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भीमा-कोरेगांव केस NIA को सौंपकर किसी को बचा रही है केंद्र सरकार?

करीब दो साल बाद अचानक एक्शन में आई एनआईए पर सवाल उठ रहे हैं.

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कैमरापर्सन: मुकुल भंडारी

वीडियो एडिटर: आशुतोष भारद्वाज

पुरानी कहावत है कि दो हाथियों की लड़ाई में सबसे ज्यादा नुकसान घास का होता है. इसे सरकारों पर लागू करें तो शायद यूं कह सकते हैं कि दो सरकारों की लड़ाई में सबसे ज्यादा नुकसान इंसाफ का होता है.

ये कहावत मुझे याद आ रही है भीमा-कोरेगांव केस के संबंध में जिसकी तफ्तीश अचानक केंद्रीय जांच एजेंसी एनआईए के हाथ में दे दी गई है और सरकार के इस कदम से बवाल खड़ा हो गया है.

कथा जोर गरम है कि...

क्या दो साल पुराने भीमा-कोरेगांव केस के एनआईए के हाथ में आने के पीछे कोई डिजाइन है?राज्य सरकार के कामकाज में केंद्र की दखलंदाजी है?

महाराष्ट्र में सरकार चला रहीं कांग्रेस और एनसीपी ने तो इसे बाकायदा ‘साजिश’ करार दिया है. कांग्रेस के पूर्व महासचिव राहुल गांधी ने इस मसले को ‘अर्बन-नक्सल’ नैरेटिव से जोड़ते हुए ट्वीट किया.

‘’जो भो MOSH के नफरत के एजेंडे का विरोध करता है, वो ‘अर्बन नक्सल’ हो जाता है. भीमा-कोरेगांव प्रतिरोध का प्रतीक है जिसे सरकार की एनआईए की कठपुतलियां कभी मिटा नहीं सकती.”
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क्रोनोलॉजी समझिए

मसले को तफ्सील से समझने के लिए मैं आपको थोड़ी क्रोनोलॉजी समझाता हूं.

  • एक जनवरी, 2018 को पुणे जिले के छोटे से गांव भीमा-कोरेगांव में एक जश्न के दौरान दलित और मराठा समुदाय के बीच हिंसा हुई.
  • पुलिस ने कई आरोपियों के संबंध नक्सलियों से होने का आरोप लगाया.
  • 28 अगस्त, 2019 को पुणे पुलिस ने देश के अलग-अलग हिस्सों में छापे मारकर कई गिरफ्तारियां की. कहा गया कि प्रधानमंत्री की हत्या की साजिश रची जा रही थी.
  • इस आरोप को एफआईआर में नहीं डाला गया. ये वो लोग थे जिनकी ब्राडिंग ‘अर्बन-नक्सल’ के तौर पर की जा चुकी थी.

उस वक्त महाराष्ट्र में बीजेपी-शिवसेना की सरकार थी.

  • वक्त का पहिया घूमा और 21 अक्टूबर, 2019 को हुए महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के बाद वहां शिवसेना, कांग्रेस और एनसीपी की साझा सरकार बन गई. यानी वो पार्टियां सत्ता में आ गईं जो भीमा-कोरेगांव केस की जांच पर सवाल उठा चुकी थीं.
  • नई सरकार बनने के साथ ही केस की समीक्षा की चर्चा शुरु हो गई.
  • 21 जनवरी, 2020 को महाराष्ट्र के गृह मंत्री अनिल देशमुख ने क्विंट से बातचीत में भीमा-कोरेगांव केस की फाइल दोबारा खोलने बात कही.
  • लेकिन 24 जनवरी, 2020 को केंद्रीय जांच एजेंसी एनआईए ने केस अचानक अपने हाथ में ले लिया.

अब करीब दो साल बाद अचानक एक्शन में आई एनआईए पर सवाल उठ रहे हैं.

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क्या है प्रक्रिया?

अनुसूचित अपराध होने पर उस लोकेशन का ऑफिस इंचार्ज राज्य सरकार को एक रिपोर्ट भेजता है जहां से वो केंद्र सरकार को भेजी जाती है. 15 दिन के भीतर केंद्र को फैसला लेना होता है कि केस एनआईए को दिया जाना चाहिए या नहीं.

भीमा-कोरेगांव केस में दो साल से ज्यादा का वक्त बीत चुका लेकिन अब तक केंद्र को केस एनआईए के लायक नहीं लगा.

हालांकि एनआईए एक्ट केंद्र सरकार को ये इजाजत भी देता है कि अनुसूचित अपराध होने पर वो राज्य सरकार की सहमति के बिना ही कोई केस एनआईए को सौंप दे.

सवाल ये है कि..

भीमा-कोरेगांव केस में केंद्र ने इसी ताकत का इस्तेमाल किया है. लेकिन यहां सवाल ये उठता है कि

  • भीमा-कोरेगांव केस की चार्जशीट बीजेपी सरकार के वक्त फाइल हुई. कांग्रेस-एनसीपी की महाविकास अघाड़ी सरकार ने उसकी समीक्षा की बात कही और दो साल से चुप बैठी केंद्र सरकार ने केस एनआईए को सौंप दिया. क्या ये महज इत्तेफाक है?
  • साल 2008 में मुंबई हमले के बाद बनी एनआईए की एक स्वतंत्र एजेंसी के तौर पर छवि कई मौकों पर सवालों के घेरे में रही है और इस पर केंद्र सरकार के ‘पिंजरे का तोता’ होने के आरोप लगते रहे हैं.
  • कानून-व्यवस्था राज्य सरकार के दायरे में आता है और उसकी सहमति के बिना किसी अहम केस को केंद्रीय एजेंसी को सौंप देना क्या संघीय व्यवस्था के खिलाफ नहीं है?
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कांग्रेस और एनसीपी का तो सीधा आरोप है कि केंद्र ने केस एनआईए को सौंपा ही इसलिए है ताकि महाराष्ट्र की पिछली बीजेपी सरकार को बचाया जा सके जिसकी निगहबानी में ये केस रजिस्टर हुआ था.

वैसे आप ये जानकर हैरान हो जाएंगे कि जिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर एनआईए के बेजा इस्तेमाल का आरोप लगा रहा है वो खुद गुजरात के मुख्यमंत्री रहते इस एजेंसी के खिलाफ थे. यूपीए सरकार के वक्त बनी एनआईए को ‘सीएम नरेंद्र मोदी’ देश की संघीय भावना के खिलाफ बताते थे और यूपीए सरकार पर उसका इस्तेमाल अपने फायदे के लिए करने का आरोप भी लगाते थे.

इत्तेफाक देखिए कि ये आरोप अब खुद उनपर लग रहे हैं.

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