सिंहासन हिल उठे, राजवंशों ने भृकुटी तानी थी,
बूढ़े भारत में भी आयी फिर से नयी जवानी थी,
गुमी हुई आजादी की कीमत सबने पहचानी थी,
दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी,
चमक उठी सन सत्तावन में
वह तलवार पुरानी थी
बुंदेले हरबोलों के मुँह
हमने सुनी कहानी थी
ख़ूब लड़ी मर्दानी वह तो
झाँसी वाली रानी थी
झांसी की रानी के जीवन को एक गाथा का रूप देने वाली सुभद्रा कुमारी चौहान (Subhadra Kumari Chauhan) की मौत के बाद जब 1949 में जबलपुर के नगरपालिका भवन में उनकी प्रतिमा बनाई गई, तो महादेवी जी की कलम से कुछ अल्फाज निकले थे. उन्होंने लिखा था कि
नदियों का कोई स्मारक नहीं होता, दीपक के लौ को सोने से मढ़ दीजिए उससे क्या होगा? हम सुभद्रा के संदेश को दूर तक फैलाएं और आचरण में उन्हें मानें यही असली स्मारक है.
इलाहाबद में हुआ जन्म, छोटी उम्र से ही शुरू हुआ लेखन
शायद आज भी हम सुभद्रा कुमारी चौहान के संदेश को जनजीवन के दिल-ओ-दिमाग तक पहुंचाने में कामयाबी नहीं हासिल कर सके हैं, क्योंकि उन्होंने जिन सामाजिक बुराईयों और महिलाओं के कई मुद्दों छुआछूत, पर्दा प्रथा, दहेज का बहिष्कार करने को कहती थीं उनमें से ज्यादातर बातें किताबों से बाहर जगह नहीं बना पाई हैं.
अपने वक्त से आगे चलने वाली और अंधेरे में नई राह दिखाने वाली सुभद्रा कुमारी चौहान का संबंध संगम नगरी इलाहाबाद (प्रयागराज) से है. 16 अगस्त 1904 को जन्मी सुभद्रा कुमारी चौहान कम उम्र से ही साहित्य से जुड़ चुकी थीं. उन्होंने अपनी पहली कविता 9 साल की उम्र में “नीम” शीर्षक से लिखी.
सन 1917 के आसपास उनकी मुलाकात हिंदी की लेखिका महादेवी वर्मा से हुई और दोनों अच्छी सखी बन गईं.
सुभद्रा कुमारी एक गांधीवादी महिला थी और उनके पति खंडवा के ठाकुर लक्ष्मण सिंह एक स्वतंत्रता सेनानी थे, जो कांग्रेस के कार्यों में हिस्सा लिया करते थे. शादी के बाद पति-पत्नी दोनों कांग्रेस के सदस्य बने और गांधी जी के रास्तों पर चलना शुरू किया.
साल 1919 में जब जलियांवाला बाग हत्याकांड हुआ तो उससे आहत होकर सुभद्रा कुमारी चौहान ने “जलियांवाला बाग में बसंत” नाम के शीर्षक से एक कविता लिखी जो इस घटना का हाल बयां करती है...
यहां कोकिला नहीं, काग हैं, शोर मचाते,
काले काले कीट, भ्रमर का भ्रम उपजाते.
कलियां भी अधखिली, मिली हैं कंटक-कुल से,
वे पौधे, व पुष्प शुष्क हैं अथवा झुलसे.
परिमल-हीन पराग दाग़ सा बना पड़ा है,
हा! यह प्यारा बाग खून से सना पड़ा है.
ओ, प्रिय ऋतुराज! किन्तु धीरे से आना,
यह है शोक-स्थान यहाँ मत शोर मचाना.
वायु चले, पर मंद चाल से उसे चलाना,
दुःख की आहें संग उड़ा कर मत ले जाना.
कोकिल गावें, किन्तु राग रोने का गावें,
भ्रमर करें गुंजार कष्ट की कथा सुनावें.
लाना संग में पुष्प, न हों वे अधिक सजीले,
तो सुगंध भी मंद, ओस से कुछ कुछ गीले.
किन्तु न तुम उपहार भाव आ कर दिखलाना,
स्मृति में पूजा हेतु यहाँ थोड़े बिखराना.
कोमल बालक मरे यहाँ गोली खा कर,
कलियां उनके लिये गिराना थोड़ी ला कर.
आशाओं से भरे हृदय भी छिन्न हुए हैं,
अपने प्रिय परिवार देश से भिन्न हुए हैं.
कुछ कलियां अधखिली यहां इसलिए चढ़ाना,
कर के उनकी याद अश्रु के ओस बहाना.
तड़प तड़प कर वृद्ध मरे हैं गोली खा कर,
शुष्क पुष्प कुछ वहां गिरा देना तुम जा कर.
यह सब करना, किन्तु यहां मत शोर मचाना,
यह है शोक-स्थान बहुत धीरे से आना.
देश के पहले सत्याग्रह में शामिल होने वाली पहली महिला
साल 1922 में हुआ जबलपुर का ‘झंडा सत्याग्रह’ देश का पहला सत्याग्रह था और सुभद्रा कुमारी चौहान इसमें शामिल होने वाली पहली महिला सत्याग्रही थीं. वो आजादी की लड़ाई में लगातार सक्रिय रहीं और कई बार जेल भी गईं. इसी तरह जब तमाम जगहों पर होने वाले कांग्रेस के सम्मेलन हुआ करते थे और वो उसमें बड़े ही जोश-ओ-खरोश के साथ अपनी बात रखती थीं.
उनके पास अपनी बात रखने का इतना प्रभावी तरीका था कि उनकी स्पीच सुनने के लिए नागपुर विधानसभा का टाउन हॉल भर जाता था. वे अपने भाषण के बीच में वीर रस से भरी कविताएं भी सुनाया करतीं.
जब भारत में 'सविनय अवज्ञा आंदोलन' शुरू हुआ और जबलपुर में सुभद्रा कुमारी के पति लक्ष्मण जी ने एक ओर आमसभा में जनता का आह्वान किया और उनकी गिरफ्तारी हुई, तो दूसरी ओर सुभद्रा कुमारी ने सामाजिक सच्चाइयों को उजागर करने वाली कहानियां लिखीं, उस कहानी संग्रह का नाम था- “बिखरे मोती”, इसके लिए भी उन्हें सेकसरिया पुरस्कार से नवाजा गया.
इस तरह से अगर हम उनके कामों पर नजर डालते हैं तो पता चलता है कि सुभद्रा कुमारी चौहान ने सक्रिय स्वाधीनता आंदोलन और सक्रिय रचनात्मक साहित्य में एक साथ तरक्की की.
उनके द्वारा लिखी गई 'झांसी की रानी' कविता के बारे में हिंदी के प्रोफेसर कृष्ण कुमार ने कहा है कि
अगर आप इस समूची कविता को देखें तो पाएंगे कि यह हिंदी के एक बहुत प्रांजल रूप का निराला उदाहरण रखती है और अलंकार शास्त्र की, ध्वनि शास्त्र की या कहानी की कला के हिसाब से तौलें तो सभी पैमानों पर ये कविता हमेशा कुछ न कुछ सिखाती रहती है.
सुभद्रा कुमारी चौहान जब एक बेटी की मां बनीं तो उन्होंने मातृत्व को अपने तरीके से नये अल्फाज दिए. उन्होंने “मेरा नया बचपन” नाम से अपनी भावनाओं को लड़ियों में पिरोया...
बार-बार आती है मुझको मधुर याद बचपन तेरी,
गया ले गया तू जीवन की सबसे मस्त खुशी मेरी.
चिंता रहित खेलना-खाना वह फिरना निर्भय स्वच्छंद,
कैसे भूला जा सकता है बचपन का अतुलित आनंद.
इलाहाबाद यूनिवर्सिटी (University of Allahabad) में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष पद पर रह चुके प्रोफेसर राजेंद्र कुमार के मुताबिक जब वो अपने बचपन के लौट आने की बात करती हैं तो लौट आना एक राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य भी है कि औपनिवेशिक साम्राज्य के आने से जो हमारी आजादी चली गई थी, हमारे आंगन का स्वाधीनता का फलता–फूलता पौधा सूख रहा था, वो अब लौटने वाला है उनकी यह आकांक्षा उनकी इस कविता में प्रकट होती है.
बच्चों के लिए भी लिखीं कविताएं
सुभद्रा कुमारी ने बच्चों के लिए भी कई कविताएं लिखीं जैसे कोयल, पानी और धूप, खिलौने वाला, कदंब का पेड़, सभा का खेल और अजय की पाठशाला. 'कदंब का पेड़' नामक रचना को उनके बाल चरित्र की उत्तम परख के रूप में देखा जाता है.
यह कदंब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे,
मैं भी उस पर बैठ कन्हैया बनता धीरे-धीरे.
ले देतीं यदि मुझे बांसुरी तुम दो पैसे वाली,
किसी तरह नीची हो जाती यह कदंब की डाल.
तुम्हें नहीं कुछ कहता पर मैं चुपके-चुपके आता,
उस नीची डाली से अम्मा ऊंचे पर चढ़ जाता.
वहीं बैठ फिर बड़े मजे से मैं बांसुरी बजाता,
अम्मा-अम्मा कह वंशी के स्वर में तुम्हे बुलाता.
हिंदी की जानी मानी आलोचक डॉ. निर्मला जैन एक चैनल को दिए इंटरव्यू में कहती हैं कि सुभद्रा जी ने जितनी सुंदर कविताएं लिखीं, उतनी ही खूबसूरती से गद्य साहित्य और कथा साहित्य भी लिखा. उनके कथा साहित्य का महत्त्व इसलिए भी बहुत ज्यादा है कि उनके पास निश्चित कार्यक्रम और उनके सरोकार बड़े व्यापक थे, वे स्वतन्त्रता संग्राम में सक्रिय रूप में भाग भी लेती थीं और उस दौरान अपनी भावनाओं को कविता के माध्यम से वाणी भी देती रहीं, साथ ही स्त्रियों और दलितों का उद्धार भी उनके एजेंडा में प्रमुख स्थान रखता था.
एक ओर जहां उनकी कहानियां स्त्रियों के दुख–दर्द को बयां करती हैं, वहीं उनकी रचनाएं दलित समुदाय की संवेदनाओं का भी सचित्र वर्णन करती हैं.
इसी तरह सुभद्रा कुमारी चौहान द्वारा लिखी “बालिका का परिचय” एक मां के दिल का एहसास कुछ इस तरह से बयां करती है...
यह मेरी गोदी की शोभा सुख सुहाग की है लाली,
शाही शान भिखारिन की है मनोकामना मतवाली.
दीप-शिखा है अन्धकार की घनी घटा की उजियाली,
ऊषा है यह कमल-भृंग की है पतझड़ की हरियाली.
सुधा-धार यह नीरस दिल की मस्ती मगन तपस्वी की,
जीवन ज्योति नष्ट नयनों की सच्ची लगन मनस्वी की.
बीते हुए बालपन की यह क्रीड़ापूर्ण वाटिका है,
वही मचलना, वही किलकना हँसती हुई नाटिका है.
मेरा मन्दिर, मेरी मसजिद काबा-काशी यह मेरी,
पूजा-पाठ, ध्यान-जप-तप है घट-घट-वासी यह मेरी.
कृष्णचन्द्र की क्रीड़ाओं को अपने आँगन में देखो,
कौशल्या के मातृमोद को अपने ही मन में लेखो.
प्रभु ईसा की क्षमाशीलता नबी मुहम्मद का विश्वास,
जीव दया जिनवर गौतम की आओ देखो इसके पास.
परिचय पूछ रहे हो मुझसे, कैसे परिचय दू इसका,
वही जान सकता है इसको,माता का दिल है जिसका.
पुरूष अत्याचार से मुक्ति की कहानी- 'कल्याणी' तथा 'कैलासी नानी' आदि कहानियां नारीकेन्द्रित व स्त्री स्वतंत्रता पर आधारित हैं. इसके अलावा भी सुभद्रा जी ने भग्नावशेष होली, पापीपेट, मछली रानी, परिवर्तन, किस्मत, एकादशी, आहुति, थाती, अमराई, ग्रामीणा नारी, हृदय, वेश्या की लड़की आदि भी कहानियां लिखी हैं.
साल 1928 में 'मुकुल' नाम का काव्य संग्रह इलाहाबाद से प्रकाशित हुआ, जिसके लिए हिंदी साहित्य सम्मेलन से सुभद्रा कुमारी को 'सेकसरिया पुरस्कार' दिया गया.
यह पुरस्कार उस वक्त महिला साहित्यकारों को दिया जाता था. सुभद्रा कुमारी चौहान के सम्मान में भारत सरकार द्वारा डाक टिकट भी जारी किया जा चुका है.
दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी के प्रोफेसर रह चुके डॉ. अजय तिवारी ने अपने एक इंटरव्यू में कहा है कि
जब मौजूदा वक्त में स्त्री मुक्ति आंदोलन और महिला अधिकार दुनिया भर में, खासतौर पर भारतीय समाज में बहुत तेजी से आगे बढ़ रहे हैं तब सुभद्रा जी के कार्यों की महत्ता हमारे लिए और बढ़ जाती है.
1932 में अछूतोद्धार की समस्या का निदान करने को चंदा इकट्ठा करने के लिए जब गांधीजी ने पूरे देश का दौरा किया और जबलपुर भी गए तो सुभद्रा जी ने उनका संदेश घर–घर पहुंचाया.
सुभद्रा कुमारी चौहान साल 1936 में विधानसभा सदस्य के रूप में चुनी गईं. उन्होंने जबलपुर में व्यक्तिगत सत्याग्रह भी किया और गिरफ्तार भी हुईं. जेल में रहने के दौरान उन्होंने अपनी डायरी में लिखा था कि...
आज लालटेन में तेल नहीं, आज कुछ न लिखूंगी, मैं जल्दी जल्दी कुछ लिख देना चाहती हूं क्योंकि लालटेन दम तोड़े दे रही है.
1945 में सुभद्रा कुमारी फिर विधानसभा की सदस्य के रूप में चुनी गईं और उन्होंने सामाजिक कार्यों में खूब काम किया. इसी बीच 15 फरवरी 1948 को नागपुर के शिक्षा विभाग की सभा में शामिल होने के बाद जबलपुर लौटते हुए एक सड़क दुर्घटना का शिकार होने के बाद उन्होंने दुनिया को अलविदा कह दिया. वो भले ही संसार छोड़कर चली गईं लेकिन उनके कार्य और उनकी साहित्यिक रचनाएं आज भी प्रखर रूप में अपनी बात कहते हैं.
सुभद्रा कुमारी की कलम से निकली “मेरा परिचय” नाम के शीर्षक की कविता उनके जीवन का निचोड़ हमारे सामने पेश करती है.
मैंने हंसना सीखा है मैं नहीं जानती रोना,
बरसा करता पल-पल पर मेरे जीवन में सोना.
मैं अब तक जान न पाई कैसी होती है पीडा,
हंस-हंस जीवन में कैसे करती है चिंता क्रिडा.
जग है असार सुनती हूं, मुझको सुख-सार दिखाता,
मेरी आंखों के आगे सुख का सागर लहराता.
उत्साह, उमंग निरंतर रहते मेरे जीवन में,
उल्लास विजय का हंसता मेरे मतवाले मन में.
आशा आलोकित करती मेरे जीवन को प्रतिक्षण,
हैं स्वर्ण-सूत्र से वलयित मेरी असफलता के घन.
सुख-भरे सुनले बाद रहते हैं मुझको घेरे,
विश्वास, प्रेम, साहस हैं जीवन के साथी मेरे.
सुभद्रा कुमारी चौहान की भाषा सीधी और सरल है, उनकी रचनाओं को पढ़ते वक्त पाठक के मन में उस घटना का एक वास्तविक दृश्य बन जाया करता है. उनकी रचनाओं में वात्सल्य और वीर रस का मिलाजुला रूप देखने को मिलता है.
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