27 मई 1964 को भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू (Jahawahar lal Nehru) के निधन के चार दिन बाद 31 मई को हिंदुस्तान अखबार में उनका एक लेख प्रकाशित हुआ था-'इस मशाल को कौन थामेगा'. इस लेख को पढ़ते समय पता लगता है कि क्यों उन्हें एक महान अध्येता, स्वप्नदृष्टा, लेखक, पत्रकार, विचारक और भारत को बेपनाह मोहब्बत करने वाला व्यक्ति कहा जाता है.
जनतांत्रिक प्रक्रिया में हिस्सा लेते हुए एक नेता कैसे जनता का शिक्षण, प्रशिक्षण करता है और उन्हें जागरूक बनाता है वो यहां मुझे दिखाई देता है। आज ऐसे उदाहरण मुझे कम ही देखने को मिलते हैं.
जनतंत्र सर्वश्रेष्ठ लेकिन...
इस लेख में नेहरू कह रहे हैं कि जनतंत्र उन सारे तरीकों में सर्वश्रेष्ठ है, जिन्हें इंसान ने अपना शासन खुद करने के लिए निकाले हैं. लेकिन ये बेहतर तब ही हो सकता है जब हमारे अंदर सोचने समझने की शक्ति हो. यही इंसानी सोच और समझने की ताकत नेहरू के मशाल का जनतांत्रिक पुंज है जिससे लोकतंत्र मजबूत होता है. इसके उलट जब इंसान अपनी सोच समझ को त्याग देता है तो इसका प्रत्यक्ष असर सही प्रतिनिधि चुनने की क्षमता पर होता है। अपने इस लेख में वो स्पष्ट रूप से कहते हैं कि
एक जनतांत्रिक समाज के लिए यह बड़ी खतरनाक स्थिति है क्योंकि जब आदमी कुछ सोचता विचारता नहीं, तो वह या तो गूंगे राजनीतिज्ञ को चुनता है या फिर किसी डिक्टेटर को लाता है. यही वजह है कि बड़ी-बड़ी तरक्कियों के शानदार जमाने के बाद आज दुनिया एक बहुत बड़ी दुर्घटना के किनारे खड़ी है. मुझे तो इसमें जरा भी शक-सुबहा नहीं कि इंसान ने अपना शासन खुद करने के तरीके निकाले हैं उनमें जनतंत्र का तरीका सबसे बेहतर है लेकिन पिछली दो शताब्दियों में हमने इसका अनियंत्रित रूप ही देखा हैजवाहरलाल नेहरू, पूर्व प्रधानमंत्री
नेहरू भारत की जनता की सोचने समझने की कमजोर होती अवस्था को देख चिंतित हैं और कहते हैं...
उन्होंने इस बे-दिमागी और बे-दिली वाली स्थिति के लिए औद्योगिक क्रांति को बहुत हद तक जिम्मेदार माना और कहा कि-
आपको इस लेख में एक और अद्भुत बात मिलेगी कि नेहरू जनतंत्र को शासन करने का बेहतर तरीका मानते हुए कहते हैं कि जनतंत्र का विस्तार पूरी दुनिया में तेजी से हुआ है लेकिन इस फैलाव के बीच अज्ञानता, नासमझी या दिमागी रुग्णता के विषाणु भी फैले हैं. इस स्थिति के लिए नेहरू औद्योगिक क्रांति को जिम्मेदार ठहराते हैं. औद्योगिक क्रांति के कारण भौतिक सुख-सुविधाओं में हुई बढ़ोतरी ने इंसान की समझने और सोचने की ताकत असर डाला है. विज्ञापन, शोर और प्रोपगैंडा का असर भी वो देख रहे हैं और इस बारे में सावधान करते हैं-
प्रोपगैंडा से सावधान
ऐसा लगता है कि आज की मशीनों का शोर ,प्रोपेगेंडा के नए तरीके और विज्ञापन आदमी को सोचने ही नहीं देते। इस शोरगुल की प्रतिक्रिया यही होती है कि वह (मतदाता) या तो किसी डिक्टेटर को लाता है या फिर गूंगे राजनीतिज्ञ को चुनता है जो एकदम संगदिल होते हैं। जो राजनीतिज्ञ शोरगुल सह लेते हैं वे चुने जाते हैं और जो नहीं सह सकते गिर जाते हैं.जवाहरलाल नेहरू, पूर्व प्रधानमंत्री
अपने लेख के आखिर में नेहरू भारत के जागृत युवाओं की लोकतांत्रिक समझ में दृढ़ विश्वास व्यक्त करते हैं. नेहरू लोकतांत्रिक प्रक्रिया में मतदाता और उसके मताधिकार प्रयोग में सतहीपन से हो रहे और होने वाले नुकसान की अंधेरगर्दी से निकलने के लिए देश के जागृत युवाओं से मशाल थामने के लिए कहते हैं-
''मैं और देश के सब जागृत युवक मिलकर शायद बहुत कुछ कर सकें. अब तक हम लोगों ने मिलकर एक नया सवेरा देखने के लिए काम किया था पर बदकिस्मती से अभी तक अंधेरी रात जारी है और पता नहीं वह कब तक जारी रहेगी. राष्ट्रीय संघर्ष की अगली पंक्ति के हम जैसे बहुत से लोग शायद उस सवेरे को देखने के लिए ना बचें पर वह सवेरा एक दिन जरूर आएगा. तब तक उसका रास्ता रोशन बनाए रखने के लिए हमें अपनी मशाल जलाए रखनी है और मैं जानना चाहता हूं कि कितने ऐसे बाजू मेरे थकते हुए हाथों से उस मशाल को ले लेने के लिए तैयार हैं. मुझे उम्मीद है वह अपने आप को इस विरासत के लायक बनाएंगे.''
संध्या एक फ्रीलांस पत्रकार हैं. इस लेख में दिए गए विचार उनके अपने हैं, क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.)
(हैलो दोस्तों! हमारे Telegram चैनल से जुड़े रहिए यहां)