इलेक्टोरल इंडिया कप, जो 2019 में खेला जाएगा उसका पहला मैच संसद में अविश्वास प्रस्ताव के दौरान हो गया. इस मैच का नतीजा ड्रॉ था. इससे अब एक पेनल्टी शूटआउट का माहौल बन जाएगा, जो मई 2019 तक चलेगा.
कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी जो एक कमजोर, टीम के मुख्य स्ट्राइकर थे, उन्होंने आखिरकार अपने गेम में एक ऐसा अनोखा बदलाव किया जो पहले नहीं था. बड़े-बड़े अखबार जो प्रधानमंत्री मोदी को 90% और विपक्षी दलों को 10% की कवरेज देते थे उन अखबारों को मजबूर होना पड़ा और राहुल गांधी को आधी जगह देनी पड़ी. विपक्षी सांसद राहुल के खिलाफ घबराहट में बोले, वो चाहते तो हंसकर जवाब दे सकते थे लेकिन ऐसा नहीं हुआ.
इन प्रतिक्रियाओं ने मुझे बॉलीवुड के उस मशहूर डायलॉग की याद दिला दी : वाह भाई, जब आप किसी को प्यार करें तो वो इश्क और हम करें तो सेक्स !!
यॉर्कर को दूसरी दिशा दे सकते थे मोदी
मुझे भरोसा था कि प्रधानमंत्री मोदी अपनी बारी आने पर वाजपेयी की तरह खेलेंगे और राहुल की यॉर्कर को बड़ी आसानी से डीप फाइन लेग की तरफ मोड़ देंगे. इसके बाद वो मोहक मुस्कान बिखेरते हुए गैलरी की तरफ हाथ हिलाएंगे. (मैं फुटबॉल और क्रिकेट की शब्दावली का घालमेल कर रहा हूं, लेकिन कोई बात नहीं, जंग और राजनीति में सबकुछ जायज है.) वो बड़ी आसानी से कुछ ऐसी बात कह सकते थे - "अभी तक तो मैंने केवल उनके बारे में सुना ही था, पर आज मुन्नाभाई से यहां मुलाकात हो ही गई. अरे भाई, जादू की झप्पी तो ठीक है, लेकिन जरा पढ़-लिखकर MBBS पास तो कर लो पहले."
लेकिन ऐसा करने की बजाय मोदी ने सरेआम मजाक उड़ाने वाले अंदाज में राहुल पर तीखा हमला बोल दिया. उन्होंने राहुल की नकल उतारी और उनके “झप्पी के अनुरोध” को “उम्र के कच्चे और अनुभवहीन दौर में प्रधानमंत्री की कुर्सी पाने के बेशर्मी भरे लालच” के तौर पर पेश किया.
2019 में कैसा रहेगा दोनों का मुकाबला?
जैसा कि मैं बार-बार कहता रहा हूं, कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद से राहुल गांधी एक होनहार राजनेता के रूप में उभर रहे हैं :
- उन्होंने गुजरात में एक जोश से भरे प्रचार अभियान का नेतृत्व किया, मोदी और शाह को उनके गढ़ में चुनौती देने की हिम्मत दिखाई. इतना ही नहीं, वो एक चौंकाने वाली जीत दर्ज करने के बेहद करीब तक जा पहुंचे.
- इसके बाद उन्होंने चीफ जस्टिस के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव लाने का राजनीतिक जोखिम से भरा फैसला किया. उनके इस कदम ने सुप्रीम कोर्ट को जनता की कड़ी निगरानी में ला दिया, जिससे कोई गलत कदम उठाए जाने का खतरा दूर हो गया.
- कर्नाटक में उन्होंने दिखा दिया कि वो मौके को भांपकर तेजी से समझौता करने की कला सीख चुके हैं. अपने से छोटे सहयोगी दल को सरकार का नेतृत्व सौंपने के फैसले में आपको हताशा नजर आ सकती है, लेकिन थोड़े धैर्य से विश्लेषण करने पर समझ आएगा कि दरअसल ये एक रणनीतिक फैसला था, जिसका मकसद था 2019 के अंतिम मुकाबले के लिए ज्यादा समर्थन जुटाना. भले ही उसके लिए अभी दो कदम पीछे ही क्यों न हटना पड़े. यही वजह है कि मैं इसे एक समझदारी भरी चाल कहूंगा.
- उन्होंने अपनी टॉप लीडरशिप में अहम बदलाव किए हैं. कुछ बड़े नामों को हटा दिया है, लेकिन कई और पुराने चेहरे अब भी कायम हैं, ताकि निरंतरता बनी रहे. साथ ही उन्होंने कई नई प्रतिभाओं को शामिल भी किया है.
- और अंत में, संसद के भीतर अपनी साहसिक और अप्रत्याशित झप्पी के जरिए उन्होंने राजनीतिक मंचों पर हमेशा हावी रहने वाले मोदी की मौजूदगी में ही मुशायरा लूट लिया.
जहां तक प्रधानमंत्री मोदी का सवाल है, ऐसा लगता है वो अपने ईको चैंबर में और गहरे धंस गए हैं. उनके पास अपने उन नाराज/निराश लिबरल समर्थकों का दिल फिर से जीतने का बड़ा मौका था, जिन्होंने 2014 में उनका साथ दिया था. (वो 5 फीसदी वोटर जिन्होंने बीजेपी के 26 फीसदी के ठोस आधार में इजाफा करके उसे 31 फीसदी तक पहुंचाया था). लेकिन उन्होंने बड़ी बेरुखी से उनकी अनदेखी कर दी.
- वो दलितों और मुसलमानों की मॉब लिंचिंग को पूरी तरह खत्म करने का संकल्प ले सकते थे.
- वो दुष्ट और शातिर ट्रोल्स को सोशल मीडिया पर अनफॉलो कर सकते थे.
- वो सरकार के निर्दोष नागरिकों पर लगातार, बेवजह और हर क्षेत्र में निगरानी रखने वाले ढांचे को खत्म करने का कमिटमेंट कर सकते थे.
- वो पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर देशद्रोह का आरोप लगाने पर अफसोस जाहिर कर सकते थे.
- वो घोषित कर सकते थे कि शादी के दायरे में होने वाले रेप भी उतने ही गलत हैं, जितने कि तीन तलाक.
कितनी ही चीजें हैं जो वो कर सकते थे, लेकिन चुप्पी उनकी आड़े आ गई ! इन बातों की बजाय उनका पूरा जोर सिर्फ नेहरू-गांधी परिवार को दुष्ट और गलत साबित करने पर था.
तो कुल मिलाकर हालात ऐसे हो चले हैं कि ड्रॉ हो चुके मैच से पेनल्टी शूटआउट की तरफ बढ़ने के दौरान मैं अपना सिर ऊंचा करके एक भविष्यवाणी करना चाहूंगा:
2019 की बाजी में हालांकि प्रधानमंत्री मोदी अब तक आगे हैं, लेकिन उन्हें चुनौती देने वाले बड़ी तेजी से करीब आते जा रहे हैं. और राजनीति में 40 हफ्ते का वक्त बहुत लंबा होता है !
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