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2019 की चुनावी हांडी पर पकने वाली खिचड़ी जायकेदार होने वाली है

विपक्षी दलों के बीच बेहतर तालमेल और समझदारी विकसित हो रही है

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खिचड़ी तो आप जानते ही हैं एक बीमार आदमी का खाना माना जाता है. लेकिन वो बोलचाल की भाषा में कमजोर गठबंधन सरकारों के लिए भी इस्तेमाल होने लगा है. आपको ध्यान होगा कि 1996-97 में जब यूनाइटिड फ्रंड की दो कमजोर सरकारें बनीं थी, पीएम इंद्रकुमार गुजराल और एचडी देवेगौड़ा की 11 और 8 महीने में ही गिर गई थीं, क्योंकि कांग्रेस ने अपना समर्थन वापस ले लिया था.

आज फिर से 'खिचड़ी गठबंधन' का जोर शोर से इस्तेमाल हो रहा है क्योंकि कई पंडितों को विश्वास है कि 2019 में जो आंकड़े सामने आएंगे वो फिर खिचड़ी गठबंधन की तरफ इशारा करेंगे.

जैसे 1996 के चुनावों में बीजेपी सबसे बड़ी पार्टी बनी थी अब भी वो 180-200 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी बन सकती है. कांग्रेस दूसरे नंबर पर आ सकती है 130-150 सीटों के साथ और बाकी की 200 सीटें क्षेत्रीय दलों में बंटेंगी छोटे-छोटे आंकड़ों में लगता है कि ये 2019 का आधार हो सकता है. लेकिन मुझे लगता है कि सिर्फ इसी आधार पर खिचड़ी कहना गलत होगा क्योंकि यहां से 2019 की कहानी काफी बदल सकती है.

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पहली वजह : विरोधियों में मोदी की दहशत

मोदी की विरोधियों को हर हाल में धूल चटाने वाली राजनीतिक शैली उन विपक्षी दलों को मजबूती से एकजुट करने वाली सबसे बड़ी ताकत है, जो मोदी का डर न होने पर आपसी तकरार में ही उलझे रहते. उन्हें पता है कि अगर वो मोदी को नहीं हराएंगे तो मिटा दिए जाएंगे. मोदी बेमिसाल ऊर्जा के साथ कैंपेन करते हैं. वो उन लोगों में से हैं, जिन्हें अमेरिका में "क्लोजर" कहा जाता है, और जो प्रचार का आखिरी लम्हा गुजर जाने के बाद तक इतना जोर लगाते हैं कि निश्चित नजर आ रही हार के जबड़े से भी जीत का निवाला छीन लाते हैं.

वो मनमोहन सिंह जैसे वरिष्ठ राजनीतिक विरोधी पर बिना पलक झपकाए देशद्रोह का आरोप लगा सकते हैं. वो अखबारों की सुर्खियों को संदर्भ से काटकर बिलकुल अलग रूप में पेश करना जानते हैं. मसलन, कांग्रेस को एक मुस्लिम पार्टी बताते हुए वो एक ऐसी पार्टी पर हंसते-हंसते कीचड़ उछाल सकते हैं, जिसने देश के स्वतंत्रता आंदोलन का नेतृत्व किया है.

मोदी अपनी चुप्पी का राजनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल करना भी बखूबी जानते हैं. दलितों और मुसलमानों की मॉब लिंचिंग पर चुप्पी, दुष्ट ट्रोल्स को सोशल मीडिया पर फॉलो करने के मामले में चुप्पी, अपने एक मंत्री द्वारा हत्या के दोषियों को सरेआम माला पहनाए जाने पर चुप्पी. उनकी इस रणनीतिक चुप्पी से उनके विरोधी बुरी तरह बौखला जाते हैं. वो समझ नहीं पाते कि क्या करें - अगर चुप रहते हैं तो भी वही धिक्कारे जाते हैं और अगर ज्यादा विरोध करें तो भी निशाना उन्हें ही बनना पड़ता है. दोनों ही स्थितियों में मुद्दा तीखे ध्रुवीकरण का जरिया बन जाता है.

1996 और 2019 के बीच सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण अंतर यही है : 1996 में कोई मोदी नहीं था, जो विपक्षी गठजोड़ को एक साथ बने रहने को मजबूर कर देता. लेकिन 2019 में मोदी उस मजबूत गोंद का काम करेंगे, जिसकी वजह से उनके तमाम विरोधी एक साथ रहेंगे - या हमेशा के लिए नष्ट हो जाएंगे !

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दूसरी वजह : 1996 और 2019 की कांग्रेस में जमीन आसमान का फर्क

1996 के चुनाव में कांग्रेस एक बुरी तरह हारी हुई पार्टी थी, जिसकी ताकत 244 सीटों से घटकर 140 पर आ गई थी इसलिए वो नैतिक रूप से सत्ता में वापसी का दावा नहीं कर सकती थी. लेकिन, 2019 में अगर कांग्रेस लोकसभा की 44 सीटों से बढ़कर 130-150 सीटों तक पहुंच गई, तो वो एक “बढ़ती हुई ताकत” होगी.

इससे कांग्रेस को गठबंधन सरकार में बढ़चढ़कर शामिल होने या मौका मिलने पर उसका नेतृत्व करने का नैतिक अधिकार भी मिल जाएगा. ऐसा होने पर सरकार को “बाहर से समर्थन देने” वाले घिसे-पिटे तरीके से छुटकारा मिलेगा, जो बड़ी राहत की बात होगी.

सीताराम केसरी एक बूढ़े, कमजोर और हड़बड़ी दिखाने वाले प्रांतीय स्तर के नेता थे. उनमें वैसी गंभीरता का साफ तौर पर अभाव था, जो किसी पार्टी के कमांडर-इन-चीफ में होनी चाहिए.

उनसे बिल्कुल उलट, राहुल गांधी कांग्रेस के निर्विवाद नेता हैं. वो युवा हैं और सब्र रखना जानते हैं. उन्होंने अपनी बातों और कामकाज से साबित किया है कि वो प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठने के लिए उतावले नहीं हुए जा रहे. वो केसरी की तरह छल-कपट करने वाले भी नहीं हैं, जिसकी वजह से देवगौड़ा और गुजराल सरकारों का बुरा हाल हुआ था.

तीसरी वजह : 2019 का गठजोड़ सोची-समझी प्रक्रिया का ठोस नतीजा

1996 का यूनाइटेड फ्रंट गठबंधन चुनाव के बाद बेहद हड़बड़ी में बना था. जिसे चंद घंटों के भीतर किसी तरह जोड़तोड़ करके खड़ा किया गया था. जबकि मौजूदा विपक्ष 2019 के लिए बड़े धैर्य और मेहनत के साथ मजबूत प्लेटफॉर्म तैयार कर रहा है. गोरखपुर, फूलपुर, कैराना, अजमेर, अलवर, गुरदासपुर और दूसरी जगहों पर हुए कई उपचुनावों में मिली भारी जीत ने उनमें नई उम्मीद जगाने का काम किया है.

शरद पवार जैसे दिग्गज राजनेता इस प्रक्रिया को अपने अनुभव और प्रभाव से और मजबूत बना रहे हैं. (राज्यसभा में उपसभापति पद के लिए साझा उम्मीदवार तय करने का मुश्किल काम इसका ताजा उदाहरण है.) मायावती ने राहुल गांधी के बारे में गलतबयानी करने वाले अपने एक वरिष्ठ नेता को 24 घंटे के भीतर पद से हटाकर ऐसी टीम भावना दिखाई है, जिसकी झलक पहले कभी नहीं देखी गई थी.

एचडी कुमारस्वामी ने रोने-धोने और गठबंधन के अपने सहयोगी को शर्मिंदा करने वाली 1996-स्टाइल ड्रामेबाजी से बहुत जल्द तौबा कर ली. इतना ही नहीं, 24 घंटे के भीतर उन्होंने सार्वजनिक तौर पर अपनी गलती मानी और प्रधानमंत्री पद के योग्य उम्मीदवार के तौर पर राहुल गांधी की तारीफ भी की.

हालांकि, ये कुछ छोटी-छोटी बातें हैं, लेकिन इनसे भरोसा जमता है कि विपक्षी दलों के बीच बेहतर तालमेल और समझदारी विकसित हो रही है, जो 1996 के शोर शराबे और रहस्यमय जोड़तोड़ वाले माहौल से बहुत अलग है.

कुल मिलाकर, अंतिम निष्कर्ष बिलकुल साफ है : 2019 के चुनावी समीकरण भले ही एक बार फिर से 1996 जैसी त्रिशंकु संसद की ओर इशारा कर रहे हों, लेकिन इस बार विपक्षी दलों के गठजोड़ का मिजाज पूरी तरह अलग होगा, जो इसे खारिज करने वालों को चौंकाने की संभावना रखता है.

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