यूपी चुनाव (UP ELections) में BSP की हार पर मायावती (Mayawati) ने कहा कि ‘BJP को हराने के लिए मुस्लिमों ने अपनी आजमाई हुई पार्टी बीएसपी से छोड़कर एसपी को वोट दे दिया. उनके इस गलत फैसले से हमें बहुत नुकसान हुआ, क्योंकि बीएसपी समर्थकों, हिंदुओं की उच्च जातियों और OBC में डर फैल गया कि अगर समाजवादी पार्टी चुनाव जीत जाती है तो एक बार फिर जंगल राज की वापसी हो जाएगी. इसलिए वो BJP की तरफ चले गए... …ये हमारे लिए सख्त सबक है..हमने उन पर भरोसा किया.. हम ये बात ध्यान में रखेंगे और इसी के मुताबिक बदलाव करेंगे.”
लेकिन क्या मायावती के लिए ये उचित है कि वो अपनी पार्टी के खराब प्रदर्शन पर अपनी प्रतिक्रिया में मुस्लिमों को जिम्मेदार ठहराएं ? निश्चित तौर पर नहीं. ये रहे कारण ?
वजह #1: BSP का उदासीन चुनावी कैंपेन
बीएसपी इस बार चुनावी कैंपेन में कहीं नजर नहीं आई. कैंपेन के दौरान पार्टी की कम रैलियां हीं सिर्फ इसकी गवाही नहीं है बल्कि जो कुछ थोड़ी बहुत रैलियां हुईं उनमें भी मायावती बहुत कम दिखीं. चुनावी कवरेज के दौरान जमीन पर जब भी हम वोटरों से बात कर रहे थे तो अक्सर ये सुनने को मिलता “बहन जी ज्यादा दिख नहीं रही हैं’ . मायावती को लेकर ये भावना सभी समुदायों यहां तक दलितों और मुसलमानों में भी था. तथ्य भी इस दावे की पुष्टि करते हैं. स्टार कैंपेनर्स की कमी से मायावती ने पूरे चुनाव के दौरान सिर्फ 20 रैलियां कीं जो कि वोटरों को लुभाने की बीजेपी और समाजवादी पार्टी की रैलियों की तुलना में बहुत कम है.
हकीकत में, इस चुनाव के लिए मायावती की पहली पब्लिक मीटिंग, वोटिंग शुरू होने से सिर्फ 8 दिन पहले 2 फरवरी को हुई.
इन वजहों से, ये बिल्कुल साफ है कि इस चुनाव में मायावती और BSP बैक सीट पर नजर आई. ऐसे हालात में क्या बीजेपी विरोधी वोट जिसमें मुस्लिम भी हैं, उनको सपा में जाने के लिए दोषी ठहराया जा सकता है, जिन्होंने चुनाव में समाजवादी पार्टी को बीजेपी का मजबूत चैलेंजर माना ?
वजह #2: मुस्लिमों को लेकर बीएसपी का दोहरापन (दुविधा)
चुनावी नतीजे और वोटिंग के तरीके एक बड़ा ट्रेंड ये बताते हैं कि – पूरे राज्य में मुस्लिम वोट समाजवादी पार्टी के पक्ष में एकजुट हुई और उनको समाजवादी पार्टी, योगी का सबसे बड़ा चैलेंजर लगी. मायावती इससे नाराज हो सकती हैं, लेकिन यहां कुछ फैक्टर्स हैं जिससे वो समझ सकती हैं कि ऐसा क्यों हुआ ?
क्या यूपी में एक मुस्लिम मतदाताओं को इसलिए दोषी ठहराया जा सकता है जो ये मानता है कि BSP उनके हितों को लेकर एक नहीं हैं.
उदाहरण के लिए, जुलाई 2021 में बीएसपी ब्राह्मणों को ये कहकर लुभा रही थी कि अगर वो सत्ता में आई तो राम मंदिर बनाने के काम को तेज कर देगी.
राम मंदिर , उस जगह पर बनाया जा रहा है जहां बाबरी मस्जिद 1992 तक थी,जो कि मुस्लिम वोटरों के लिए भावनात्मक मुद्दा है. और बीएसपी के दोहरेपन का सिर्फ यही एक उदाहरण नहीं है. साल 2019 में राज्यसभा में तीन तलाक को अपराध बनाने वाले बिल का विरोध सपा और BSP दोनों ने ही किया लेकिन ये बीएसपी ही थी जो वोटिंग से दूर रही. जबकि सुप्रीम कोर्ट ने पहले ही एक साथ तीन तलाक को गैरकानूनी करार दिया था, तो मोदी सरकार के तीन तलाक बिल को मुस्लिम समुदाय ने मुसलमान मर्दों को अपराधी बनाने का हथियार समझा.
‘इस मुद्दे पर बीएसपी का वोट नहीं करने का फैसला पार्टी का मुस्लिम समुदाय को लेकर दोहरेपन का एक और उदाहरण है’
फिर अक्टूबर 2020 में मायावती ने कहा कि वो विधानपरिषद चुनाव में एसपी उम्मीदवारों की हार सुनिश्चित करेगी भले ही बीजेपी जीत जाए. लेकिन जब उनका ये बयान लोगों को अच्छा नहीं लगा तो उन्होंने सफाई दी कि वो बीजेपी का सहयोगी बनने का कभी सोचेगी नहीं.
चुनाव में मायावती के लचर रुख और बीजेपी को टैक्टिक सपोर्ट के आरोप ने यूपी में बीजेपी के लिए माहौल बना दिया. आरोपों को दम फिर तब मिला जब जमीन पर मायावती उस ताकत से लड़ती नहीं दिखीं जिस तरह से वो लड़ सकती थीं.
वजह #3: मुस्लिमों ने सोच समझकर बीजेपी के खिलाफ वोट किया, फिर क्यों आरोप मढ़ना?
आइए इसको ठीक से समझने के लिए 2017 चुनाव नतीजों के कुछ निर्वाचन क्षेत्रों को देखें
साल 2017 में, बरेली जिला के भोजीपुरा में, बीजेपी उम्मीदवार कुल 1 लाख वोटों से जीते. एसपी उम्मीदवार शाजिल अंसारी 72,000 वोटों के साथ दूसरे नंबर पर रहे और एक अन्य मुस्लिम उम्मीदवार जो BSP के थे उनको 49.8 हजार वोट मिले.
दो मुस्लिम उम्मीदवारों ने मिलकर 1.22 लाख वोट हासिल किए.. जो बीजेपी उम्मीदवार के कुल वोटों से काफी ज्यादा है.. लेकिन बीजेपी विरोधी मुस्लिम वोट सपा और BSP में बंट गया और बीजपी आसानी से जीत गई.
ऐसा ही कुछ बहराइच जिले के नानपारा में हुआ. साल 2017 में मुस्लिम वोट, कांग्रेस उम्मीदवार वारिस अली जिन्हें 67 हजार वोट मिले उनमें और बीएसपी उम्मीदवार अब्दुल वहीद जिन्हें 25 हजार वोट मिले में बंट गया. इन दोनों को मिलाकर वोट होता है 93 हजार ..लेकिन वोट बंटने से बीजेपी की माधुरी वर्मा 86 हजार वोटों से जीत गईं.
मुस्लिम वोट एसपी, बीएसपी में बंटने से अक्सर बीजेपी उम्मीदवार की जीत हुई जो कि साल 2017 में देखा गया.. फिर, इस बार क्या बदल गया?
एसपी को एकमुश्त मुस्लिम वोट मिलने से वोट बंटा नहीं. जैसे भोजपुरा में ही बहारन लाल मोर्या बीजेपी के टिकट पर लड़े और उन्हें 1.09 लाख वोट मिले. लेकिन मुस्लिम वोट नहीं बंटने से एसपी SP उम्मीदवार शजील अंसारी को 1.19 लाख वोट मिले और वो 9,409 वोटों की मार्जिन से चुनाव जीत गए. बीएसपी उम्मीदवार को सिर्फ 27,000 वोट मिले और इससे बड़ा फर्क आया और बीजेपी यहां से हार गई.
भोजीपुरा जैसी जगह पर इस तरह की सोची समझी वोटिंग दरअसल बीजेपी को रोकने में कारगर रही और चुनाव नतीजों पर मायावती जो कुछ कह रही हैं असल तस्वीर उसके विपरीत है.
वजह #4: गैर जाटव दलित वोटरों में बीएसपी चौथे नंबर पर
हालांकि , चुनाव नतीजों के बाद मायावती ने समर्थन देने के लिए दलित समुदाय को धन्यवाद दिया लेकिन दलितों के बारे में डाटा खुद बहुत कुछ बताता है. हां बीएसपी जाटव वोटर्स के बीच अपना दबदबा बनाए रखने में कामयाब हुई, एक्सिस माई इंडिया एग्जिट पोल बताता है कि 62 फीसदी जाटव वोर्टस ने बीएसपी को वोट किया.
लेकिन गैर-जाटव दलित वोटरों के लिए बीएसपी तीसरी पसंद थी, एक्सिस माई इंडिया के डाटा के हिसाब से बीजेपी को 51 फीसदी वोट गैर जाटव दलितों का मिला, जबकि एसपी को 27 % और बीएसपी को 15 फीसदी. इसलिए भी अगर गैर जाटव दलितों की बात करें तो इस चुनाव में लगता है कि एसपी , बीएसपी से आगे रही है.
वजह #5: विधायकों ने जब खुद पार्टी छोड़ दी तो मतदाताओं पर दोष क्यों
जून 2021 तक, बीएसपी के 2017 में विजयी 19 विधायक में से सिर्फ 7 बीएसपी में बचे थे. सिर्फ 4 साल में पार्टी को अपने 60 % विधायकों का नुकसान हुआ. बीएसपी लगातार पार्टी में विधायकों की टूट और बड़े नेताओं के छोड़ने से प्रभावित हुई, लालजी वर्मा, राम अचल राजभर दोनों ने 2022 का चुनाव एसपी टिकट पर लड़ा और दोनों ही विजयी हुए.
ये दो सीट, विधानसभा में पार्टी के आंकड़ें को डबल कर देते. लेकिन अपनी ही पार्टी से विधायकों का टूटना बीएसपी की बड़ी मुसीबत है. इसके अलावा एक और परेशानी का बड़ा सबब पार्टी के कंधों पर खुद है.
अपनी हार के लिए मतदाताओं को जिम्मेदार बताना अच्छी राजनीति नहीं
चुनाव में सबसे खराब प्रदर्शन करना और फिर एक कम्यूनिटी या मतदाताओं के वर्ग को इसके लिए जिम्मेदार बताना अच्छी राजनीति नहीं है.
मायावती ने अपनी पार्टी का उम्मीद से खराब प्रदर्शन के लिए पहले भी मुस्लिमों को जिम्मेदार बताया है. 2009 के लोकसभा चुनाव के बाद उन्होंने ऐसा किया, इसके बाद 2012 के विधानसभा चुनाव नतीजों के बाद भी . ये हार की जिम्मेवारी पार्टी के भीतर लेने की बजाए इसे पार्टी से बाहर किसी और पर मढ़ने जैसा है. लेकिन क्या ऐसा करके पार्टी कहीं आगे बढ़ सकती है चाहे वो मुस्लिम मतदाताओं के बीच हो या कोई और?
2007 के बाद हरेक विधानसभा चुनावों में बीएसपी की कुल सीट और वोट शेयर दोनों ही लगातार कम हुए हैं. ये 206 सीटों और 30.6 फीसदी वोट शेयर से घटकर 2012 में 80 सीटों पर आ गई. इसके बाद मायावती ने मुस्लिम मतदाताओं पर सपा के पक्ष में वोट करने का आरोप लगाया.
फिर साल 2017 में आकंड़ा और गिरकर 19 सीटों पर आ गया और सिर्फ 22% वोट शेयर रहा. लेकिन साल 2022 में ये सिर्फ एक वोट और महज 12.9 फीसदी वोट शेयर पर आ टिका है.
और जैसा कि हमने दिखाया कि बीएसपी के इस पतन का कारण मायावती जो हमें बता रही हैं उससे परे कुछ और ही है. मायावती चाहती हैं कि हम ये विश्वास करें कि ये मुसलमानों की गलती है कि चुनाव में बीजेपी जीती और बीएसपी नहीं . अगर सच में कुछ है तो वो पार्टी खुद है ना कि यूपी के मुस्लिम वोटर्स BSP के इस हाल के लिए जिम्मेदार हैं.
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