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एक उभरते क्रिकेटर की ‘पुकार’-भैया हमें सचिन-धोनी मत बनाओ

कल उन्मुक्त चंद आज पृथ्वी शॉ और कल कोई और ऐसी तुलनाओं का दौर बदस्तूर जारी है...मिला क्या?

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लगातार मेहनत, जज्बा, तारीफ और फिर तुलना. ये तुलना वाला स्टेप ही घातक है. बात 17 साल के पृथ्वी शॉ की हो रही है. पृथ्वी दलीप ट्रॉफी फाइनल में सेंचुरी बनाने वाले सबसे युवा खिलाड़ी हैं. फिलहाल, मीडिया की सुर्खियों में हैं. लगे हाथ उनकी तुलना दिग्गज क्रिकेटर मास्टर ब्लास्टर सचिन तेंदुलकर से की जाने लगी है.

तर्क दिए जा रहे हैं कि जहां पृथ्वी ने 17 साल 320 दिन में ट्रॉफी के फाइनल में शतक जड़ा है, उसी तरह इसी ट्रॉफी में सचिन तेंदुलकर ने कई साल पहले महज 17 साल 262 दिन में शतक जमाया था.

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सिर्फ इतना ही नहीं तुलना करने वाले छोटे कद को भी पैमाना बना रहे हैं, सचिन और पृथ्वी दोनों का कद अपेक्षाकृत छोटा है. यहां 'कद' को लंबाई के तौर पर देखा जाना चाहिए, वरना पृथ्वी को सचिन के कद से मैच कराने के लिए कई साल और इन सालों में लिखे गए कई आर्टिकल कम पड़ सकते हैं.

तुलना करने में कैसी रेस?

आखिर हम (मीडिया, जानकार और गल्ली-मोहल्ले-नुक्कड़े पर बैठे क्रिकेट के विशेषज्ञ) तुलना करने में इतनी तेजी क्यों दिखाते हैं? कारण ये है कि हमने अपने क्रिकेट इतिहास को ध्यान से नहीं देखा, या फिर हमारी याद्दाश्त बस टीवी चैनलों, अखबारों और रद्दियों में पड़े तुलना से भरे आर्टिकलों पर निर्भर है. इतिहासकार जॉर्ज बर्नांड शॉ की मशहूर पंक्ति है-‘इतिहास हमें यह सिखाता है कि हम इतिहास से कुछ नहीं सीखते.’

अब आपको लग रहा होगा कि इतना बड़ा क्या हो गया कि गंभीर बातें... जॉर्ज बर्नांड शॉ और इतिहास तक पहुंच गई. ऐसे में हमें पिछले 2-3 दशकों के क्रिकेट इतिहास पर नजर डालना चाहिए,

इतिहास हमें यह सिखाता है कि हम इतिहास से कुछ नहीं सीखते

सिर्फ सचिन ही नहीं कई दिग्गज क्रिकेटर्स के साथ युवा और उभरते क्रिकेटर्स की तुलना हुई, मीडिया में वो उभरते खिलाड़ी छाए भी और अब कहां ठहरते हैं नहीं पता? उन्मुक्त चंद, सौरभ तिवारी, हरमीत सिंह, तन्मय श्रीवास्तव कुछ ऐसे ही नाम है.

ऐसा नहीं है कि सिर्फ भारत में ही ऐसा होता है, विदेशों में भी ये ट्रेंड है. लेकिन इस बात को भी सोचना होगा कि भारत में क्रिकेट का रूतबा बाकि किसी देश से कहीं ज्यादा है. यहां क्रिकेट एक पूजा है और सचिन जैसे क्रिकेटर्स इस आस्था के भगवान.

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ऐसे ही कुछ खिलाड़ियों पर एक नजर डालते हैं.

दिल्ली के रहने वाले सलामी बल्लेबाज उन्मुक्त चंद इस तरह के सबसे बड़े और हालिया उदाहरण हैं. 19 साल की उम्र में उन्मुक्त चंद ने बतौर कप्तान भारत को अंडर-19 वर्ल्ड कप दिलाया. प्रथम श्रेणी मैचों में अपनी क्लास और बल्लेबाजी के दमपर वो छाए रहे उनकी तुलना सचिन से लेकर विराट कोहली तक हुई.

साल 2011 में वो आईपीएल में दिल्ली की तरफ से खेल रहे थे, अब हालात ये है कि उन्हें दिल्ली की रणजी टीम से भी ड्रॉप कर दिया, आईपीएल में उन्हें खरीददार तक नहीं मिले.

सौरभ तिवारी ने आईपीएल में मुंबई इंडियंस के लिए 2010 सीजन में कई अच्छी पारियां खेलीं तो क्योंकि वो झारखंड से थे और उनके बाल लंबे थे तो लोग उन्हें 'छोटा धोनी' कहकर बुलाने लगे. फिलहाल वो टीम इंडिया तो क्या आईपीएल में भी खरीदार के लिए संघर्ष करते नजर आते हैं.

कहने का मतलब सिर्फ इतना है कि शुरुआती सफलताओं को हम इस कदर आसमान तक पहुंचा देते हैं कि उभरता हुआ क्रिकेटर या तो उस उम्मीदों का बोझ नहीं सह पाता या तुलना की खुमारी में उसका खेल ‘खत्म’ हो जाता है.
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तुलना और सुविधा के बीच का बैलेंस बिगड़ जाता है

अभी पृथ्वी शॉ सुर्खियों में हैं करीब 1 साल पहले 16 साल के प्रणव धनावड़े सुर्खियों में थे. प्रणीव ने इंटर स्कूल मैच के दौरान रिकॉर्ड 1009 रन ठोक डाले थे. राजनेता से लेकर क्रिकेटर तक उनकी तारीफ में उतर आए.

सचिन तेंदुलकर ने खुद अपना ऑटोग्राफ किया हुआ बैट उन्हें दिया. धनावड़े विकेटकीपर बैट्समेन थे तो लोगों ने धोनी से उनकी तुलना करने में जरा भी देरी नहीं की.

महज कुछ महीनों में ही खबर आई कि मुंबई अंडर-19 टीम में प्रणव का चयन नहीं हुआ. इसलिए तुलना करने या दावे करने से इतर हम इस बात पर कितना फोकस कर पाते हैं कि प्रणव जैसे उभरते हुए खिलाड़ियों को कैसी ट्रेनिंग दी जा रही है. क्या एक ऑटो चालक के बेटे प्रणव को वो सारी सुविधाएं मिल रही हैं जिससे उसकी तुलना बेंच मार्क बने सचिन तेंदुलकर से की जा सके.

धोनी-सचिन मत बनाओ खिलाड़ी ही रहने दो

झारखंड के उभरते हुए विकेटकीपर बल्लेबाज ईशान किशन की भी जोरशोर से तुलना महेंद्र सिंह धोनी से की जा रही है. झारखंड की तरफ से खेलते हुए पहली ही मैच में उन्होंने 60 रन की दमदार पारी खेली थी. कोहली, उन्मुक्त चंद के रास्ते पर ही जाते हुए इन्हें भी अंडर-19 वर्ल्ड कप का कप्तान चुना गया था. फिलहाल, लोग उनमें धोनी का अक्स देख रहे हैं, साल 2017 आईपीएल के दौरान भी दोनों के बीच तुलना की गई.

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ऐसे में इन तमाम तुलनाओं और आशाओं के बीच कुछ बातें समझ नहीं आती, जिनकी तुलना हम दिग्गजों से करते हैं क्या-

  • हम उन्हें शुरुआत से ही अच्छी ट्रेनिंग दे पाते हैं?
  • 5-6 दिन खबरों में रहने के बाद मीडिया या हम खुद उन्हें क्यों भूल जाते हैं?
  • क्या लगातार ऐसी तुलनाओं से उन उभरते खिलाड़ियों के ऊपर उम्मीदों का बोझ जरूरत से भारी नहीं हो जाता?

चलते-चलते सिर्फ एक डायलॉग जो आपने कई दफा सुना या पढ़ा होगा, हर खिलाड़ी या शख्स के अंदर किसी भी दूसरे से ईतर कुछ खास जरूर होता है. अगर, हम उसकी तुलना किसी दूसरे से कर रहे हैं तो या तो हम इस जिम्मेदारी को बखूबी निभाए या उसके कंधों पर उम्मीदों का बोझ न बढ़ाएं.

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