आज से नहीं बल्कि अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट की शुरुआत से ही क्रिकेट और नक्सलवाद (Racism) का नाता एकदम चोली दामन वाला रहा है. चाहे जितनी शिद्दत से इस दाग को खेल से अलग करने की कोशिश की जाए, ये अपने रंग में लौट ही आता है.
इन दिनों क्रिकेट में नस्लवाद की कुछ ज्यादा ही चर्चाएं होने लगी हैं. अब नया मुद्दा जो चर्चा में आया है वो है यॉर्कशायर के पूर्व खिलाड़ी और इंग्लैंड अंडर-19 टीम के पूर्व कप्तान अजीम रफीक के साथ हुई नस्लवाद की घटनाएं.
इससे भी घातक ये ही कि इन्होंने जो भी आरोप लगाए उनकी पुष्टि हो चुकी है.
पहले समझिए क्या है यॉर्कशायर का ये मामला ?
यॉर्कशायर क्रिकेट क्लब जिसकी स्थापना 1863 में हुई, इंग्लैंड क्रिकेट बोर्ड के घरेलू क्रिकेट स्ट्रक्चर में 18 क्लब में से एक है. ये क्लब अब तक इंग्लिश क्रिकेट के इतिहास में में 33 काउंटी खिताब जीतने वाला सबसे सफल क्लब है.
इसी यॉर्कशायर क्लब के पूर्व खिलाड़ी हैं अजीम रफीक जो 2004 से 2006 और फिर 2008 से 2016 तक इस क्लब के साथ जुड़े रहे थे. रफीक मूल रूप से पाकिस्तानी है.
2018 में रफीक ने यॉर्कशायर के मेंबर्स खिलाफ नस्लवादी टिप्पणियां करने के गंभीर आरोप लगाए. उन्होंने यहां तक कहा कि इन सब से तंग होकर मैं आत्महत्या के कगार पर पहुंच चुका था. एक इंटरव्यू के दौरान उन्होंने पूरे यॉर्कशायर पर एशियाई मूल के खिलाड़ियों के प्रति नस्लभेदी होने का आरोप भी लगया था.
क्रिकेट क्लब लंबे समय से इन आरोपों को नजरअंदाज करता आ रहा था लेकिन अमेरिका में जॉर्ज फ्लॉयड की मौत के बाद खड़े हुए ब्लैक लाइफ मैटर आंदोलन से अजीम रफीक के आरोपों को बल मिला. इसी वर्ष सितंबर में एक जांच कमेटी बनाकर अजीम के आरोपों की जांच करवाने की पहल की. इस जांच में क्लब को दोषी पाया गया. इसके बाद पूरा यॉर्कशायर क्रिकेट क्लब कटघरे में आया और इस क्लब को अंतरराष्ट्रीय मैच होस्ट करने से प्रतिबंधित कर दिया गया.
अजीम रफीक को एक लंबी लड़ाई के बाद इंसाफ मिलता नजर आ रहा है लेकिन सवाल यह है की क्रिकेट में ऐसे न जाने कितने रफीक हैं जो लगातार ऐसी घटनाओं का शिकार होते रहते हैं.
यॉर्कशायर क्लब के एक कर्मचारी ताज बेट का आरोप है कि एशियाई क्रिकेटरों को यहां 'टैक्सी ड्राइवर' और 'रेस्टोरेंट वर्करटट' कहकर बुलाया जाता है ताकि उन्हें अपमानित किया जाए सकें. यहां तक कि भारतीय बल्लेबाज चेतेश्वर पुजारा को भी यहां 'स्टीव' कहकर बुलाने की घटनाएं सामने आई हैं जो गंभीर सवाल खड़े करती है.
क्रिकेट में नस्लवाद के दाग बहुत गहरे हैं
क्रिकेट में नस्लवाद या रंगभेद के दाग इतने गहरे हैं कि इसी के चलते 22 सालों तक दक्षिण अफ्रीका को टेस्ट क्रिकेट से बैन कर दिया गया था. लेकिन ना तब कुछ बदला और ना अब.
2006 में कोलंबो टेस्ट के दौरान कॉमेंटेटर डीन जोंस ने दक्षिण अफ्रीका के खिलाड़ी हाशिम आमला को लाइव कमेंट्री में आतंकवादी कह दिया. मॉडर्न टाइम में है नक्सलवाद की पहली घटनाओं में से एक है. इसे एक उदाहरण के रूप में ले लीजिए लेकिन ऐसे कई आगे हैं.
2008 में सिडनी में हरभजन सिंह और एंड्रू सायमंड के बीच मंकी गेट कांड से चर्चित नस्लभेद की घटना एक और उदाहरण है.
2018 में इंग्लैंड के खिलाड़ी मोइन अली ने उजागर किया कि 2015 में एशेज टेस्ट के दौरान उनकी तुलना आतंकवादी ओसामा बिन लादेन से की गई थी.
पिछले इस साल आईपीएल में हैदराबाद के एक मैच के दौरान वेस्टइंडीज के खिलाड़ी डेरेन सैमी ने आरोप लगाया कि उन्हें और श्रीलंका के थिसारा परेरा को 'कालू' शब्द से बुलाया जाता है. इस शब्द से हम सभी परिचित हैं.
जनवरी 2021 में ऑस्ट्रेलियाई दौरे पर गई भारतीय टीम के दो गेंदबाज जसप्रीत बुमराह और मोहम्मद सिराज के खिलाफ स्टैंड से लोगों की नस्लभेद की टिप्पणियों ने एक बार फिर बता दिया यूरोप में एशियाई मूल के खिलाड़ियों के लिए इज्जत तलाशने में अभी वक्त लगेगा.
साफ है कि ना 70 के दशक में नस्लवाद क्रिकेट से अलग हो पाया ना ही आज इसे आज अलग किया जा सका है. खिलाड़ियों का अब मैच से पहले घुटनों के बल बैठकर नक्सलवाद के खिलाफ समर्थन एक पहल जरूर है लेकिन असली काम खिलाड़ियों को अपने व्यवहार में परिवर्तन लाकर ही करना होगा.
यॉर्कशायर का मामला नस्लवाद के मामले में एक परिवर्तनकारी मोड़ जो सकता है. जिस तरह एक पुराने मामले में अब जाकर एक्शन लिया गया है उससे खिलाड़ियों के मन में एक खौफ जरूर बैठेगा. अजीम रफीक ने जो साहस और हिम्मत दिखाई उसके लिए हर तरफ उनकी तारीफ हो रही है.
ऐसे में संभव है कि कुछ और खिलाड़ी आने वाले दिनों में सामने आकर अपने साथ हुए नस्लभेद की घटनाओं को उजागर कर सकते हैं और यह एक बदलाव को दिशा मिल सकती है.
लेकिन उससे पहले यह मानना पड़ेगा कि अभी नस्लभेद हमारे बीच अपनी गहरी पैठ बनाए हुए हैं.
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