के मिलकर होली खेलने की रस्म कायम है. मुस्लिम बहुल बीरपुरबरियार गांव में होली के मौके पर मेले का आयोजन किया जाता है. जहां मुसलमान भी होली के रंग में रंग जाते हैं.

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