(ये आर्टिकल पहली बार 26 मई 2018 को प्रकाशित हुआ था. सुशील कुमार के जन्मदिन पर इसे दोबारा पब्लिश किया गया है.)
बतौर खेल पत्रकार ये खुशनसीबी रही कि सुशील कुमार को बीजिंग में ब्रॉन्ज मेडल और लंदन में सिल्वर मेडल जीतते देखा. जिस खिलाड़ी को छत्रसाल स्टेडियम में पसीना बहाते जाने कितनी बार देखा था उसे ओलंपिक के पोडियम पर देखा. जिस हाथ में प्रैक्टिस के बाद प्यास मिटाने के लिए शरबत का जग होता था उन्हीं हाथों में तिरंगा देखा. बीजिंग ओलंपिक में ब्रॉन्ज मेडल जीतने के बाद अगले दिन सुशील कुमार को स्थानीय भाषा की परेशानी के चलते गेम्स विलेज जाने के लिए टैक्सी के लिए परेशान होते देखा और आज उसी सुशील कुमार की बातचीत में एक अद्भुत कॉन्फिडेंस देखा.
मैंने कुछ रोज पहले सुशील को व्हाट्सएप पर मैसेज किया, सुशील भाई आपसे बातचीत करनी है. जवाब आया जल्दी ही मिलते हैं भाई साहब. जल्दी ही मिलने के लिए तय हुई वही जगह जहां से सुशील कुमार बने हैं- छत्रसाल स्टेडियम. इस बीच सुशील ने हाल ही में कॉमनवेल्थ खेलों का गोल्ड मेडल जीता है. अब वो बड़ी गाड़ी से स्टेडियम आते हैं.
इस एक बदलाव के अलावा उनकी बातचीत, उनकी चाल- ढाल और उनके अंदाज में कोई फर्क नहीं आया. स्टेडियम आते ही सुशील कुमार एक लड़के को इशारा करते हैं. थोड़ी ही देर में वो लड़का बेल का शरबत लेकर हाजिर होता है. ऐसा सुशील कुमार के साथ हर मुलाकात में होता आया है. बेल के शरबत के बाद बातचीत शुरू होती है. बातचीत इसलिए क्योंकि आज उसी सुशील कुमार का जन्मदिन है.
सुशील, ये छत्रसाल स्टेडियम का पहला दिन याद है अब भी? जवाब मिला- “कैसी बात कर रहे हैं भाई साहब, सबकुछ याद है. कुछ नहीं भूला. पता है जब शुरू-शुरू में यहां आया तो एक कोच साहब ने कह दिया कि ये लड़का कुश्ती नहीं कर सकता. उन्होंने मेरे भाई को तो कहा कि वो अच्छा पहलवान है, लेकिन मुझसे बोले कि भाई तेरे लिए कुश्ती नहीं बनी है. दिल को चोट पहुंची. मेरे पिताजी एमटीएनएल में ड्राइवर थे. मुश्किलें तमाम थीं. उस पर से कोच साहब ने ऐसा कह दिया तो मैं मायूस हो गया, लेकिन मैंने तय कर लिया कि छत्रसाल स्टेडियम छोड़कर कहीं नहीं जाऊंगा. आखिर मेरी ट्रेनिंग और मेहनत रंग लाई. एक दिन सतपाल गुरू जी पीठ पर हाथ ठोंककर बोले- ये लड़का वर्ल्ड चैंपियन बनेगा.
चक्कर ये था कि मैं मायूस बैठा सोच रहा था कि पहले वाले कोच साहब की बात कहीं ठीक तो नहीं है कि मैं पहलवान नहीं बन सकता उसी समय सतपाल गुरू जी की इस बात से मेरे चेहरे पर खुशी आ गई. बस उसके बाद क्या था. 978 नंबर की बस होती थी. कोशिश करते थे कि पीछे की सीट खाली मिल जाए. उस सीट पर बैठकर हवा के झोंके में हल्की फुल्की नींद के झोंके के साथ स्टेडियम आने जाने का सिलसिला रूटीन में आ गया. आज इसी स्टेडियम में मेरा ऑफिस है”
सुशील कुमार एक औसत परिवार से आते हैं. पिता ड्राइवर थे, मां घरेलू महिला. भाई हैं वो भी पहलवान. बचपन में डांट पड़ी भी तो इस बात पर कि खाना कम क्यों खाते हो. इसके पीछे की कहानी कुछ यूं कि दादा जी पहलवान थे. न्याय व्यवस्था के हिमायती. कभी कहीं से सुशील की शिकायत आई तो शिकायत करने वाले के सामने ही सुशील की पिटाई करते थे. जिससे ये साफ हो जाए कि न्याय तुरंत और आंखों के सामने मिल गया. सुशील छत्रसाल स्टेडियम आने-जाने लगे तो मां को बेटे की याद आती थी. याद तो आती थी, लेकिन रोने की मनाही थी. मां ने बेटे की याद में जितने भी आंसू बहाए वो चोरी छुपे.
खुलकर रोने की इजाजत परिवार में नहीं थी कि बेटा कमजोर हो जाएगा. इस पक्की परवरिश का नतीजा ये हुआ कि बेटे का दिल मजबूत रहा. ऐसे संयोग बने कि जिंदगी में ये समझ आ गया कि ऊपर वाला जो भी करता है अच्छे के लिए करता है. ये सोच कैसे बनी? सुशील बताते हैं.....
“2002 में मैनचेस्टर में कॉमनवेल्थ गेम्स हुआ था. उसमें 6 दिन पहले मेरा नाम कट गया था. मैंने सोचा था कि वहां जीता तो जो पैसे मिलेंगे उससे परिवार की आर्थिक परेशानी थोड़ी दूर होगी. मैं बहुत मायूस हुआ. उसी दिन मुझे एक सीनियर पहलवान सर मिले थे, जिनकी मैं आज भी बहुत इज्जत करता हूं. उन्होंने ही कहा था कि- क्या पता मालिक को आपके लिए कुछ और अच्छा करना हो. उस दिन जो सीख उन्होंने दी थी वो अब भी मेरे साथ हमेशा रहती है.”सुशील कुमार, पहलवान
अगले साल वर्ल्ड चैंपियनशिप में सुशील मेडल से चूक गए, लेकिन उनकी ट्रेनिंग और मेहनत की चर्चा सुनाई देने लगी. 2004 में एथेंस में उन्हें ओलंपिक के लिए चुना गया. सुशील एथेंस गए, लेकिन मायूस हुए. पहली बार ओलंपिक का स्तर समझ आया. लौटकर आए तो और मेहनत शुरू कर दी. सतपाल गुरू जी की बात हर वक्त कान में गूंजने लगी कि ओलंपिक मेडल चाहिए...ओलंपिक मेडल चाहिए.
कान में चाहे जितनी बार ये शब्द गूंजें हों, लेकिन इसे सच में बदलने में लिए चार साल के इंतजार के अलावा कोई और चारा नहीं था. सुशील कुमार ने इंतजार किया, बीजिंग की बारी आई. बीजिंग में भी पहले वो बाहर हो गए. देश भर के मीडिया हाउसेस ने फ्लैश कर दिया कि सुशील कुमार बाहर हो गए हैं. अचानक पता चला कि ‘रेपेचेज’ के जरिए वो वापस आ गए हैं.
इस बात को मान लेने में कोई हर्ज नहीं है कि उस वक्त तक इक्के दुक्के खेल पत्रकारों को ही ‘रेपेचेज’ के नियमों की जानकारी थी. सुशील कुमार याद करके बताते हैं “मेरे हारने के बाद गुरू जी बहुत परेशान थे. वो इतने दुखी थे कि समझाना मुश्किल है. जब ‘रेपेचेज’ की खबर मिली तो मैंने तय कर लिया कि पूरी जान लगा देनी है. यूएसए के पहलवान को हराया, बेलारूस के पहलवान को हराया. कजाकिस्तान वाले पहलवान को तो बड़े जबरदस्त मूमेंट पर हराया. आखिर ओलंपिक मेडल आ ही गया, गुरू जी जो हमेशा कहते थे वो काम मैंने कर दिया था”.
इसके बाद दुनिया जानती है कि सुशील कुमार के दिन बदल गए. मेडल आया, तमाम ईनाम आए. शोहरत मिली, स्टारडम मिला, विज्ञापन मिले. बस ये बताना जरूरी है कि सुशील कुमार ने उस समय भी शराब के एक डमी विज्ञापन के लिए ये कहकर मना कर दिया कि मैं अगली पीढ़ी को ये संदेश नहीं दे सकता.
2012 में एक बार फिर सुशील ने कारनामा किया. इस बार वो एक और कदम ऊपर जाकर सिल्वर मेडल लाए. लेकिन सच ये है कि उस रोज सुशील गोल्ड मेडल से चूके. आज भी कई बार सोते वक्त सुशील उस रोज की बाउट को याद करके सोचते हैं, गोल्ड मेडल मिस हो गया.
आज किस बात की संतुष्टि है सुशील? “भाई साहब संतुष्टि तो इसी बात की है कि अभी कॉमनवेल्थ में जीतकर लौटा तो मेरे पिता जी ने एक और पहलवान को गोल्ड मेडल जीतने के लिए एक लाख रूपये खुद से निकाल कर दिए। इससे ज्यादा खुशी मेरे लिए और क्या हो सकती है”
शाम के करीब 6 बज गए हैं. छत्रसाल स्टेडियम में अलग-अलग खेल खेलने वाले बच्चों की फौज जमा है. उनके लिए वॉर्म-अप होने का वक्त है. लड़के लड़कियां दौड़ रहे हैं. जितनी बार वो हमारे पास से निकलते हैं सुशील को ‘विश’ करते हैं सुशील उन्हें ‘बेस्ट ऑफ लक’ करते हैं. कुछ बच्चे हर बार ‘विश’ करते हैं सुशील हंसकर कहते हैं- बच्चे हैं भाई साहब, फिरकी ले रहे हैं. बच्चों को अपने बीच एक ओलंपिक चैंपियन मिला है. चलते-चलते मैं कैमरा निकालता हूं सुशील भाई आइए एक सेल्फी लेते हैं- सुशील कहते हैं भाई साहब आप आओ मैं क्लिक करता हूं. सेल्फी के बाद और चलने से पहले का उनका सवाल वही पुराना है- भाई साहब एक गिलास शरबत और मगाऊं क्या?
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