वीडियो एडिटर: कुणाल मेहरा
कैमरा: शिव कुमार मौर्या
5,000 लोगों के बीच एक. ये है अफगानिस्तान की आबादी में अल्पसंख्यक हिंदुओं-सिखों का अनुपात. मतलब समझ सकते हैं कि कितना छोटा होगा उनका समुदाय.
एक समय था जब 1980 के दशक में इन अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों की संख्या लगभग 2 लाख थी. तब से ये संख्या गिरकर आज लगभग 1,000 पर आ गई है. ऐसा इसलिए, क्योंकि धार्मिक उत्पीड़न के बाद सिखों और हिंदुओं ने वहां रहना मुनासिब नहीं समझा.
मुजाहिदीन के देश को तबाह करने से पहले और तालिबान के कंट्रोल से पहले, अफगानिस्तान में हिंदू और सिख अल्पसंख्यक ही थे, लेकिन उनके हालात अच्छे थे और वो असरदार हुआ करते थे. भले ही वो राजनीतिक रूप से एक्टिव नहीं थे, लेकिन बिजनेस और ट्रेड के मामले में उनका कोई जोड़ नहीं था.
मुजाहिदीन और तालिबान शासन में चीजें बदलीं और बदतर होती गईं. यही वो समय था, जब सिखों और हिंदुओं जैसे धार्मिक अल्पसंख्यकों को खुद के पहचान के लिए अलग, पीले या नारंगी कपड़े या आर्मबैंड्स पहनने पड़े. उन्हें सरकारी पदों पर बैन कर दिया गया.
2001 में तालिबान के कमजोर पड़ने के बाद भी दुश्मनी वाली ये स्थिति कुछ ऐसी ही बनी रही. सिखों और हिंदुओं के मुताबिक, उनके इस धार्मिक पहचान के कारण, स्कूलों में भेदभाव किया गया और जमीनें छीनी गईं. मृत लोगों के अंतिम संस्कार करने जैसे धार्मिक अनुष्ठानों के कारण उन्हें नफरत झेलनी पड़ी.
30 साल पहले तक सैकड़ों, हजारों की तादाद से घटकर आज आबादी में इनकी संख्या 0.02% तक बची रह गई है.
यही कारण है कि 1 जुलाई को जलालाबाद में अफगानी सिख नेता अवतार सिंह खालसा की हत्या एक बड़ा मुद्दा बन गया. जलालाबाद में हुए आत्मघाती बम विस्फोट में 20 लोगों की मौत हो गई थी, जिसमें खालसा भी थे. वो राजनेताओं और कार्यकर्ताओं वाले उस हिंदू और सिख काफिले में शामिल थे, जिसे ISIS की ओर से आत्मघाती हमले में टारगेट किया गया. खालसा और अन्य अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ गनी से मिलने जा रहे थे.
खालसा इस साल अक्टूबर में चुनाव लड़ने वाले थे और माना जा रहा था कि वे जीतकर संसद पहुंचेंगे. वो संसद में एकमात्र सिख होते- इसे समुदाय और देश के लिए गर्व का पल माना गया. सिर्फ अपने समुदाय के लोगों में ही नहीं, बाकियों में भी खालसा काफी मशहूर थे – लोकप्रिय और सम्मानित उम्मीदवार.
लेकिन इस हमले के बाद से पहले से ही खुद को छोटा और असुरक्षित समझ रहा ये अल्पसंख्यक समुदाय और ज्यादा डर गया है. हालांकि वहां का सिख समुदाय कहता है कि उन्हें उनकी सरकार से मान्यता मिली है, लेकिन फिर भी वो आतंकियों और उग्रवादियों के निशाने पर बने रहते हैं.
कई लोग देश छोड़ रहे हैं. भारत ने उनका स्वागत किया है. लेकिन कइयों का कहना है कि यहां पहुंचने पर उन्हें 'बाहरी' ही समझा जाता है.
चाहे भारत में अफगानों की बात हो या अफगानिस्तान में भारतीयों की, दोनों के लिए वहां बने रहने की राह मुश्किल है.
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